नीरज उत्तराखंडी
स्थानांतरण एक्ट को लेकर शिक्षा विभाग ने कुछ दिनों तक खूब हो-हल्ला मचाया। सभी विभागों के लिए अनिवार्य रूप से लागू एक्ट को जहाँ अंततः दस प्रतिशत तक लाकर समेट दिया गया वहीं स्थानांतरण के लिए हमेशा से ही सुर्खीयों में रहने वाले शिक्षा विभाग ने एक्ट को भी हवा में उडा़ दिया, नतीजन विभाग में कई वर्षों से दुर्गम में जमे शिक्षक जहाँ दुर्गम की दुस्वारियों को बदस्तूर झेलते आ रहे हैं, वहीं सुगम के कब्जाधारी अपने स्थानों पर यथावत् बने हुए हैं।
सामान्य लोगों को छोड़ भी दिया जाय तो कई प्रकार की गम्भीर बीमारियों से जूझते शिक्षक जिन्होंने एक्ट लागू होने के साथ बहुत ही आश्वस्त होकर गत वर्ष मई माह में इस उमीद के साथ आवेदन किया एक्ट शायद उन्हें ऐसी जगह पर पहुँचाने में मददगार साबित होगा, जहाँ से वे नियत समय पर अपना उपचार करवा पायें परंतु एक जून के बाद दूसरा जून आने को है लेकिन शिक्षा विभाग एक्ट के तहत प्राथमिक संवर्ग में जनपद के अतिरिक्त एक भी स्थानांतरण करवाने में सफल नहीं हो पाया, सिवाय सत्ता के करीबी लोगों के।
इस कारण आज स्थिति यह बनी हुई है कि प्राथमिक स्तर पर संवर्ग परिवर्तन के इच्छुक शिक्षक जिन्होंने एक्ट के प्राविधानों के अंतर्गत आवेदन प्रस्तुत किये हैं, उनके आवेदन विभाग के न जाने किस टेबील पर धूल फाँक रहे हैं, वहीं जाने इनके अतिरिक्त माध्यमिक का तो हाल इतना बुरा है, कि वो अभी तक सुगम-दुर्गम का निर्धारण ही नहीं कर पाया। जिससे विभागीय अधिकारियों की कार्य शैली का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
यहाँ विचारणीय यह है कि तमाम विषमताओं के बीच एक बीमार शिक्षक/ शिक्षिका कितनी मुसीबतों के बीच जीवन के लिए जूझ रहे है, सत्ता के उन मठाधिसों को इस बात का एहसास भी कैसे हो सकता है जिनके स्वस्थ होने पर भी आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित , विभिन्न रोगों के विशेषज्ञ चिकित्सकों से युक्त रोगी वाहन अनावश्यक ईधन फूँक धुआँ उडा़ते हुए फर्राटे भरते नज़र आता है। संवेदनहीनता की इससे बेहत्तर पराकाष्ठा शायद ही देखने को मिले।