चुनाव की चिंता मे आई चकबंदी की याद। फंसाया बंदोबस्त का पेंच
उत्तराखंड की प्रचंड बहुमत की सरकार का मात्र डेढ़ साल का कार्यकाल बचा रह गया है। चुनाव सामने हैं इसलिए अब सरकार को फिर चकबंदी की याद आ रही है। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने चकबंदी की जरूरत तो बताई लेकिन साथ ही कहा कि इसके लिए बंदोबस्त कराया जाना जरूरी है। अहम सवाल यह है कि सरकार बंदोबस्त की आड़ में आखिर चकबंदी के मामले को क्यों लटकाना चाहती है !
त्रिवेंद्र रावत वर्ष 2009 में रहे चकबंदी समिति के अध्यक्ष
अहम सवाल यह भी है कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत वर्ष 2008-09 में चकबंदी समिति के अध्यक्ष रह चुके हैं। उत्तराखंड में चकबंदी को लेकर तमाम बुद्धिजीवी लंबे समय से आंदोलन कर रहे हैं।
तब से लेकर पता नहीं कितनी बार कितने आवेदन चकबंदी अभियान के लोग मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के दरबार में पेश कर चुके हैं। आखिर इनको बंदोबस्ती और चकबंदी करने से किसने रोका था! जाहिर है कि साढे तीन साल से मुख्यमंत्री के पद पर राज करने के बाद आखिरी वक्त में फिर से चकबंदी और बंदोबस्ती की याद आए तो जाहिर है सामने चुनाव नजर आने लगे हैं। लंबे समय से चकबंदी कराने के लिए जन जागरण करते जा रहे। उत्तराखंड चकबंदी मोर्चा के अध्यक्ष समाजसेवी केवलानंद तिवारी का कहना है कि यह नेता पहाड़ी भूमिधरों को राज्य बनने से भी पहले से ही मूर्ख बनाते आ रहे हैं।
यह थी वर्ष 2009 की चकबंदी समिति
गौरतलब है कि 20 फरवरी 2009 को तत्कालीन कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की अध्यक्षता में चकबंदी लागू करने के लिए एक समिति का गठन किया गया था। राज्यपाल की आज्ञा से गठित इस समिति में त्रिवेंद्र सिंह रावत के साथ ही बलवंत भौर्याल, केदार सिंह रावत, ओम गोपाल आदि विधायकों के साथ तत्कालीन प्रमुख सचिव राजस्व सुभाष कुमार, तत्कालीन पशुपालन सचिव अमरेंद्र सितन्हा, न्याय सचिव आरडी पालीवाल और गणेश गरीब आदि लोग शामिल थे। इसमें कहा गया था कि हरिद्वार उधमसिंह नगर में चकबंदी के लाभकारी परिणाम और उत्तरकाशी के बीफ और खरसाली में अपनाए गए चकबंदी के प्रयोग के उत्साहजनक परिणाम परिलक्षित हुए है। इसलिए राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में जहां चकबंदी नहीं हो पाई है वहां चकबंदी लागू करने के लिए यह समिति बनाई गई है।
कांग्रेस अपने विधायकों की ही “चकबंदी” मे उलझी रही
उसके बाद कांग्रेस सरकार पूरे पांच साल अपने विधायकों के ही बंदोबस्त और हदबंदी में लगी रही तो खेतों की चकबंदी का कहां ध्यान रहता। जनता का तो मूर्ख ही बनाया। तब उसके बाद से साढे तीन साल खुद त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री रह चुके हैं।
त्रिवेंद्र के खैरासैंण और योगी के पंचूर मे होनी थी पहले चकबंदी
चकबंदी के नाम पर त्रिवेंद्र सिंह रावत अपने पैतृक गांव खैरा सैण और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गांव पंचूर में चकबंदी लागू करने की घोषणा की थी। किंतु इस घोषणा के भी दो साल से अधिक समय हो गया है। दो कदम भी इस दिशा मे सरकार नही बढी है। जब उत्तराखंड चकबंदी मोर्चा के लोगों ने इन गांव में जाकर मीटिंग करी तो पता चला कि यहां पर चकबंदी के अधिकारियों ने ग्रामीणों से कोई बात नहीं की। खबरें केवल अखबारों तक सीमित है। राजस्व गांव अमगांव के अंदर यूपी के प्रधानमंत्री योगी के पैतृक गांव पंचूर में उनके पिता आनंद सिंह बिष्ट से तब यह पता चला था कि चकबंदी विभाग अधिकारियों की टीम एक डेढ़ माह पहले स्थानीय ग्राम प्रधान और भूमि दलों के साथ बैठक करके जल्दी ही अगली कार्यवाही करने का आश्वासन दे गई थी तथा मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के पैतृक गांव में भी भूमि धरों से वार्ता करके वहां भी अगली कार्यवाही करने का आश्वासन दे गए थे।
लेकिन तब से लेकर अब तक इस दिशा में प्रगति बिल्कुल शून्य है। मुख्यमंत्री द्वारा घोषित इन दो गांव में एक साल से भी अधिक समय से कोई कार्य नहीं हुआ है। जबकि चकबंदी से उत्तर प्रदेश की भूमि धरों की 10 गुना से अधिक पैदावार बढ़ी है। उत्तराखंड चकबंदी मोर्चा ने सरकार से मांग की है कि सरकार पहले से तय किए गए गांव कारचोली और गांव भटोरिया की साढे तीन सौ नाली भूमि में तथा ग्राम पंचायत खैरासैण पंचूर की अन्य जगहों पर तत्काल चकबंदी करें अथवा गरीब क्रांति अभियान या फिर उत्तराखंड चकबंदी मोर्चा को इसके लिए अधिकृत कर दिया जाए तो वह खुद चकबंदी करके दिखा देंगे। लेकिन सरकार ना खुद चकबंदी करने के लिए इच्छुक है और ना ही इस अभियान से जुड़े लोगों की मदद लेने की इच्छुक है।
काम नही बस तिकड़म
पिछली बार भी जब चकबंदी को लेकर तत्कालीन सरकार कोई काम नहीं कर पाई थी तो अपनी किरकिरी से बचने के लिए सरकार ने अपनी ही पार्टी के कुछ ग्राम प्रधानों से जानबूझकर यह लिखवा लिया था कि उनके गांव वाले चकबंदी के पक्ष में नहीं है और उसे एक रिपोर्ट की तरह प्रस्तुत कर दिया था। जबकि हकीकत यह है कि ग्रामीणों से चकबंदी के संबंध में ना तो कोई बात की गई थी और न ही उन्हें चकबंदी के फायदे समझाएं गए थे। केवल अपनी किरकिरी से बचने के लिए असत्य रिपोर्ट प्रधानों द्वारा प्रस्तुत करा दी गई। हकीकत यह है कि पिछले दो दशक से सरकारें लगातार पहाड़ के भूमिधरों को कहती आ रही है कि चकबंदी कराई जा रही है। लोगों को भी लगता है कि जब चकबंदी हो जाएगी तब वे अपने खेतों में ध्यान देंगे।
पता चला कि आज उन्होंने जिन खेतों में कुछ फलदार पौधे लगाए वे चकबंदी से उनके पास से हट गए तो फिर क्या फायदा होगा ! यदि चकबंदी हो जाती और किसानों को एकमुश्त एक जगह पर ही चेक बना कर दिए जाते तो शायद वे अपने चेक के अंतर्गत सिंचाई ,पेयजल,बिजली, वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए तार बाढ़ से लेकर के खेती किसानी के तमाम तरीके अपना सकते थे लेकिन चकबंदी ना होने से लगातार पलायन बढ़ता ही चला गया। यदि पलायन आयोग पलायन की बात न करते सिर्फ चकबंदी चकबंदी का प्रयास करते तो पलायन अपने आप ही रुक जाता।
अब चकबंदी लागू कराने में असफल रहने पर सरकार एक बार फिर से बंदोबस्त का पेंच फंसाने जा रही है।
उत्तराखंड चकबंदी मोर्चा के अध्यक्ष केवलानंद तिवारी हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका के माध्यम से चकबंदी लागू कराने की बात कह रहे हैं। अहम सवाल यह है कि क्या चकबंदी के नाम पर जनता को यूं ही बेवकूफ बनाया जाता रहेगा और पहाड़ों से पलायन यूं ही बदस्तूर जारी रहेगा ! क्योंकि जब तक चकबंदी नहीं होती तब तक पहाड़ का सवाल हल होना नामुमकिन है