अरबन हैल्थ सेंटर्स चलाने वाले एनजीओ स्वास्थ्य विभाग से करोड़ों रुपए का बजट फर्जी मरीजों और बिलों के द्वारा हड़प रहे हैं। बड़े स्तर पर मिलीभगत की संभावना
कुलदीप एस. राणा
एसपीडी संस्था ने मरीजों के पंजीकरण के पर्चे दो साल बाद तक की तारीखों के बने हुए दिखाए हैं। संभवत: यह ज्यादा मरीजों का पंजीकरण दिखाकर सरकार से ज्यादा बजट हासिल करने का मामला हो सकता है।
समर्पण संस्था द्वारा जारी किए गए दवाओं के बिलों में काफी गड़बडिय़ां हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि दवाईयों की खरीद ज्यादातर कागजों में ही हुई है।
प्रिवेंशन इज बेटर दैन क्योर डायलॉग तो आपने सुना ही होगा, लेकिन देहरादून में सरकारी बजट से चलने वाले अस्पताल ऐसे भी हैं, जहां आपको २०१९ तक की बीमारी का इलाज आज ही मिल सकता है।
राष्ट्रीय हेल्थ मिशन की अर्बन हेल्थ परियोजना के अंतर्गत देहरादून के स्लम एरिया में रह रहे गरीबों को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सोसाइटी ऑफ पीपुल फॉर डेवलपमेंट (एसपीडी) और सोसाइटी फॉर हैल्थ रिसर्च डेवलपमेंट (समर्पण) नाम के दो एनजीओ को सौंपा गया है। जिसके लिए दोनों एनजीओ ने देहरादून और ऋषिकेश के विभिन्न शहरी क्षेत्रों में अर्बन प्राइमरी हेल्थ सेंटर के नाम से 8-8 सेंटर खोल रखे हैं। इन सेंटर में मरीजों के नाम से दवा की जो पर्चियां बनाई गई हैं, उनमें २०१७ और वर्ष २०१९ की तारीखें दर्ज हैं। जाहिर है कि मरीजों की ये पंजीकरण पर्चियां फर्जी हैं।
आरटीआई कार्यकर्ता अमर सिंह धुंता ने गरीबों को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के कार्यों पर सवाल खड़े कर दिए हैं। आरटीआई में प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर धुंता बताते हैं कि किस तरह ये एनजीओ गरीबों के नाम से फर्जी पंजीकरण कर ओपीडी पर्चे (जिस पर डॉक्टर द्वारा मरीजों को दवाईयां लिखी जाती हैं) काट-काट कर स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के नाम पर सरकारी धन की लूटखसोट में जुटी है।
दरअसल सरकारी आदेश के अनुसार इन यूपीएचसी में आने वाले रोगियों का एपीएल से १० रुपए और बीपीएल का नि:शुल्क पंजीकरण किया जाना तय है। पंजीकरण से प्राप्त हुई धनराशि को जमा करने के लिए बैंक में अलग से एक एकाउंट खोलना होगा। जिसमें यह शुल्क जमा तो किया जा सकता है, किंतु बिना शासनकी अनुमति के धनराशि निकाली नहीं जा सकती, किंतु ये एनजीओ बीते कई वर्षों से शासन की आंखों में धूल झोंककर इन योजनाओं पर पलीता लगा रहे हैं।
आरटीआई में इन एनजीओ ने सीएमओ ऑफिस देहरादून के माध्यम से अब तक जमा हुए पंजीकरण शुल्क का जो वर्षवार विवरण दिया है, वह आपस में बहुत विरोधाभासी है, क्योंकि एसपीडी का दस्तावेज दिखाता है कि उसने वर्ष २०१३-१४ में ९१३५० रुपए, वर्ष १४-१५ में ६७६७० रुपए और वर्ष १५-१६ में ४११०८० रुपए जमा किए। वहीं दूसरा दस्तावेज अलग कहानी बयां कर रहा है। जिसमें इन्होंने वर्ष २०१३-१४ में ८४३५०, वर्ष १४-१५ में ७४६७० व वर्ष १५-१६ में ३९४२८० रुपए जमा किए।
यही हाल समर्पण संस्था के दस्तावेज बयां कर रहे हैं, जिसमें पहले तो ये कहते हैं कि वर्ष २०१३-१४ में २७७७२० रुपए, वर्ष १४-१५ में ३१९४२० रु., वर्ष १५-१६ में ३४८१३० रुपए जमा किए। एक और दस्तावेज के अनुसार इनके द्वारा २०१३-१४ में २३४१५० रुपए, वर्ष १४-१५ में २७७९२२ रु., वर्ष १५-१६ में ४४७७४० रुपए इन खातों में जमा किए गए हैं।
अब कौन से आंकड़े सही हैं और कौन से गलत, क्योंकि एक वर्ष के दो अलग-अलग आंकड़े कैसे संभव हैं?
पंजीकरण शुल्क का यह अंतर सिर्फ रुपयों के हेर-फेर तक ही सीमित नहीं है। यह अंतर उन तमाम पंजीकरण की तरफ इशारा कर रहा है, जो फर्जी तरीके से किए गए हों।
इन एनजीओ द्वारा उक्त शुल्क को जमा करने के लिए खोले गए बैंक एकाउंट की डिटेल्स भी कुछ और कहानी बयां कर रही हैं। क्योंकि सरकारी आदेश के अनुसार इन एकाउंट में पैसा तो जमा किया जा सकता है, किंतु बिना शासन की अनुमति के पैसा निकाला नहीं जा सकता। समर्पण संस्था द्वारा उक्त शुल्क जमा करने के लिए तीन एकाउंट की डिटेल उपलब्ध कराई गई हैं। अब इनमें कौन सही है या कौन गलत, यह जांच का विषय है।
जुलाई 2015 से पहले ये सेंटर्स अर्बन हेल्थ सेंटर के नाम से कार्य करते थे। इसके पश्चात इनका नाम बदलकर अर्बन प्राइमरी हेल्थ सेंटर कर दिया गया।
आरटीआई से प्राप्त एसपीडी संस्था के उन पंजीकरण पर्चों का अवलोकन किया गया तो पाया गया कि अधिकांश पर्चों में तिथि ही अंकित नहीं है और कई पर्चों के सीरियल नंबर हाथ से लिखे गए हैं, जबकि कुछ पर्चों में यह पहले से प्रिंटेड है। एक तथ्य यह भी है कि अर्बन प्राइमरी हेल्थ सेंटर जुलाई 2015 से शुरू हुए थे तो उसके बाद के ये पर्चे अर्बन प्राइमरी हेल्थ सेंटर के नाम की बजाय अर्बन हेल्थ सेंटर के नाम से क्यों काटे गए?
इसके अलावा 14 जुलाई 2015 की पर्चियों में क्रम संख्या 14, 743 लिखी हुई है। मतलब शुरुआती 13 दिनों में 13,742 रोगियों का पंजीकरण कर उपचार उपलब्ध कराया गया है। अर्थात एक दिन में औसतन 1057 रोगियों का पंजीकरण व उपचार हुआ।
इसके बाद अगले दिन से रोगियों की संख्या में आश्चर्यजनक गिरावट आती है और 14 जुलाई को मात्र 13 रोगी, 15 तारीख को 10 रोगी, 16 तारीख को मात्र 9 रोगी ही इन सेंटर्स में उपचार कराने पहुंचे। १6 जुलाई के अंतिम पर्चे में क्रम संख्या 14,776 है और 17 जुलाई को यह क्रम संख्या संख्या आगे बढऩे के बजाय 14,528 से शुरू हो जाती है। ये कैसे संभव है।
दस्तावेजों से पता चलता है कि पंजीकरण पत्रों के क्रम में छेड़छाड़ की गई है। कुछ पर्चों में लिखी गयी तारीख से पता चलता है कि वे रविवार को पंजीकृत हुई है।
आरटीआई कार्यकर्ता अमर सिंह धुंता बताते हैं कि जब उन्होंने एसपीडी के बकरालवाला स्थित सेंटर में स्वास्थ्य परीक्षण हेतु १६ जून २०१६ को अपना पंजीकरण करवाया तो सीरियल नंबर ७०३० था, लेकिन जब १० दिन बाद २७ जून को वे इसी सेंटर में पुन: परीक्षण के लिए गए और पंजीकरण करवाया तो सीरियल नंबर ८१५२ पहुंच गया, जबकि १६ से २७ के बीच दो रविवार भी थे। अर्थात ९ दिनों में ११२२ मरीजों का पंजीकरण हुआ।
सीरियल नंबरों के इस घालमेल को समझने के लिए जब धुंता १७ जून २०१६ को भगत सिंह कालोनी स्थित सेंटर में स्वास्थ्य परीक्षण हेतु पंजीकरण करवाते हैं तो सीरियल नंबर २५४५ था। अर्थात एक सेंटर में ९ दिन में ११२२ मरीज पंजीकृत हुए। वहीं दूसरे सेंटर में एक वर्ष में कुल २२४५ मरीज ही पंजीकृत हुए।
वहीं समर्पण संस्था के सेंटर्स का हाल तो इतना बुरा है कि उनके सेंटर में डॉक्टर का काम भी फार्मासिस्ट ही कर रहे हैं। इन संस्थाओं द्वारा किये जा रहे गड़बड़झाले की बहुत लंबी फेहरिस्त है।
आरटीआई में प्राप्त सूचनायें बताती हैं किये संस्थाएं पिछले कई वर्षों से दवाइयों की खरीददारी बिना टेंडर के कर रही हंै।
समर्पण संस्था द्वारा खरीदी गई दवाइयों के बिलों में तो तिथियां भी नहीं लिखी गयी है, जबकि इन एनजीओ को शिशुओं और गर्भवती महिलाओं को लगने वाले टीके और वैक्सीन सीएमओ कार्यालय देहरादून द्वारा उपलब्ध करवाए जाते हैं तो दवाइयों की खरीद का कोई विवरण न होना संदेहास्पद है।
समर्पण संस्था के डॉक्टर्स को यदि छुट्टी के लिए आवेदन करना हो तो विशाल नाम का एक कर्मचारी इनके आवेदन पत्रों पर हस्ताक्षर कर छुट्टी अप्रूव करता है और हर पत्र में उसके सिग्नेचर अलग-अलग प्रकार के पाए गए हंै।
इन तमाम दस्तावेजों से पता चलता है कि किस तरह ये एनजीओ विगत कई वर्षों से गरीबों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाने के नाम पर शासन और जनता के साथ धोखा कर रही हैं और शासन के अधिकारियों ने भी इन संस्थाओं की कारगुजारियों की तरफ आंखे मूंद रखी हैं। यदि इन मामलों की जांच कराई जाए तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।