नीरज उत्तराखंडी
अनूठी लोक परम्परा जहाँ अश्लील गीत गाये जाने की है सामाजिक मान्यता
काष्ठ हाथी नृत्य के साथ ही हिरण नृत्य होते हैं आकर्षण का केन्द्र
शेर तथा बाघ के मुखौटे लगा कर मिटी तथा स्थानीय पारम्परिक नृत्य वेशभूषा पहनकर होता है दशराई नृत्य
लोक परंपरा के मुताबिक काष्ठ का हाथी बनाकर नृत्य करना लोक संस्कृति तथा आस्था का प्रतीक माना जाता है।
जनपद देहरादून के पर्वतीय जनजाति क्षेत्र जौनसार-बावर के हिमाचल की सीमा से सटे तहसील त्यूनी के गाँव मुन्धोल में दीपावली का पर्व परम्परागत हर्ष एवं उल्लास के साथ मनाया जाता है ।
अमावस्या से दो दिन पूर्व से शुरू होने वाली दीवाली के पांच दिन तक यह प्रकाश पर्व मनाया जाता है। अमावस्या के दिन पारम्परिक वाद्ययंत्रों की धुन पर मशाल जुलूस निकाला जाता है। जिसे स्थानीय बोली में होलाच कहते है।
अमावस्या की रात अश्लील गीत गाने तथा अश्लील हास परिहास “खेल”बनाने की अनूठी परम्परा है। जिसके पीछे यह लॉजिक माना जाता है कि प्राचीन समय में जब आज जैसा न तो संचार का कोई माध्यम हुआ करता था और न नहीं कोई प्रिंट इलेक्ट्रानिक, सोशल मीडिया हुआ करता था; जो समाज में फैली अच्छाई तथा बुराई को उजागर कर सके।ऐसे में गीत एक ऐसी विधा थी जो समाज में फैली बुराई तथा अच्छाई को उजागर करने का एक मात्र माध्यम हुआ करता था।
“छोडा”में विरह “हारूल” में वीरता “लामण” तथा “बाजू बन्द” में आपसी प्रेम संवाद के दर्शन होते हैं।
दीपावली की अमावस्या की रात महज चार घण्टे में अश्लील संबंधों को उजागर करने वाले गाने गाये जाने तथा हास परिहास यानि जिसे स्थानीय बोली में “खेल “कहा जाता है, के माध्यम से अश्लील संवाद करने की अनोखी सामाजिक मान्यता रही है, जिसका उद्देश्य मनोरंजन के साथ साथ सामाजिक बुराइयों जैसे अवैध संबंधों से ताल्लुक रखने वाले गाने गाये जाने उनसे दूर रहने का गाने के माध्यम से सार्वजनिक मंच पर गा कर आवाह्न तथा प्रतिरोध किया जाता है।
बिरूडी के दिन सम्पूर्ण ससुराल मे रह रही विवाहिता (ध्यानटूडियों) का प्रतिनिधित्व करने वाला “बिरूडी” का मार्मिक गाना गाया जाता है। जो दीपावली के त्योहार में विवाहित कन्या यानी ध्यानटूडी बिरूडी के उसके मायके न पहुंचने पर मायके में चिंतित मां की विरह पीड़ा, चिंता को व्यक्त करता है।
बिरूडी की मां गाँव में जब सभी नव विवाहिता कन्याओं को मेले में देखती है तो अपनी लाडली बेटी बिरूडी जिसका लालन पालन उसने बचपन में घी और शहद से किया था,मां की विरह पीड़ा को कुछ यूं व्यक्त किया गया है,-
“ऐटै बिरूडी ए धीए,धाची थी मऊए घीए।लोगरी ध्याणटी आए मेरी ने बिरूडी आई।”
अपनी बेटी के मायके न पहुंचने से मां व्याकुल हो जाती है।और बिरूडी को बुलाने के लिए गाँव के स्थानीय कोली मजनू को बुलाती है और उसे बिरूडी के घर बुलाने के लिए जाने का आग्रह करती है। और रास्ते के लिए एक विशेष स्थानीय व्यंजन “पोली” (यानि ‘आटे के दो गोले बनाकर उन दोनों गोलों के एक तरफ तेल या घी लगाया जाता और उनके तेल लगे भाग को आपस में मिलाकर रोटी के रूप में गोल आकार में बेला जाता है।उसके बाद तवे के ऊपर खूब पलट कर पकाया जाता है। उसके तथा तेल लगे दोनों भागों को अलग किया जाता जिससे उसके दो भाग बन जाते हैं। तेल लगे भाग वाले हिस्से आसानी से अलग हो जाते जिससे “पोली” कहते है।) बनाने का प्रस्ताव भी रखती है ।जिसे बिरूडी गीत में कुछ यूँ पिरोया गया है,-“तू मेरो मजनू कोली– दुनोली देऊली पोली।”
मजनू कोली प्रस्ताव तो स्वीकार कर लेता है लेकिन उसके सामने एक समस्या यह पैदा होती है। वह न तो रास्ता जानता है और न ही बिरूडी के घर की पहचान होती है।तब बिरूडी की मां मजनू कोली का मार्ग दर्शन करती और कहती है कि मेरी बेटी बिरूडी के घर की यह पहचान है कि उसकी खोली यानि विशाल द्वार पूर्व की ओर है। जो इस प्रकार है से गाया जाता है –“सेजो बिरूडी रो घर जैदीए पूरबे खोली।”
उसके बाद मजनू बिरूडी की मां के कहे अनुसार बिरूडी के घर पहुंचता है और उसके मायके के समाचार कह सुनाता है। बिरूडी को मायके में रह रही मां, पिता, संगी सहेलियों की याद सताने लगती है और बैचैन हो कर मजनू से आने का कारण तथा ससुराल के हाल समाचार पूछती है। मजनू ससुराल के राजी खुशी के समाचार कह सुनाता है, साथ ही उसकी ससुराल में बेसब्री से इंतजार की बात कहता है।
बिरूडी अपने मायके के लिए तैयार होती है लेकिन ऊहापोह यह कि मां -बाप, छोटे -भाई, भतीजे के लिए क्या भेंट ली जाय ! उपहार की सारी प्रक्रिया पूरी करने के बाद बिरूडी मजनू कोली के साथ अपने मायके चल पडती है। लेकिन दुर्भाग्य वश उसकी मौत हो जाती है। इस प्रकार बड़ा मार्मिक गीत है बिरूडी ।
बिरूडी के दिन “बाला सुनाइया” गीत भी गाया जाता है ।मंदिर से प्रसाद के रूप में अखरोट वितरित किये जाते हैं ।बिरूडी के अगले दिन “जदोई मेला” में रात को हिरण तथा प्रातः काष्ठ के हाथी का आकर्षक नृत्य होता है।