पार्टी के ऊपरी संगठन में मूल उत्तराखंडियों के बजाए एक खास वर्ग का है वर्चस्व। यहां पदाधिकारी बनने का चुनाव पार्टी के प्रति निष्ठावान व बौद्धिकता के बजाए पार्टी के उच्च पदों पर स्थाई रुप से विराजमानों की परिक्रमा करने वालों के आधार पर हो रहा है।
योगेश डिमरी/ऋषिकेश
उत्तराखंड राज्य का गठन पहाड़ की उपेक्षा के कारण हुआ था, परंतु भाजपा के राज्य संगठन के ऊपरी तह में पहाड़ी मूल के नेताओं को ही कोई तवज्जो नहीं मिल रही है। जिससे भविष्य में भाजपा से पहाड़ के विकास की कल्पना करना भी बेमानीभर होगा। आज भाजपा में राष्ट्रीय महामंत्री संगठन रामलाल अग्रवाल, प्रदेश महामंत्री संगठन संजय गुप्ता, राष्ट्रीय पदाधिकारी प्रदेश प्रभारी श्याम जाजू और सह महामंत्री संगठन शिवप्रकाश हैं। इनके शासनकाल में पार्टी वित्तीय अनियमितताओं से तो घिरी ही है, सड़कों पर भी पार्टी कांग्रेस के दस विधायक बागी होने के बावजूद जनता के बीच कांग्रेस के खिलाफ कोई माहौल नहीं बना पा रही है। वहीं इनके मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राज्य में होने वाले विधानसभा उपचुनाव में सांसदों की खाली पड़ी एक भी विधानसभा सीट का चुनाव नहीं जीत पाई। साथ ही पंचायत चुनावों में भी भाजपा की स्थिति चिंताजनक ही रही।
खुद मजबूत, संगठन कमजोर
जब राज्य में भाजपा संगठन अपने पुराने कद्दावर कार्यकर्ताओं के बजाय इनको तवज्जो देगा तो राज्य की राजनीति में केंद्रीय संगठन को मजबूरन आगे आना ही पड़ेगा। यही वजह है कि आगामी विधानसभा चुनाव में हर हालात कांग्रेस के खिलाफ होने के बावजूद भी भाजपा चुनाव में अपेक्षाकृत मजबूत नहीं दिखाई दे रही है।
वहीं राज्य में महामंत्री संगठन संजय गुप्ता की नियुक्ति भी समझ से परे है। इन्हें सामान्य कार्यकर्ता से सीधे इस पद पर नवाज दिया गया, जबकि इस पद पर संघ के काफी अनुभवी व्यक्ति को बैठाया जाता है। इनका काम राज्य और केंद्रीय संगठन के बीच समन्वय स्थापित करना है।
वहीं ये पार्टी पदाधिकारियों की नियुक्ति तक पार्टी परंपरानुसार न कर अपनी मनमर्जी से कर रहे हैं। ये पार्टी को गोपनीय और अंदरूनी तरीके से मजबूत करने के बजाय सामने आकर अपनी नीतियों का खुलकर प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। इनकी सोशल मीडिया पर सक्रियता होने से पार्टी का राज अब खुलकर पोस्टर आदि के माध्यम से सामने आ रहा है। इन्होंने संगठन में अपनी पकड़ को बरकरार रखने के लिए अपने चहेतों की पुन: ताजपोशी कर दी।
छिपती नहीं कमजोरी
संगठन की कमजोरी को छिपाने के लिए इन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक की बात को कोई महत्व नहीं दिया। मई 2015 में आयोजित नागपुर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री ने स्पष्ट किया था कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह सभी प्रदेशों के जिलाध्यक्षों से मिलकर पार्टी की समस्याओं के बारे में जानेंगे और पार्टी हित में उनसे उनकी राय लेंगे, परंतु 3 जून 2015 में राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के राज्य दौरे में इन्होंने कार्यक्रम में भारी फेरबदल कर दिया। इन्होंने जिलाध्यक्षों से मिलने के बजाय स्तरीय कार्यकर्ताओं की आनन-फानन में बैठक करवाई, जिससे शाह राज्य संगठन की कमजोरियों को समझना तो दूर, सुन तक नहीं पाए। यही नहीं इनकी भेदभावपूर्ण कार्यप्रणाली व असामान्य व्यवहार की शिकायत पूर्व प्रदेश पदाधिकारियों व प्रतिनिधियों के द्वारा राष्ट्रीय नेतृत्व के समक्ष रखी गई है।
इस वर्ग के नेताओं की कुछ हरकतों के कारण पहाड़ी मूल नेताओं के प्रति इनकी सोच संकीर्ण दिखती है। 2012 के विधानसभा चुनाव में हरिद्वार के प्रतिष्ठित नेता ने पार्टी का ‘खंडूड़ी है जरूरीÓ का स्लोगन हटाकर अपने क्षेत्र में ‘भाजपा है जरूरीÓ कर दिया। इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा। जहां 2007 में ये नेता ३० हजार से ज्यादा मतों से जीते थे, वहीं 2012 में कुछ हजार मतों के अंतर से हुई जीत में ही संतोष करना पड़ा। इनकी इस हरकत के कारण मैदानों में रहने वाले पहाड़ी मतदाताओं की भाजपा से नाराजगी पैदा हो गई है।
पहाड़ के नेताओं और कार्यकर्ताओं की आवाज को हाशिए पर डालना भाजपा के उत्तराखंड में सरकार बनाने के ख्वाब को तोड् सकता है।