दून विश्वविद्यालय में नियुक्ति में मानकों से छेड़छाड़
उत्तराखंड क्रांतिदल के प्रवक्ता द्वारा आर टी आई से प्राप्त सूचना से दून विश्वविद्यालय में मास कम्यूनिकेशन में सह प्राध्यापक पद पर कार्यरत डॉक्टर राजेश कुमार की नियुक्ति चर्चा का विषय बन गयी है।
शांति प्रसाद भट्ट ने आरोप लगाया कि जो व्यक्ति 2010 में असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए न्यूनतम अर्हता नहीं रखते थे ऐसे व्यक्ति को कूट रचना व जालसाजी द्वारा एसोसिएट प्रोफेसर नियुक्त कर दिया गया। श्री शांति प्रसाद भट्ट का आरोप है कि नियुक्ति में भ्रष्टाचार हुआ है और प्रशासन की मिलीभगत से हुआ है।
दस्तावेजों के अध्ययन से बहुत कुछ घालमेल नजर आता है। चर्चित नियुक्ति 2010 की है।कूट रचना व जालसाजी की शुरुआत उस समय हुई जब तीन सदस्यीय समिति द्वारा उन्हें शॉर्टलिस्ट नहीं किया गया और स्पष्ट शब्दों में लिख दिया गया कि ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव पद से एसोसिएट प्रोफेसर हेतु अनुशंसा नहीं की जा सकती। शुरुआती कागजातों में दो स्क्रीनिंग समिति का जिक्र जरूरी हो जाता है जो शक का बीज बोने के लिए काफी है।
पहली स्क्रीनिंग समिति तीन सदस्यीय थी, जिसने डॉ राजेश को साक्षात्कार के लिए अयोग्य करार दिया था लेकिन इस समिति की अनुशंसा को मानने , न मानने के बारे में कुछ न बताते हुए एक नयी 2 सदस्यीय समिति बनाई जाती है और वह केवल डॉ राजेश के बारे में अपनी राय बदलती है और उन्हें साक्षात्कार के लिए सुयोग्य बता देती है। नयी समिति की अनुशंसा , यहाँ कुछ अनसुलझे प्रश्न जरूर छोड़ जाती है। 2 सदस्यीय समिति अपनी अनुशंषा में मानकों को तय करती है और उन कथित मानकों का अनुसरण करते हुए एक आंतरिक प्राध्यापक द्वारा स्क्रीनिंग करा ली जाती है। ये कागजों से स्पष्ट हो रहा है कि पहली लिस्ट में तीन लोगों के हस्ताक्षर हैं और बाद में केवल एक व्यक्ति के हस्ताक्षर हैं. पहली समिति के कुछ अवलोकित विन्दु भी चर्चा का विषय हैं जैसे ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव से सह प्राध्यापक “not recommended”.
First screening committee
Second screening committee
श्री शांति प्रसाद भट्ट का आरोप है कि उन्होंने उन्होंने समय समय पर कई शिकायतें राजभवन, शासन, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में भेजीं हैं। सभी शिकायतें विश्वविद्यालय में निस्तारण हेतु पहुँची हैं लेकिन विश्वविद्यालय ने लीपपोती कर के जाँच बंद कर दी।
डॉक्टर राजेश की नियुक्ति 2010 में सह प्राध्यापक पद पर हुई थी जिसकी अर्हता विज्ञापन में यू. जी. सी. के मानकों के अनुसार विज्ञापित की गयी थी, जो कि पी.एच. डी. मास कम्यूनिकेशन, ऐम ए मास कम्यूनिकेशन, आठ साल का सहायक प्राध्यापक के समकछ अनुभव होना चाहिए। समकक्षता का आधार यूजीसी रेगूलेशन 1998 में स्थापित है जिसे यू जीसी रेगूलेशन 2010 में भी उल्लिखित किया गया है।
सभी शिकायतें जब विश्वविद्यालय भेजी गयीं तो विश्वविद्यालय ने उपकुलसचिव को जाँच का ज़िम्मा दिया। उपकुलसचिव ने स्वयं ही जाँच अधिकारी बन कर अपने से बहुत ही वरिष्ठ व ऐकडेमिक पद की अर्हता का मूल्याँकन कर डाला और उसको विज्ञापित अर्हता के अनुरूप घोषित कर दिया। क्या एक वरिष्ठ क्लर्क, प्राध्यापकों की अर्हता की जाँच कर सकता है या सक्षम है. ? यदि ऐसा है तो नियुक्ति के वक़्त2-3 सदस्यीय प्राध्यापकों की स्क्रीनिंग कमिटी क्यों बनायी जाती है ? इस से पहले भी कुछ प्राध्यापकों की जाँच विश्वविद्यालय द्वारा करायी गयी, जिसको कार्यकारी परिषद द्वारा गठित समिति प्राध्यापकों द्वारा की गयी। लेकिन इस मामले में उपकुलसचिव की कुछ ज़्यादा ही संलिप्तता नज़र आ रही है।
उपकुलसचिव ने अपनी जांच आख्या में राजेश कुमार की पहली तीन सदस्ययी द्वारा ख़ारिज किये जाने के बाद कुलपति द्वारा दूसरे दो सदस्ययी गठित करने एवं उनकी पात्रता को स्वीकार करने तथा यू जी सी की समकक्ष पात्रता को छुपाना ये दर्शाता है कि उपकुलसचिव शुरुआत से ही इस कूट रचना व जालसाजी में 2010 से शामिल रहें हैं। श्री भट्ट का आरोप है कि उन्होंने शिकायत पत्र में दोनो के गठजोड़ की बातें लिखी थीं जो इस कार्यवाही से भी स्पष्ट नज़र आयी।
उपकुलसचिव व प्रशासन इस मामले को कार्यकारी परिषद (ईसी) में ले ही नहीं जाना चाहते हैं। क्योंकि इससे मामला खुल जाएगा और जैसा कि बाक़ी लोगों का खुल गया और डॉक्टर राजेश को प्राध्यापक को बनाने का मंसूबा धरा रह जाएगा।
कुछ तथ्य संदेह को पुख्ता करने के लिए काफी हैं। जिसमें उपकुलसचिव द्वारा नियम क़ायदों में हेराफेरी सम्मिलित है,
डॉक्टर राजेश इस से पहले दूरदर्शन विभाग में ट्रैन्स्मिशन इग्ज़ेक्युटिव पद पर कार्यरत थे ये पद ग्रूप 2 में 4200, 4600 ग्रेड पे पर है और अर्हता किसी भी विषय में ग्रैजूएशन है। ट्रैन्स्मिशन इग्ज़ेक्युटिव का कार्य दूरदर्शन में रीले कार्यक्रम का रख रखाव आदि होता है।
यू जी सी के नियम से 8 या 10 वर्ष का अनुभव सहायक प्राध्यापक के समकक्ष की अर्हता, वेतन व कार्य होना चाहिए। क्योंकि डॉक्टर राजेश नेट धारक नहीं है इसलिए वह सहायक प्राध्यापक भी नहीं बन सकते हैं लेकिन जुगाड़ से सह प्राध्यापक बने हुए हैं। उपकुलसचिव जिन्हें यूजीसी के नियम अच्छे से याद होतें है वे डॉक्टर साहब के लिए सारे नियम भूल गए। यह सब जिस मनसा से किया गया वो भारी भ्रष्टाचार को इंगित कर रहा है।
उपकुलसचिव ने अपनी जांच आख्या में जिस तरह राजेश कुमार की मीडिया प्रोडक्शन वर्क की पैरोकारी की है वो गंभीर अकादमिक व प्रोफेशनल वर्क को क्लेरिकल ड्राफ्ट्समैन की श्रेणी में ला दिया। मीडिया प्रोडक्शन वर्क को न ही डॉ राजेश ने कोई रिकार्ड्स जमा किया गया न ही स्क्रीनिंग समिति , चयन समिति ने इसको परीक्षण किया गया और सबसे बड़ी बात ये है कि ट्रांसमिशन एग्जीक्यूटिव पोस्ट इस सब के लिए सक्षम भी नहीं है। दूरदर्शन के ऑफिस रिकार्ड्स से ये साफ़ पता चलता है कि उस सबके लिए प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव अर्थात प्रोडूसर पोस्ट होती है. उसकी अर्हता भी मास्टर डिग्री होती है। 2010 से लेकर अभी तक उनकी शोध उपाधि की सत्यता की जाँच तक नहीं हुई। उनकी शोध उपाधि प्रमाणपत्र अर्थशास्त्र में बिना टाइटल एवं एनरोलमेंट नम्बर के है, उनकी सारी मास कम्यूनिकेशन की पढ़ाई कॉरेस्पॉंडेन्स से की गयी है। क्या पीएचडी भी कॉरेस्पोंडेन्स से की गयी है? श्री शांति प्रसाद भट्ट का आरोप है कि डॉ राजेश ने बिना अवकाश के BA MA कम्युनिकेशन व Ph D डिग्री ली है . यूजीसी ने नेट इस तरह का फ़़र्ज़ीवाड़ा सहायक प्राध्यापक पर रोकने के लिए लागू किया था। जो लोग सहायक प्राध्यापक पद के लिए योग्य नहीं है वो सहप्राध्यापक पद पर नियुक्त होने लगे। उपकुलसचिव ने कुलसचिव के चार्ज पर आते ही अपनी कुशलता दिखायी। जब शासन ने डॉक्युमेंट्स का सत्यापन करने को कहा, तो उन्होनें मुजफ्फरपुर विश्वविद्यालय (बिहार ) को लिखे पत्र में शोध उपाधि के बारे में लिखना ही भूल गए और संलग्नक के रूप में शोध उपाधि को लगा दिखा दिया। यह सब जालसाजी व कूटरचना के तहत किया गया है।
उपकुलसचिव द्वारा जाँच में जिस तरह से पूर्व कुलपति की मंशा के बारे में लिखा है, उससे पता चलता है कि ये शुरू से ही इस मामले में शामिल रहें हैं, इसीलिए ये जाँच 2012 से रुकी हुई है।
उपकुलसचिव ने ट्रैन्स्मिशन इग्ज़ेक्युटिव को सहायक प्राध्यापक के समतुल्य मान लिया लेकिन अर्थशास्त्र की शोध उपाधि के मामले को हटाने के लिए, विज्ञापन के दूसरे अपवाद का सहारा ले लिया जिसको स्क्रीनिंग कमिटी द्वारा इसे शोर्टलिस्टिंग का मानदंड भी नहीं माना था लेकिन उपकुलसचिव ने इसे गलती से टाइपिंग छूट जाना बता दिया। क्या उपकुलसचिव को इतना भी रहा ध्यान नहीं रहा कि डॉक्टर राजेश ने एम ए कम्यूनिकेशन 2001 में किया और उसके बाद 10 साल का अनुभव चाहिये था, जो इनके पास नहीं है।
सबसे बड़ा फ़्रॉड, उपकुलसचिव द्वारा डॉक्टर राजेश के मीडिया प्रडक्शन के कार्य को शोध उपाधि के बराबर दिखा दिया, जिसको करने की सक्षमता स्क्रीनिंग कमिटी के पास भी नहीं होती है। जिस ऐकडेमिक कार्य को प्राध्यापकों की कमिटी करती है उसे उपकुलसचिव ने स्वयं ही कर दिया।
शांति प्रसाद भट्ट का आरोप है कि उपकुलसचिव की डॉ राजेश के साथ शुरुआत से ही साँठगाँठ रही इसीलिए उनपर कोई जाँच नहीं हो पायी। उपकुलसचिव ने अपनी जो जांच आख्या सरकार को भेजी उसमें बड़ी चतुरता से लगभग 60 बिंदुओं में से केवल 8 बिंदुओं का जवाब शासन को भेजा गया और उपकुलसचिव द्वारा उनके सभी अभिलेखों एवं अर्हता की जांच निपटा कर अत्यंत निंदनीय एवं शर्मनाक हरकत की गयी।