रतन सिंह असवाल
मधेश आंदोलन,आर्थिक नाकेबंदी
नेपाल की पर्वतीय जनता और उत्तराखंड का पहाड़ ।
राज्य के एक दल के युवा नेता से अवैध बस्तियों के उनके मोह पर बात कर रहा था । मैंने उनको तर्क दिया कि..
नदी नालों के किनारे /मुहानों राज्य सरकार की संपत्तियों पर अवैध कब्जे कर स्थाई रूप से बस गए लोग आने वाले समय मे इस राज्य के लिए बड़ी चुनौती साबित होंगे देख लेना ।
उनका तर्क था कि … ये ग़लत हैं और मैं भी मानता हूँ परन्तु ये जायेंगे कहां? अगर ये लोग ना हो तो नौकरी पेशा वाले घरों की साफ़ सफ़ाई,बर्तन चौका और बडी कोठियों,छोटे घर व कॉम्पलेक्स के लिये लेबर कहां से आयेगी ..? ये इनकी मजबूरी है ..हां कुछ इनमें भी ग़लत लोग होते हैं परन्तु उनकी संख्या कम है ..और कोई भी नहीं चाहता वो झोंपड़ियों में रहे हर किसी का सपना अपने मकान का होता है परन्तु मजबूरी बस मजबूरी ….,,
मैंने उनको तर्क दिया कि..
देखा गया है कि राजनीतिक लोग अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस तरह के लोगों को संरक्षण देते रहे हैं जिसमे कांग्रेस आगे रही है, लेकिन वर्तमान मे भाजपा उससे कई आगे निकल गई ।
जहां तक पर्वतीय प्रदेश उत्तरखंड की बात है तो इसे दूरगामी नजरिये से देखने की जरूरत है और उसके लिए राज्य के युवा नेताओं को नेपाल के मधेश आंदोलन से सबक लेना चाहिए । यदि समय रहते नही चेते तो मधेस आंदोलन ने नेपाल के पर्वतीय क्षेत्रों की आबादी को उन महीनों कितनी कष्टकारी जीवन से दो चार होना पड़ा इसका भी अध्ययन युवा नेताओं को समय रहते कर लेना चाहिए । मेरा निजी मत है कि जिस प्रकार से राज्य की दोनों रास्ट्रीय दलों के एजेंडो मे राज्य के बाहरी और अवैध कब्जेधारी प्रमुखता मे है एसी स्थिति मे अपने को उपेक्षित और असहाय देख राज्य के मूल निवासियों मे असन्तोष पनपना लाजमी है ।
अपने हकों और अधिकार के लिए लड़ रहे मूल निवासी के साथ ये दल कितना खड़ा हो पाएंगे यह तो उनके एजेंडे, उनके नेताओ को सोच और देशकाल परस्थिति पर हो छोड़ देते है लेकिन यदि नेपाल के मधेश आंदोलन की तर्ज पर कभी अपने राज्य मे भी राज्य के तराई वाले क्षेत्रों मे बढ़ रही मधेश पृष्ठभूमि के लोगों की बढ़ती आबादी और उनको मिलता राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण के चलते यदि वे उतने ही ताकतवर हो जाये और नेपाल के पर्वतीय भागो में की गई एक सुनियोजित आर्थिक नाकेबंदी उनके द्वारा कभी राज्य के पर्वतीय जनपदों की कर दी जाती है उस स्थिति और प्रस्थितियो के बारे मे एक विस्तृत अध्यन्न भी युवा नेताओं को करना ही होगा।
नेपाल के पर्वतीय जनपदों के आम जन मानस को कितनी दुश्वारियों से जूझना और गुजरना पड़ा यह किसी से छुपा नही है । फर्ज करें यदि कभी कालांतर मे उसी आंदोलन की पुनरावृत्ति अपने राज्य के तराई वाले भागों पर अवैध कब्जेधारियों की जमात कर देती है तब उससे निबटने के लिए क्या राज्य का मूल निवासी सचेत है ? सनद रहे राज्य के तीन मैदानी जनपदों पर गैर उत्तराखंडी लोगों की बढ़ती आमद इस पर्वतीय राज्य की सेहत के लिए कतई उचित नही है । एक ना एक दिन इसका पछतावा हर मूल व्यक्ति को अवश्य होगा लेकिन तब बहुत देर हो चुकी होगी।
नेपाल के मधेश आंदोलन जैसे हालात किसी दिन अपने राज्य की पर्वतीय जनता को भी ना झेलने पड़े ऐसी आशंका से इनकार भी नही किया जा सकता है । उम्मीद है कि राज्य की राजनीतिक सोच समय रहते इसका हल खोज ले ताकि आने वाली पीढ़ी उनको माफ कर सके ।