उत्तराखंड आंदोलन के बाद पहाड़ में सबसे बड़ा अखबार बनकर उभरा अमर उजाला आज विश्वसनीयता के मामले में सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है।
उत्तराखंड आंदोलन के बाद तो लोग अखबार का मतलब ही अमर उजाला कहने लगे थे ,लोग यह नहीं कहते थे कि अखबार आया या नहीं गली मोहल्ले चौराहे पर यही चर्चा होती थी कि अमर उजाला आया या नहीं!
3 मार्च 2019 को उत्तराखंड सरकार की कैबिनेट बैठक के बाद अगले दिन अमर उजाला अखबार ने देहरादून के पहले पन्ने पर कैबिनेट की बैठक में लिए गए निर्णय को प्रकाशित किया। यही नहीं भीतर के पेज में कैबिनेट के निर्णय की अलग से व्याख्या कर आधा पेज का समाचार छापा गया। पाठकों को लगा कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि पाठक कैबिनेट के निर्णय को एक-एक कर समझ सके।
इस विस्तार खबर के बीच अमर उजाला ने अपने पाठकों के साथ ऐसा धोखा किया, जिसकी गूंज लंबे समय तक महसूस की जाएगी अपने आपको नंबर वन अखब़ार बताने वाले अखबार ने उत्तराखंड सरकार के 3 मार्च के कैबिनेट के सबसे बड़े निर्णय को प्रकाशित ही नहीं किया।
अब पाठक समझना चाहते हैं कि आखिरकार अमर उजाला के सामने ऐसी क्या मुसीबत आ गई कि उसने उत्तराखंड सरकार का ऐसा निर्णय नहीं छापा जो कि इससे पहले कभी इतिहास में हुआ ही नहीं। उत्तराखंड की सरकार ने बैठक में निर्णय लिया कि उत्तराखंड में निर्माणाधीन ऑल वेदर रोड की प्रतिपूर्ति के रूप में केंद्र सरकार उत्तराखंड सरकार को जो 847 करोड रुपए देने हैं वह माफ कर दिए गए।
यह खबर उत्तराखंड के लिहाज से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि उत्तराखंड सरकार के मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री हर हफ्ते केंद्र सरकार के पास जाकर एक एक दो दो करोड रुपए की योजनाओं के लिए फरियाद लगाते रहते हैं।
जिस प्रदेश के पास एक-दो करोड़ रुपए की योजनाओं के लिए धनराशि नहीं है और व केंद्र के भरोसे हैं, ऐसी सरकार 847 करोड़ रुपए माफ कर दे और अमर उजाला जैसा अखबार अपने पाठकों से इस खबर को दूर कर दे तो समझा जा सकता है कि खेल कहां चल रहा होगा।
जो पाठक सुबह ₹5 में इस अखबार को खरीदता है उसके लिए बड़ा विषय है कि जिस अखबार को वह खबर के नजरिया से खरीद रहा है, वही अखबार उस पाठक से महत्वपूर्ण खबर छुपा रहा है।
अब इस खबर को छुपाने के पीछे अमर उजाला के क्या व्यक्तिगत स्वार्थ है यह वही बता सकता है किंतु पिछले कुछ समय से जिस तेजी से अमर उजाला की साख गिरी हुई है वास्तव में पत्रकारिता के लिए भी गंभीर सवाल खड़े करने वाला है।