महकमा-ए-सेहत को नीलाम करने की साज़िश करते अफसर
अजय रावत
पौड़ी। सरकारें एक ही राग अलापती रही हैं कि डॉक्टर पहाड़ चढ़ने को तैयार नहीं। सतह पर यह सत्य भी प्रतीत होता है, किन्तु नैपथ्य की तस्वीर कुछ और ही कहानी बयां करती है, जो बेहद चिंतनीय है। जिन अस्पतालों पर “पीपीपी” मोड के खिलाड़ियों की नज़र है उन्हें जबरन रुग्ण बनाकर नीलाम करने का खेल चल रहा है।
हाल ही में एक प्रकरण सामने आया, पौड़ी के जिला चिकित्सालय में लंबे समय से महत्वपूर्ण फिजिशियन का पद रिक्त चल रहा है। इस बीच हल्द्वानी के बेस चिकित्सालय में तैनात फिजिशियन डॉ अमित रौतेला ने बीती 25 जून को डीजी स्वास्थ्य को एक प्रार्थनापत्र देकर स्वेच्छा से पहाड़ के अस्पताल पौड़ी में तैनाती का आवेदन किया।
लेकिन डीजी कार्यालय द्वारा उनके इस आवेदन को दर किनार कर ऋषिकेश से डॉ कोठियाल को महीने में 15 दिन की व्यवस्था पर पौड़ी भेजने का फरमान जारी कर दिया गया। अब सवाल उठता है कि डॉ कोठियाल 15 दिन में पौड़ी अथवा ऋषिकेश में किस तरह तसल्ली से मरीजों को देख पाएंगे। ज़ाहिर है 10वें दिन से तो वह मरीजों को भर्ती करना भी छोड़ देंगे, मात्र ओपीडी तक ही सीमित रहेंगे।
लब्बोलुआब ये कि इस फैसले से पौड़ी को तो कुछ फायदा होने से रहा उल्टे ऋषिकेश अस्पताल का नुकसान होना तय है।
इधर नागरिक मंच पौड़ी जब डीजी हेल्थ से इस बाबत मिलने गया तो उन्होंने हल्द्वानी से डॉ रौतेला को पौड़ी भेजने की संभावना को खारिज़ करते हुए तर्क दिया कि हल्द्वानी को कैसे फिजिशियन विहीन कर दिया जाए। जबकि हल्द्वानी जैसे महानगरीय अस्पताल में पोस्टिंग हेतु दर्जनों स्थायी व सैकड़ों संविदा डॉक्टर्स तैयार बैठे हैं। डीजी के इस तर्क को गले उतारना सम्भव नहीं।
अफसरों की इन तमाम कारगुज़ारियों से साफ होता है कि वह ऋषिकेश और पौड़ी जैसे अस्पतालों को “पीपीपी” मोड लायक रुग्ण बनाने पर आमादा हैं। क्योंकि यह चर्चा है कि इन अस्पतालों पर किसी “पीपीपी” मोड के खिलाड़ी की लम्बे समय से गिद्ध दृष्टि है और यह तभी सम्भव होगा जब यह साबित किया जा सकेगा कि अब इन रुग्णालयों को संचालित करना सरकार के वश से बाहर हो चला है।
दरअसल ट्रांसफर पोस्टिंग की इन पेंचीदगियों के ज़रिए पीपीपी के खिलाड़ियों के लिए रास्ता साफ किया जा रहा है।
दरअसल, भाजपा या कांग्रेस की पूर्व सरकारों के दौर में भी ऐसे ऐसे फैसले लिए जाते रहे कि पहाड़ में स्वेच्छा से सेवाएं दे रहे डॉक्टरों को नौकरी छोड़ने को विवश होना पड़ा।
उदाहरण के लिए, टेहरी के दुर्गम पिलखी में तैनात डॉ मनोज शर्मा को जबरन सुगम में भेज दिया गया तो उन्होंने नौकरी ही छोड़ दी। श्रीनगर से डॉ एमएन गैरोला भी इसी वजह से नौकरी छोड़ने को विवश हुए, कर्णप्रयाग की जनता आंदोलन न करती तो डॉ राजीव शर्मा भी इसी राह होते। ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
इतना ही नहीं, इनमें से अनेक ऐसे चिकित्सक भी हैं जिन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी, लेकिन अब मजबूरी में सरकार उन्ही से उस क्षेत्र में सर्जरी व शिविर आदि में सेवाएं ले रही है, वह भी मोटा पैसा देकर। यही हाल हल्द्वानी जैसे स्थानों का है रिटायर्ड डॉक्टरों को मोटे मानदेय पर ढोया जा रहा है, लेकिन इच्छुक डॉक्टरों को संविदा में भी तैनाती नहीं दी जा रही।
‘डॉक्टर पहाड़ चढ़ने को राजी नहीं’ , जैसे रटे रटाये राग की आड़ में यह सारा खेल उन अस्पतालों को नीलाम करने का है, जिस पर ‘पीपीपी’ के शातिर खिलाड़ियों की नज़र है। और सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात कि ‘पीपीपी’ मोड के खिलाड़ी भी नजदीकी सुगम अस्पतालों पर ही नज़र गढ़ाए हैं,जहां से निरंतर “चिकित्सा कारोबार” चलता रहे। सेवाभाव की इतनी भावना है तो क्यों नहीं जोशीमठ, भटवाड़ी, मुनस्यारी, थराली, नैनीडांडा दूरस्थ अस्पतालों की जिम्मेदारी लेने को कदम बढ़ाते।
स्वास्थ्य महकमे में अन्दर ही अंदर चल रहे खेल एक खतरनाक साजिश की ओर इशारा करते हैं, इस साजिश में पीपीपी मोड के कारोबारी और अफसर बराबर की हिस्सेदारी में प्रतीत होते हैं।माननीय मुख्यमंत्री श्री Trivendra Singh Rawat जी को इस ओर गम्भीरता से ध्यान देना होगा, सेहत के महकमें का जिम्मा खुद उन्ही के पास है, तो अतिरिक्त ध्यान देने की आवश्यकता है। अन्यथा सब नीलाम हो जाएगा।