उत्तराखंड पर भाजपा द्वारा दलबदल का दाग लगाने की बात करने वाले मुख्यमंत्री हरीश रावत पर भी उंगलियां उठने लगी है। पहले घनसाली के विधायक भीमलाल आर्य द्वारा शक्ति परीक्षण के दौरान क्रॉस वोटिंग और अब दान सिंह भंडारी द्वारा इस्तीफा देने से हरीश रावत के वे आरोप कमजोर पडऩे लगे हैं, जो उन्होंने कांग्रेसी विधायकों के बागी होने पर भाजपा पर लगाए थे।
गजेंद्र रावत
१६ साल के उत्तराखंड में राजनैतिक हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। राज्य सरकार बजट का रोना रो रही है कि केंद्र ने राज्य के बजट को कैद कर लिया है, वहीं नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट कह रहे हैं कि हरीश रावत भाजपा के विधायकों को कैद कर अपने साथ शामिल करवा रहे हैं। विधायकों की खरीद-फरोख्त और उनकी लगातार लगती बोलियों का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है। १८ मार्च २०१६ को उत्तराखंड में सरकार गिराने से शुरू हुआ खेल बदस्तूर जारी है। उत्तराखंड के एक दर्जन विधायक अपनी विधायकी गंवा चुके हैं। इन एक दर्जन विधानसभाओं में से सोमेश्वर, घनसाली और भीमलाल को विधानसभा अध्यक्ष द्वारा रिक्त घोषित किया जा चुका है, जबकि नौ बागी विधायकों को २२ जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में अपनी पैरवी के लिए एक बार फिर खड़ा होना है। कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो चुके नौ बागी विधायकों ने भाजपा का दामन थाम लिया है, जबकि दान सिंह भंडारी ने कांग्रेस का भीमलाल आर्य द्वारा कांग्रेस की सदस्यता लेनी शेष है। कांग्रेस बागी विधायकों को गद्दार बता चुकी है और वे भाजपा के सदस्य बन चुके हैं, लेकिन कांग्रेस आज तक उन्हें अपनी पार्टी से निष्कासित करने या बर्खास्त करने की बजाय वापसी की गुंजाइश का बैक डोर खुला रखा है।
१० जून २०१६ की रात को ११ बजे भीमताल से भाजपा के टिकट पर चुनकर आए विधायक दान सिंह भंडारी ने विधायकी से इस्तीफा देकर सबको चौंका दिया। राज्यसभा चुनाव से कुछ घंटे पहले भाजपा विधायक द्वारा इस्तीफा देने और उसे तत्काल स्वीकार करने की मांग आश्चर्यजनक रही। विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने भी बिना समय गंवाए राज्यसभा चुनाव के लिए मतदान से ठीक पहले दान सिंह भंडारी का इस्तीफा मंजूर कर लिया। दान सिंह भंडारी भाजपा के २०१२ में चुने गए ऐसे तीसरे विधायक रहे, जिन्होंने अपनी ही पार्टी से अलग होकर कांग्रेस खेमे में जाना उचित समझा। दान सिंह भंडारी २०१२ में पहली बार विधायक चुनकर आए और यह विधायकी उन्हें कार्यकाल पूरा होने से पहले रास नहीं आई।
भंडारी से पहले घनसाली से चुनकर आए विधायक भीमलाल आर्य और सितारगंज से भाजपा के टिकट पर विधायक बने किरन मंडल भी कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं।
उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार आने के बाद पहली विधायकी भाजपा के किरन मंडल की गई, जब उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए अपनी कुर्सी दांव पर लगाई। किरन मंडल भाजपा के वे विधायक थे, जो १० हजार से भी अधिक मतों से जीतकर पहली बार विधानसभा पहुंचे थे। पहले ही कार्यकाल को मात्र ६ महीने में गंवाने का किरन मंडल का अनुभव अब और कटु हो चुका है। विजय बहुगुणा के लिए विधायकी से इस्तीफा देते वक्त तब किरन मंडल ने इसे अंतरात्मा की आवाज बताया था कि लाखों बंगालियों को भूमिधरी का अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने अपनी विधायकी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पर कुर्बान कर दी है। किरन मंडल द्वारा विधायकी से इस्तीफा देते वक्त विधानसभा अध्यक्ष ने उनसे तीन बार पूछा कि कहीं वह किसी दबाव में तो इस्तीफा नहीं दे रहे। इस्तीफा देने से पहले किरन मंडल आश्चर्यजनक रूप से चार दिन तक लापता रहे। तब किरन मंडल को हरिद्वार में एक व्यावसायिक प्लॉट देने और करोड़ों रुपए देकर विधायकी छुड़वाने की चर्चा चरम पर रही।
बदली परिस्थितियों में अब कांग्रेस ने किरन मंडल से किनारा कर उनकी वफादारी को अब भाजपा ज्वाइन कर चुके विजय बहुगुणा से जोड़कर उन्हें गच्चा दे दिया है। संयोगवश किरन मंडल से सीट खाली कर विधायक बने विजय बहुगुणा भी विधायकी का कार्यकाल पूरा नहीं कर सके और बीच में ही उनकी सदस्यता समाप्त हो गई।
विजय बहुगुणा के सितारगंज से विधायकी का उप चुनाव लड़ते वक्त जब भाजपा ने अपने पूर्व मंत्री प्रकाश पंत को बहुगुणा के खिलाफ प्रत्याशी बनाया तो अप्रत्याशित रूप से भाजपा के टिकट पर १० हजार से भी अधिक मतों से जीतने वाले भीमलाल आर्य ने तत्कालीन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को एक पत्र लिखा, जिसमें भीमलाल ने विजय बहुगुणा के विरुद्ध भाजपा की ओर से प्रत्याशी खड़ा न करने की राय दी। भीमलाल आर्य ने इस पत्र के एवज में विजय बहुगुणा और उनके सिपहसालारों से न सिर्फ अच्छी-खासी कीमत वसूल की, बल्कि सितारगंज चुनाव के दौरान भीमलाल आर्य कांग्रेस सरकार की कृपा से सरकारी हैलीकॉप्टर से लेकर तमाम आलीशान होटलों में मौज करते रहे। आखिरकार शक्ति परीक्षण के दौरान भीमलाल आर्य ने पार्टी व्हिप का उल्लंघन करते हुए भाजपा की बजाय कांग्रेस को वोट भी दिया।
विजय बहुगुणा के बाद मुख्यमंत्री बने हरीश रावत के लिए सीट छोडऩे वाले हरीश धामी ऐसे दूसरे विधायक रहे जो पहली बार जीते, किंतु उन्हें कार्यकाल पूरा करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। हालांकि धामी इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि २०१७ में हरीश रावत उन्हें ही धारचूला से चुनाव लड़ाएंगे। मुख्यमंत्री से विधायक बने हरीश रावत भी न तो मुख्यमंत्री के रूप में पांच साल का कार्यकाल पूरा कर पाएंगे और न ही एक विधायक के रूप में उन्हें पांच साल तक काम करने का अवसर मिलेगा।
भुवनचंद्र खंडूड़ी हालांकि दो बार उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने, किंतु एक विधायक के रूप में भी वे भी पांच साल तक विधायकी नहीं चला पाए। उनके लिए सीट खाली करने वाले टीपीएस रावत ६ महीने में ही विधायकी से रुखसत हो गए थे, जबकि खंडूड़ी साढे चार साल तक विधायक रहे। कांग्रेस से विधायक चुनकर आए टीपीएस रावत को जब तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक देहरादून लेकर आए और फिर दोनों जनरल एक साथ दिल्ली भाजपा हाईकमान के पास पहुंचे तो उसी दिन यह भी तय हो गया था कि टीपीएस ने अपनी विधायकी छोडऩे की कीमत लगाई है। यह कीमत कुछ दिन बाद तब स्पष्ट हुई, जब टीपीएस रावत के नजदीकियों को सरकार में पद दिए गए और टीपीएस रावत को खंडूड़ी द्वारा खाली की गई सीट से संसद भेजा गया।
टूटती आस्था, बिखरता विश्वास
उत्तराखंड में विधायकों द्वारा दल बदलने की परंपरा उत्तराखंड गठन के साथ ही शुरू हो गई थी। अंतरिम सरकार में विधायक रहे भाजपा के ज्ञानचन्द और तिलकराज बेहड़ ने बाद में भाजपा का दामन छोड़कर कांग्रेस की सदस्यता ली। अंतरिम सरकार में मंत्री रहे लाखीराम जोशी ने २००७ में विधानसभा टिकट न मिलने पर तब उमा भारती द्वारा बनाई गई भारतीय जन शक्ति पार्टी ज्वाइन की तो दूसरे मंत्री मातबर सिंह कंडारी २०१२ में चुनाव हारने के बाद कांग्रेस में चले गए। तीसरे मंत्री केदार सिंह फोनिया ने २०१२ में टिकट न मिलने पर उत्तराखंड रक्षा मोर्चा से चुनाव लड़ा तो २००२ में टिकट कटने पर भाजपा के राजेंद्र शाह भाजपा के खिलाफ ही चुनाव लड़े। केसी सिंह बाबा उस समय तिवारी कांग्रेस से विधायक थे जो बाद में कांग्रेस में शामिल हुए। तब सपा के विधायक रामसिंह सैनी और अमरीष कुमार ने कांग्रेस ज्वाइन की तो मुन्ना सिंह चौहान ने अब भाजपा का दामन थामा है। २००२ और २००७ में बसपा से विधायक बने काजी निजामुद्दीन ने २०१२ के चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस का दामन थाम लिया। उनके साथ बसपा से विधायक बने प्रेमानंद महाजन, नारायण पाल भी अब कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। २००२ और २००७ में भाजपा कोटे से विधायक बने कर्णप्रयाग के विधायक अनिल नौटियाल और पिंडर के विधायक गोविंद लाल शाह ने भी २०१२ के विधानसभा चुनाव में भाजपा छोड़कर निर्दलीय चुनाव लड़ा। २००२ में अल्मोड़ा से भाजपा के विधायक रहे कैलाश शर्मा ने भी २०१२ में टिकट कटने पर भाजपा के खिलाफ निर्दलीय चुनाव लड़ा। २००२ में भाजपा के टिकट पर पुरोला से विधायक रहे मालचन्द की भी आस्था तब डोल गई, जब २००७ में पार्टी ने उनके स्थान पर अमृत नागर को टिकट दे दिया। तब मालचन्द भी पार्टी के खिलाफ निर्दलीय मैदान में उतरे। २००७ में सहसपुर से विधायक रहे राजकुमार भी २०१२ में भाजपा के विरुद्ध निर्दलीय पुरोला से मैदान में उतरे। २००७ में पहली बार उक्रांद से विधायक बनकर आए दिवाकर भट्ट और ओम गोपाल ने भी २०१२ में उक्रांद छोड़कर भाजपा के टिकट पर विधायकी का चुनाव लड़ा। २००२ के पहले विधानसभा चुनाव में बलवीर सिंह नेगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के टिकट पर विधायक चुने गए, किंतु कुछ समय बाद ही उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली। उत्तराखंड बनने से पहले बलवीर सिंह नेगी जनता दल से विधायक रहे।
२००२ में निर्दलीय चुनकर आए शैलेंद्र मोहन सिंघल और कुंवर प्रणव चैंपियन ने २००७ और २०१२ का चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़ा, जबकि ये दोनों ही अब भाजपा में शामिल हो चुके हैं। अल्मोड़ा से सांसद अजय टम्टा ने २००२ में टिकट न मिलने पर भाजपा के खिलाफ बगावत की और निर्दलीय मैदान में उतरे।
२०१२ में थराली से कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने जीतराम २००७ में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं। २०१२ में कांग्रेस के टिकट पर रायपुर से विधायक बने उमेश शर्मा काऊ २००२ और २००७ में कांग्रेस से बागी होकर डोईवाला से चुनाव लड़े। लगातार दूसरी बार कांग्रेस से विधायक बने मयूख महर २००२ में कांग्रेस के खिलाफ बगावत कर विधानसभा का चुनाव लड़े। द्वाराहाट से कांग्रेस के विधायक मदन बिष्ट २००७ में टिकट न मिलने पर बागी होकर चुनाव लड़े। भाजपा से बगावत कर कांग्रेस में जाने वाले घनसाली के विधायक रहे भीमलाल आर्य २००७ में भाजपा से बगावत कर निर्दलीय मैदान में उतर गए थे। लोहाघाट से भाजपा के विधायक पूरन फत्र्याल २००२ में बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं। किच्छा से भाजपा के विधायक राजेश शुक्ला २००७ में समाजवादी पार्टी के टिकट पर रुद्रपुर से चुनाव लड़े। मंगलौर से बसपा के विधायक सरबत करीम अंसारी को २०१२ में तब जीत नसीब हुई, जब उन्होंने कांग्रेस छोड़कर बसपा के सिंबल पर चुनाव लड़ा। इससे पहले सरबत करीम अंसारी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ते थे। २००२ में कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे मंत्री प्रसाद नैथानी और तब विधायक रहे हरीशचन्द्र दुर्गापाल को जब कांग्रेस ने २०१२ में टिकट नहीं दिया तो दोनों कांग्रेस के खिलाफ मैदान में उतरे। मंत्री प्रसाद नैथानी इससे पहले समाजवादी पार्टी और जनता दल में भी रह चुके हैं। २००७ में भाजपा के टिकट पर प्रतापनगर से विधायक बने विजय सिंह पंवार २००२ में निर्दलीय मैदान में उतरे। इससे पहले विजय पंवार कांग्रेस व बसपा में भी रह चुके थे। २००७ में भाजपा सरकार में मंत्री रहे राजेंद्र सिंह भंडारी तब निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे, जब कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया। भाजपा सरकार में मंत्री रहते भंडारी ने भाजपा की सदस्यता भी ली, किंतु २०१२ के चुनाव से ठीक पहले भंडारी एक बार फिर कांग्रेस में शामिल हो गए। २००२ में कांग्रेस से विधायक बने टीपीएस रावत ने २००८ में कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामा। २०१२ में खुद की उत्तराखंड रक्षा मोर्चा नाम से पार्टी बनाई। कुछ दिन बाद वे आम आदमी पार्टी में शामिल हो गए और लोकसभा चुनाव २०१४ से ठीक पहले एक बार फिर कांग्रेस में शामिल हो गए।
चकराता से लगातार चुनते आ रहे कांग्रेस के प्रीतम सिंह ने भी १९९७-९८ में कांग्रेस छोड़कर भाजपा मेें शामिल हो गए। बाद में प्रीतम सिंह ने पुन: कांग्रेस ज्वाइन की। बागेश्वर से लगातार दूसरी बार विधायक बने चंदनराम दास विधायक बनने से पहले कांग्रेस में थे। १९९६-९७ में कोटद्वार से विधायक और वर्तमान सरकार में काबीना मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी भी भाजपा में रह चुके हैं।
२००२ में जनजातीय क्षेत्र धारचूला से निर्दलीय विधायक बने गगन सिंह रजवार पांच साल तक कांग्रेस के साथ रहे और २००७ में पुन: निर्दलीय विधायक बनने पर भाजपा के साथ रहे, किंतु दोनों ही दलों ने गगन सिंह को टिकट नहीं दिया।
उत्तराखंड की अंतरिम सरकार में अल्मोड़ा से विधायक रहे रघुनाथ सिंह चौहान को जब २००७ में टिकट नहीं दिया गया तो उन्होंने भी भाजपा के खिलाफ बगावत कर चुनाव लड़ा।
विधायकों द्वारा समय-समय पर अपनी सुविधा व समृद्धि को देखते हुए दल बदलने की घटनाएं लगातार जारी हैं।
२०१२ के विधानसभा चुनाव जीतकर आने वाले भाजपा के दो और विधायकों को कार्यकाल पूरा करने का अवसर नहीं मिला और उन्हें भी बीच में ही विधायकी छोडऩी पड़ी। डोईवाला से चुनाव लड़े रमेश पोखरियाल निशंक और सोमेश्वर से विधायक चुनकर आए अजय टम्टा को भाजपा ने लोकसभा २०१४ का चुनाव लड़वाया और ये दोनों सीटें खाली हो गई। इस कारण दोनों ही विधायक कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। डोईवाला और सोमेश्वर से चुनकर आए कांग्रेस के हीरा सिंह बिष्ट और रेखा आर्य को भी आधे कार्यकाल से ही संतुष्ट होना पड़ा है, जबकि रेखा आर्य की सदस्यता समाप्त हो चुकी है। यही हाल भाजपा के टिकट से जीतकर आए भीमलाल आर्य का भी है। रेखा आर्य की भांति भीमलाल आर्य की विधानसभा सदस्यता क्रॉस वोटिंग के कारण रद्द की जा चुकी है।
२०१२ में दूसरी बार बसपा से विधायक चुनकर आए सुरेंद्र राकेश के आकस्मिक निधन ने उन्हें भी विधायक के रूप में कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया। उनकी मौत के बाद चुनकर आई उनकी पत्नी ममता राकेश को भी पति के बचे आधे-अधूरे कार्यकाल से ही संतुष्टि करनी पड़ेगी। सुरेंद्र राकेश २००२ में तिवारी सरकार में राज्य मंत्री थे, जबकि ममता राकेश अब कांग्रेस के टिकट पर भगवानपुर से विधायक हैं।
कांग्रेस छोड़कर अब भाजपा में शामिल हो चुके नौ बागी विधायकों को भी कार्यकाल पूरा होने से पहले सदस्यता गंवानी पड़ी है। शैलारानी रावत, प्रदीप बत्रा और उमेश शर्मा काऊ पहली बार विधायक चुने गए, किंतु बागी होने के कारण पहली बार में ही इन्हें पांच साल पूरा होने से पहले बाहर का रास्ता देखना पड़ा। कांग्रेस से हैट्रिक मारने वाले विधायक हरक सिंह रावत, अमृता रावत, शैलेंद्र मोहन सिंघल, कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन और दूसरी बार विधायक बने सुबोध उनियाल भी कार्यकाल पूरा होने से पहले विधानसभा से बाहर हो गए।
ऐसा नहीं है कि बीच कार्यकाल में ही विधायकी गंवाने या कार्यकाल पूरा न करने की घटनाएं उत्तराखंड में पहली बार हुई हो। २००७ के विधानसभा चुनाव के दौरान तब बाजपुर से विधायक का चुनाव लड़ रहे कांग्रेस प्रत्याशी की मौत के कारण उस सीट पर चुनाव स्थगित कर दिया गया था। बाद में चुनकर आए भाजपा के अरविंद पांडे को साढे चार साल के कार्यकाल से ही संतुष्टि करनी पड़ी।
२००८ में भगत सिंह कोश्यारी राज्यसभा चले गए और वे भी विधायक के रूप में कपकोट विधानसभा से कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। उनके स्थान पर चुनकर आए भाजपा के शेर सिंह गडिय़ा को भी आधा कार्यकाल ही काम करने का अवसर मिला।
उत्तराखंड में यह क्रम २००२ के पहले विधानसभा चुनाव से ही जारी रहा। कोटद्वार से चुनकर आए कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह नेगी का चुनाव दो साल बाद रद्द कर दिया गया। हालांकि उपचुनाव जीतकर नेगी पुन: विधायक बने, किंतु इस बीच के ६ माह के कार्यकाल के अवरुद्ध होने के कारण वे भी साढे चार साल ही विधायक रहे।
२००४ में उक्रांद के विधायक विपिन त्रिपाठी की अचानक मौत के बाद चुनकर आए उनके पुत्र पुष्पेश त्रिपाठी को भी अपने पिता के भांति ही आधे-आधे कार्यकाल की विधायकी से संतुष्ट होना पड़ा।
तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी के लिए सीट छोडऩे वाले रामनगर के विधायक योगंबर सिंह रावत भी मात्र ६ महीने ही विधायक रहे और उनके स्थान पर विधायक बने नारायण दत्त तिवारी साढे चार वर्ष तक विधायक रहे।
२००९ के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले विकासनगर विधानसभा से इस्तीफा देकर चुनाव लडऩे वाले मुन्ना सिंह चौहान भी मात्र ढाई वर्ष ही विधायक रहे और उपचुनाव में उन्हें हराकर विधायक बने कुलदीप कुमार को भी आधे कार्यकाल की ही विधायकी नसीब हुई।
९ नवंबर २००० को उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आया और प्रदेश में भाजपा की अंतरिम सरकार बनी, जिसमें २२ विधायक व ८ विधान परिषद के सदस्य थे। २२ में से १७ विधायक भाजपा से थे। ३ समाजवादी पार्टी, एक बसपा व एक तिवारी कांग्रेस से थे। समाजवादी पार्टी से तब विधायक रहे रामसिंह सैनी, अमरीष कुमार और मुन्ना सिंह चौहान के साथ-साथ तिवारी कांग्रेस के केसी सिंह बाबा प्रमुख थे। अमरीष कुमार, रामसिंह सैनी और बसपा के काजी मोहिउद्दीन इसके बाद दोबारा विधायक नहीं बन पाए। अंतरिम सरकार का यह कार्यकाल इनके लिए आखिरी साबित हुआ।
मंत्री भी पूरा नहीं कर पाए पांच साल
लोकसभा २०१४ के बाद हरीश रावत ने अमृता रावत को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिनेश धनै को मंत्री बनाया और दोनों मंत्री रहने के बावजूद पांच साल तक मंत्री नहीं रह सके। यही हाल सुरेंद्र राकेश की मौत के कारण भी हुआ। राज्य में लगे राष्ट्रपति शासन के कारण वर्तमान मंत्रिमंडल के लोगों को भी एक ब्रेक के लिए जाना पड़ा और इस प्रकार पांच साल तक लगातार मंत्री रहने की उनकी हसरत अधूरी रह गई। दूसरी बार मंत्री बने सुरेंद्र सिंह नेगी दोनों बार मंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। तिवारी सरकार में जब पांच मंत्रियों की छंटनी हुई तो शूरवीर सजवाण, किशोर उपाध्याय, राम प्रसाद टम्टा और मंत्री प्रसाद नैथानी के साथ सुरेंद्र सिंह नेगी को भी बीच कार्यकाल से ही बाहर कर दिया गया। वर्ष २००२ में भी मंत्री रहे हरक सिंह रावत को तब जैनी प्रकरण के कारण मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा और वर्ष २०१२ में ६ महीने बाद मंत्री पद की शपथ लेने के बाद चार साल तक ही हरक सिंह मंत्री रहे।
२००७ में भाजपा सरकार के दौरान स्वास्थ्य मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को खंडूड़ी के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद मंत्री पद आधे में ही छोडऩा पड़ा। बाद में निशंक की खाली सीट धनौल्टी से विधायक चुनकर आए खजान दास को मिली, किंतु खजान दास भी आधे कार्यकाल तक ही मंत्री रहे।
उत्तराखंड बनने के दौरान मंत्री रहे लाखीराम जोशी, मोहन सिंह रावत गांववासी, रमेश पोखरियाल निशंक, केदार सिंह फोनिया, भगत सिंह कोश्यारी, अजय भट्ट, ज्ञानचन्द, नारायण राम दास, तीरथ सिंह रावत, नारायण सिंह राणा, मातबर सिंह कंडारी, निरुपमा गौड़, सुरेश आर्य और बंशीधर भगत भी मात्र दो वर्षों तक ही मंत्री रहे।
अंतरिम सरकार में मंत्री रहे लाखीराम जोशी, मोहन सिंह रावत गांववासी, ज्ञानचन्द, नारायण राम दास, नारायण सिंह राणा, निरुपमा गौड़ और सुरेश आर्य तो पलटकर विधायक तक नहीं बन पाए। इनमें से कुछ लोग तब विधान परिषद के सदस्य होने के कारण मंत्री बने थे।
उत्तराखंड के मंत्री भले ही अपने को विकास पुरुष कहलाने से नहीं थकते, किंतु उत्तराखंड के लोगों ने समय-समय पर मंत्रियों को बुरी तरह चुनाव हराकर उनके विकास पुरुष के दावे की पोल खोली है।
२००७ के विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद मंत्री रहे शूरवीर सिंह सजवाण, सुरेंद्र सिंह नेगी, हीरा सिंह बिष्ट, इंदिरा हृदयेश, साधूराम, नवप्रभात, रामप्रसाद टम्टा और मंत्री प्रसाद नैथानी चुनाव हार गए। ये सभी मंत्री तिवारी सरकार के मंत्रिमंडल में सुशोभित थे। २०१२ के चुनाव परिणाम में भी मंत्रियों में हार का मुंह देखना पड़ा। भाजपा सरकार में मंत्री रहे त्रिवेंद्र रावत, प्रकाश पंत, मातबर सिंह कंडारी और दिवाकर भट्ट चुनाव हार गए। अंतरिम सरकार के मंत्री रहे महानुभावों को २००२ के पहले विधानसभा चुनाव में ही जनता ने नकार दिया।
केदार सिंह फोनिया, लाखीराम जोशी, रमेश पोखरियाल निशंक, अजय भट्ट, बंशीधर भगत, मोहन सिंह रावत गांववासी, तीरथ सिंह रावत सभी मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा।
उत्तराखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे नित्यानंद स्वामी २००२ और २००७ में भी विधानसभा का चुनाव लड़े, किंतु दोनों बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा। स्वामी एक ऐसे मुख्यमंत्री हुए, जो कभी विधायक ही नहीं बने। २०१२ में मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट किए गए भुवनचंद्र खंडूड़ी को भी कोटद्वार में ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा।
सांसद भी नहीं कर पाए कार्यकाल पूरा
उत्तराखंड बनने के बाद २००४ में उत्तराखंड के लिहाज से पहला लोकसभा चुनाव हुआ। २००७ के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले टिहरी से भाजपा के सांसद महाराजा मानवेंद्र शाह के निधन के बाद खाली हुई सीट से कांग्रेस के विजय बहुगुणा चुनकर आए और उन्होंने मानवेंद्र शाह के बचे हुए दो साल का कार्यकाल पूरा किया।
इस प्रकार मानवेंद्र शाह और विजय बहुगुणा आधे-आधे कार्यकाल तक सांसद रहे। बहुगुणा २००९ में पुन: जीतकर आए, किंतु २०१२ में उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद सांसद पद से इस्तीफा दे दिया। बाद में उनके पुत्र साकेत को हराकर सांसद बनी महारानी मालाराज्य लक्ष्मी शाह दो वर्ष तक ही सांसद रही।
इससे पहले २००८ में भुवनचंद्र खंडूड़ी के सांसद पद से इस्तीफा देने के बाद उनकी जगह सांसद बने टीपीएस रावत भी एक वर्ष तक ही सांसद रहे। इस तरह यह कार्यकाल भी खंडूड़ी और टीपीएस रावत के बीच बंटकर रह गया। राज्यसभा के लिए चुनी गई मनोरमा डोबरियाल शर्मा के आकस्मिक निधन से उनके स्थान पर चुनकर आए राजबब्बर को भी उनका शेष कार्यकाल पूरा करना पड़ेगा।
उत्तराखंड की विधानसभा में २०१२ के चुनाव जीतकर आने वाले विधायकों के लिए यह कार्यकाल न तो सुकून देने वाला रहा और न ही उपलब्धियां हासिल करने वाला ही। इस चुनाव में जीतकर आने वाले विधायकों को अब विधायकी तक गंवानी पड़ी है।
उत्तराखंड में अब तक आठ मुख्यमंत्री बन चुके हैं, किंतु तिवारी को छोड़कर कोई भी पांच वर्ष तक अपनी कुर्सी नहीं बचा सका। भाजपा-कांग्रेस में मुख्यमंत्री बदलने की होड़ में अभी तक भाजपा ही 21 पर छूटी है। भाजपा ने मुख्यमंत्री के साथ-साथ प्रदेश अध्यक्ष और यहां तक कि नेता प्रतिपक्ष बदल डाले
चार बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी ने भी दल बदल किया और कांग्रेस को सबक सिखाने के लिए तिवारी कांग्रेस का गठन कर डाला। बाद में उसी कांग्रेस ने तिवारी को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बना दिया।
दल बदल करने वाले विजय बहुगुणा दूसरे मुख्यमंत्री हुए। विजय बहुगुणा के पिता स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा ने भी कांग्रेस को हैसियत दिखाने के लिए अलग पार्टी बनाई और कांग्रेस को हराकर वे सांसद भी बने।
उत्तर प्रदेश के जमाने से दमदार विधायक रहे हरक सिंह रावत और मुन्ना सिंह चौहान पार्टियां बदलने में सबसे आगे रहे। हरक सिंह रावत बसपा, भाजपा व कांग्रेस में रह चुके हैं, जबकि मुन्ना सिंह चौहान सपा, बसपा, भाजपा व स्वयं की उत्तराखंड जनवादी पार्टी भी बना चुके हैं।
२००७ में भाजपा सरकार के दौरान स्वास्थ्य मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को खंडूड़ी के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद मंत्री पद आधे में ही छोडऩा पड़ा था।