शिव प्रसाद सेमवाल
सफर में मुश्किलें आएं तो जुर्रत और बढ़ती है,
कोई जब रास्ता रोके तो हिम्मत और बढ़ती है।
मेरी कमजोरियों पर जब कोई तनकीद करता है,
वो दुश्मन क्यों न हो, उससे मुहब्बत और बढ़ती है।
अगर बिकने पे आ जाओ तो घट जाते हंै दाम अक्सर,
न बिकने का इरादा हो तो कीमत और बढ़ती है।
शायर नवाज़ देवबंदी की ये पंक्तियां आजकल उत्तराखंड की सियासी उठापटक के दौर में बड़ी प्रासंगिक सी जान पड़ती है। उत्तराखंड के डेढ़ दशक का राजनैतिक इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि जिस जनप्रतिनिधि ने भी अपनी निष्ठा बदली, जनता की निष्ठा भी उससे डोल गई।
चाहे नारायण दत्त तिवारी के उपचुनाव के लिए अपनी विधायकी छोडऩे वाले योगंबर सिंह की बात हो या उसके बाद टीपीएस रावत, किरन मंडल आदि के उदाहरण, कुर्सी को लात मारने वालों को फिर कभी कुर्सी नसीब नहीं हुई।
वर्तमान दौर में विभिन्न कारणों से सजी-सजाई कुर्सी को ठुकराने वाले जनप्रतिनिधियों के साथ इतिहास क्या सलूक करेगा, यह देखना बाकी है। उनकी निष्ठाएं किसकी तरफ थी, इसके लिए जनता की अदालत में होने वाले वक्त के फैसले का सबको इंतजार है। इस बार के विशेष लेख में कार्यकारी संपादक गजेंद्र रावत ने इतिहास की गलियों में गुम उन नेतृत्वकर्ताओं को फिर से याद करने की कोशिश की है, जो विभिन्न कारणों से कार्यकाल के बीच में विधायकी अथवा अपने पदों से हाथ धो बैठे।
राजनीतिक विश्लेषक अभी भी इस स्तब्धता से पूरी तरह नहीं उबर पाए हैं कि आखिर चार साल पूरे होने के बाद आखिरी वर्ष में कांग्रेस के नौ विधायकों को एक झटके में कुर्सी छोडऩी की नौबत क्यों आन पड़ी। इस बात का ठीक-ठीक विश्लेषण करना अभी भी बड़ा मुश्किल सा है कि एक साथ भाजपा के पाले में खड़े होने के पीछे इनकी कांग्रेस सरकार गिराकर भाजपा की सरकार बनाने की रणनीति थी या फिर ये केवल हरीश रावत के नेतृत्व से असहाय हो गए थे। इस बात पर भी अभी कुहासा छंटना बाकी है कि इनकी महत्वाकांक्षा इन्हें ले डूबी या फिर मुख्यमंत्री हरीश रावत ने हालात ही कुछ ऐसे सृजित कर दिए कि इनके लिए बाहर हो जाने के अलावा और कोई चारा न बचा था। अभी यह भी स्पष्ट होना बाकी है कि वाकई भाजपा ने इन्हें उकसाया था या फिर इन्होंने ही अंतिम समय में भाजपा को सत्ता परिवर्तन के सपने दिखाए।
बागियों का यह बहिर्गमन यदि सतपाल महाराज के साथ कदमताल करते हुए होता तो इस बात की प्रबल संभावनाएं थी कि तब पीडीएफ के मंत्री प्रसाद नैथानी से लेकर राजेंद्र भंडारी, अनुसूया प्रसाद मैखुरी, जीतराम सरीखे जनप्रतिनिधियों को भी पाला बदल के लिए प्रलोभित किया जा सकता था।
श्रेय के सवाल और महत्वाकांक्षा के बवाल में संभवत: राजनीति के धुरंदर सही मौके पर सटीक चौके का अंदाज लगा पाने में विफल हो गए। इसका परिणाम यह हुआ कि सतपाल महाराज, नौ बागी विधायक और रेखा आर्य अलग-अलग समय पर असहाय होकर हताहत तो हो गए, किंतु उनकी विधायकी का यह समय पूर्व अवसान शहादत का दर्जा न पा सका। यदि ये सभी पूर्व हो चुके विधायक अलग-अलग विकेट गंवाने के बजाय एक बार एकजुट होकर हाईकमान के सामने एक स्वर में ‘डुकरÓभी जाते तो इनकी डुकरताल से ६-७ राज्यों में सिमटी कांग्रेस का हाईकमान वैसे ही डिप्रेशन में आकर उत्तराखंड में कांग्रेस के नेतृत्व को एक बार फिर से बदल दिए जाने का फरमान सुना देता।
विरोधी गुट के इन विधायकों का पाला राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हरीश रावत से होना भी इनकी असफलता का बड़ा कारण बना। खांटी पॉलिटिशियन हरीश रावत ने विरोधियों के झुंड को कुछ इस तरह से घात लगाकर घेरा, जिस तरह से डिस्कवरी चैनल में अनुभवी शेर जंगली भैसों के झुंड को झिंझोड़कर अपना शिकार दबोच लेता है।
हालांकि एक साथ बागी हुए नौ विधायकों में से कम से कम 6 विधायक अपने दम पर चुनाव मैदान में उतरते और जीतते हैं। कांग्रेस छोड़कर भाजपा से या निर्दलीय जीतकर आ सकने वाले इन बागियों के जाने से कांग्रेस को कितना झटका लगेगा, इसका आंकलन संभवत: अभी हरीश रावत भी ठीक से नहीं कर पाए हैं। इसीलिए श्री रावत सिर्फ इमोशनल हथियार के भरोसे असमय चुनाव मैदान में जाने की जल्दी नहीं दिखा रहे हैं, किंतु इतना तय है कि असमय राजपाट छोड़कर अलगाव का राग गाने वाले किसी भी नेता के लिए जन स्वीकार्यता अब पहले जैसी भी नहीं है।