गजेंद्र रावत
आंदोलनों की धरती रही उत्तराखंड में अब युवाओं ने आंदोलनों से खुद को अलग कर दिया या कहें वे अब आंदोलन करने लायक ही नहीं रहे। कल तक अपने प्रदेश और देश के लिए खौलता खून अब ठंडा पड़ गया है या कहें कि उत्तराखंड बनने के बाद अब इनमें हीमोग्लोबिन की भारी कमी हो गई है।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दम पर मिला। तब विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल आयोग की रिपोर्ट को सामने लाने के विरोध में हुए उग्र आंदोलन में पूरे देश की भांति तब के अविभाजित उत्तर प्रदेश के उत्तराखंड में भी आंदोलन चरम पर रहा। और तब के छात्र नेताओं, छात्रसंघ के अध्यक्षों ने अपने आप को साबित भी किया। आखिरकार मंडल आयोग की रिपोर्ट को कूड़े में डालना पड़ा। मंडल आयोग का आंदोलन ही बाद में उत्तराखड राज्य प्राप्ति आंदोलन बना। जिस आंदोलन में कई युवाओं ने अपनी शहादत दी।
उस आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाने वाले तब के टिहरी के छात्रसंघ अध्यक्ष उमेश चरण गुसाईं को बाद में उत्तराखंड आंदोलन में विभिन्न गंभीर धाराओं में जेल जाना पड़ा और वे एकमात्र ऐसे आंदोलनकारी हुए, जिन पर बाकायदा सजा निर्धारित की गई। उस दौर में छात्र राजनीति जीवित थी। उत्तराखंड में आज भी तकरीबन दर्जनभर मंत्री और विधायक छात्रसंघ के उसी दौर के निकले हुए नेता हैं।
कुछ साल पहले उच्च शिक्षा में छात्रसंघ चुनाव को लेकर भारतवर्ष में लिंगदोह कमेटी की रिपोर्ट को जब से अमलीजामा पहनाया गया, तब से छात्र राजनीति एक प्रकार से नैपथ्य में चली गई है। देहरादून के डीएवी कॉलेज से लगातार दस सालों से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्रसंघ अध्यक्ष चुनते आ रहे हैं, किंतु अध्यक्ष बनने के बाद उन दसों अध्यक्षों का किसी को अब नाम तक मालूम नहीं। यही स्थिति पूरे उत्तराखंड में है।
आज २५ वर्ष से कम उम्र के छात्रसंघ पदाधिकारी पूरे प्रदेश में मौजूद हैं, किंतु तीन दिन पहले समाजवादी पार्टी के नेता नरेश अग्रवाल द्वारा राज्यसभा में भद्दी टिप्पणियों पर कोई भी विरोध करने सामने नहीं आया। कुछ दिन पहले उत्तराखंड के मसूरी, देहरादून, टिहरी में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगे, किंतु कहीं भी छात्रसंघ के ये नेता सामने नहीं आए। अफजल गुरू की फांसी पर तो बाकायदा देहरादून के घंटाघर में अफजल गुरू के पक्ष में नारेबाजी हुई, किंतु छात्र राजनीति मौन रही।
ये वही उत्तराखंड है, जहां के हर तीसरे परिवार से कोई न कोई सेना में है। आज सैनिकों को पत्थरबाज थप्पड़ मारते हैं, गाली-गलौच करते हैं, देश में सर कटे सैनिक घर पहुंचते हैं, किंतु सैकड़ों की संख्या में मौजूद ये छात्रनेता इन तमाम प्रकरणों पर मौन रहते हैं। आज सैकड़ों कश्मीरी छात्र-छात्राएं उत्तराखंड के शांत वातावरण में रहकर शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, किंतु उत्तराखंड के छात्र नेताओं में इतना दम नहीं कि वे कम से कम इन्हीं कश्मीरी छात्र-छात्राओं से इतना कहलवा दें कि सेना के खिलाफ कश्मीर में जो कुछ हो रहा है, वो गलत है।
बहुत दिन नहीं हुए, जब छात्रसंघ चुनाव जीतने के बाद देहरादून में लूटपाट कर रहे छात्र नेताओं को पुलिस ने लिटा-लिटाकर मारा। आज छात्रसंघों की पहचान चंदा इकट्ठा करने, छात्रसंघ का पदाधिकारी बनने के बाद लक्जरी कार खरीदने, किसी मॉल या संस्थान में पार्टनर बनने या ठेकेदारी का लाइसेंस पाने तक सीमित हो गया है। शीघ्र ही पूरे प्रदेश में छात्रसंघ चुनाव होने वाले हैं।
एक बार फिर बड़ी संख्या में युवा जीतकर आएंगे और फिर वही काम शुरू हो जाएगा, किंतु गंभीर सवाल यही है कि आखिरकार ये युवा न तो आज अपने प्रदेश की चिंता कर रहे हैं, न देश की, न अपने कॉलेज की और न ही अपने भविष्य की।
उत्तराखंड की राजनीति में मंत्री प्रसाद नैथानी, विजय सिंह पंवार, गोपाल सिंह रावत, विजयपाल सजवाण, विक्रम सिंह नेगी, दिनेश धनै, प्रीतम सिंह, शैलेंद्र रावत, विनोद कंडारी, हीरा सिंह बिष्ट, सूर्यकांत धस्माना, विनोद बड़थ्वाल धन सिंह रावत जैसे नाम छात्र राजनीति से उभरकर आए हैं, किंतु लिंगदोह कमेटी की सिफारिश के बाद जिस प्रकार के छात्रसंघ अध्यक्ष चुनकर आ रहे हैं, उससे नहीं लगता कि इनमें से कभी कोई विधानसभा की दहलीज को छूने के लायक बनेगा।
कुल मिलाकर लिंगदोह कमेटी की सिफारिश से भले ही लंबे समय तक कालेज में एडमिशन लेने की स्वतंत्रता खत्म हुई हो, किंतु छात्र नेताओं का उभार भी लिंगदोह कमेटी की सिफारिश का ही दुष्परिणाम है।