एक विधायक की प्रतिबद्धता सबसे पहले अपने क्षेत्र की जनता के प्रति होनी चाहिए, किंतु उत्तराखंड में कई विधायकों ने पार्टी और गुट को प्राथमिकता देकर जनता के सवालों को सदन में दफन कर दिया।
पर्वतजन ब्यूरो
विधानसभा सत्र इसलिए आयोजित किया जाता है कि इस दौरान राज्य की विभिन्न कार्य प्रणालियों को सुचारू रूप से चलाने के लिए नियम-कानून बनाए जा सकें। सत्र के दौरान विधायक अपनी विधानसभा क्षेत्रों से संबंधित विभिन्न समस्याओं को उठाते हैं। सदन में नौकरशाही और सरकार उस समस्या के समाधान को लेकर अपनी स्थिति स्पष्ट करती है तथा सुचारू समाधान के लिए वचनबद्धता जाहिर करती है।
आमतौर पर यह देखा जाता है कि सत्तापक्ष के विधायक अपनी पार्टी का लिहाज करते हैं और सरकार को किरकिरी से बचाने के लिए बहुत कम सवाल पूछते हैं। वहीं विपक्ष के विधायकों के पास विधानसभा सत्र अपनी क्षेत्र की समस्याओं को उठाने के लिए एक बड़ा हथियार रहता है।
इसके अलावा कुछ विधायक ऐसे होते हैं, जो सत्तापक्ष के हों या विपक्ष के, वे सदन में सवाल उठाने को लेकर बहुत कम रुचि लेते हैं। कई विधायक या तो फिसड्डी होते हैं या फिर कई सड़कों पर तो अपने क्षेत्र की समस्याओं को लेकर कितना ही गरज-बरस ले, किंतु सदन में खामोशी अख्तियार कर लेते हैं।
नेता विपक्ष खामोश
पाठकों को यह आश्चर्यजनक हो सकता है, किंतु विधानसभा से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार अजय भट्ट ने २०१३ से लेकर २०१६ तक विधानसभा में एक भी सवाल नहीं लगाया। वर्ष २०१२ में उन्होंने १५ सवाल लगाए थे, किंतु ये उस समय के हैं, जब उन्हें नेता प्रतिपक्ष नहीं बनाया गया था। कालाढुंगी से भाजपा के विधायक व पूर्व मंत्री बंशीधर भगत ने वर्ष २०१२ से लेकर २०१६ तक मात्र ९ सवाल लगाए। बसपा के विधायक हरिदास ने पांच साल में सिर्फ एक प्रश्न ही पूछा। भाजपा के गदरपुर से विधायक अरविंद पांडे ने पहले साल १६ सवाल पूछे, दूसरे साल मात्र ६ और तीसरे साल एक सवाल लगाकर वर्ष २०१५-१६ में चुप्पी साध गए।
उपसभापति भी खामोश
कांग्रेस के विधायकों की बात कहें तो कर्णप्रयाग के विधायक अनुसूया प्रसाद मैखुरी ने वर्ष २०१२ में 1३ सवाल पूछे थे, किंतु उसके बाद विधानसभा उपाध्यक्ष बनने के बाद फिर उन्होंने कभी कोई सवाल नहीं पूछा। कांग्रेस के जसपुर से विधायक रहे शैलेंद्र मोहन सिंघल ने वर्ष २०१२ व १३ में मात्र एक-एक सवाल पूछकर फिर हमेशा के लिए चुप्पी साध ली। नारायण राम आर्य भी वर्ष २०१२-१३ में कुल ३३ सवाल पूछकर चुप्पी साध गए तो हरीश धामी भी शुरुआती दो वर्षों में ३९ सवाल पूछकर खामोश हो गए। हेमेश खर्कवाल भी वर्ष २०१२ में १५ सवाल पूछकर खामोश हो गए थे तो दिनेश धनै २०१२-१३ में कुल १० सवाल पूछकर चुप हो गए। मनोज तिवारी पहले साल १५ सवाल पूछकर चुप हो गए तो सुबोध उनियाल ने मात्र २०१४ में ही सिर्फ ४ सवाल पूछे और सुंदरलाल मद्रवाल ने मात्र ३ सवाल २०१५ में विधानसभा में लगाए। राजपुर के विधायक राजकुमार ने सिर्फ वर्ष २०१३ में ही १२ सवाल पूछे और केदारनाथ की विधायक शैलारानी रावत ने भी वर्ष २०१३ में ही १० सवाल पूछकर आगे-पीछे खामोश ही रही। सरिता आर्य ने वर्ष २०१३-१४ में मात्र १८ सवाल पूछे। सरकार बनने के बाद उपचुनाव के द्वारा विधायक बनने वाले हीरा सिंह बिष्ट, ममता राकेश और रेखा आर्य भी क्रमश: ३२, १८ और 1 सवाल पर सिमट गए।
सवालों पर भारी गुटबाजी
इन सवालों के आंकड़ों को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के कार्यकाल में सवाल पूछने वाले हरीश रावत गुट के विधायक श्री रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद सदन में चुप्पी साध गए।
खामोश रहने में भलाई
विजयपाल सजवाण पहले बहुगुणा गुट में थे और फिर रावत गुट में चले गए। बहुगुणा गुट के उमेश शर्मा ने हरीश रावत से भी सर्वाधिक कार्य करवाए, इसलिए इनकी खामोशी तो समझ में आती है, किंतु पूरे पांच साल पहले बहुगुणा गुट और फिर रावत गुट के खिलाफ आवाज उठाने वाले कुंवर प्रणव की खामोशी के पीछे कोई कारण समझ नहीं आता। फुरकान अहमद, प्रदीप बत्रा और गणेश गोदियाल ने संभवत: कांग्रेस की सरकार का लिहाज करके कोई भी सवाल नहीं पूछा। रायपुर के विधायक उमेश शर्मा, पिरान कलियर के फुरकान अहमद, रुड़की के प्रदीप बत्रा, खानपुर के कुंवर प्रणव, श्रीनगर के विधायक गणेश गोदियाल और उत्तरकाशी के विधायक विजयपाल सजवाण सहित ६ विधायकों ने पूरे पांच साल सदन में एक भी सवाल नहीं पूछा।
नहीं किया लिहाज
हालांकि कपकोट के विधायक ललित फस्र्वाण भी कांग्रेस पार्टी से हैं और हरीश रावत के करीबी हैं, किंतु उन्होंने सर्वाधिक १९८ सवाल २०१५ में हरीश रावत के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान ही पूछे। फस्र्वाण सभी विधायकों में सर्वाधिक ६२७ सवाल पूछने वाले विधायक हैं। इसके बाद दूसरे नंबर पर सल्ट के विधायक सुरेंद्र सिंह जीना ने ५५० सवाल पूछे तो विकासनगर से कांग्रेस विधायक नवप्रभात ने पहले चार सालों में अपनी ही सरकार से ४९७ सवाल पूछे।
लैंसडौन के भाजपा विधायक दलीप सिंह ने ४४५ सवाल, धनौल्टी के भाजपा विधायक महावीर रांगड़ ने ३९० सवाल और मदन कौशिक ने ३६० सवाल पूछे।
इसके अलावा कांग्रेस की अमृता रावत शुरुआती दो साल चुप रहने के बाद हरीश रावत सरकार में ३५३ सवाल पूछकर सातवें नंबर पर रही।
झबरेड़ा के विधायक हरिदास, सोमेश्वर की विधायक रेखा आर्य मात्र एक-एक सवाल पूछकर सबसे निचले पायदान पर हैं तो डा. शैलेंद्र मोहन सिंघल मात्र २, सुंदरलाल मंद्रवाल सिर्फ ३ और सुबोध उनियाल सिर्फ ४ सवाल पूछने वाले विधायक हैं। नरेंद्रनगर के विधायक अपने क्षेत्र के लिए सर्वाधिक विकास कार्य कराने वाले विधायकों में से हैं।
सैद्धांतिक तौर पर सदन के किसी भी सदस्य के लिए सवाल पूछने पर प्रतिबंध नहीं है, किंतु एक बार विधायक बनने के बाद यदि कोई जनप्रतिनिधि खुद को जनता और सदन से इतना ऊपर समझ ले कि सदन में अपनी जनता के सवाल उठाने में उसे तौहीन नजर आने लगे तो यह लोकतांत्रिक समाज के लिए शुभ लक्षण नहीं है।
सवाल नहीं, बवाल चाहिए!
तीन माह पहले जुलाई में संपन्न हुए विधानसभा सत्र के उदाहरण से ही समझा जा सकता है कि हमारे माननीय सदन में जनता के सवाल उठाने के प्रति कितने गंभीर हैं।
जुलाई २०१६ में दो दिन चले विधानसभा के विशेष सत्र में देश की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा के सदस्य 4 घंटा 25 मिनट में लगभग 1 घंटा 22 मिनट ही सदन में रहे। इसमें भी अधिकांश समय हंगामे में काट दिया। जिम्मेदार विपक्ष की उम्मीद लगाई जनता को यह जानकर भारी निराशा हो सकती है कि उसके द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि एक दिन तो एक मिनट के लिए भी सदन में नहीं पहुंचे।
उत्तराखण्ड विधनसभा का दो दिन चला सत्र जहां विनियोग विधेयक पारित करने की चुनौती पार कर लेने की दृष्टि से महत्वपूर्ण कहा जा सकता है, वहीं जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की जनसमस्याओं के प्रति उदासीनता उजागर करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण कहा जाएगा। यह शायद पहला अवसर होगा, जब दो दिन तक 4 घंटा 25 मिनट चली सदन की कार्यवाही के दौरान प्रमुख विपक्षी दल मात्र लगभग 1 घंटा 22 मिनट ही सदन में दिखाई दिया। इस प्रकार लगभग 3 घंटा पूरा विपक्ष सदन से बाहर रहा।
सत्र के पहले दिन गुरुवार को सदन की कार्यवाही पूर्वाहन 11 बजे शुरू हुई। कार्यवाही शुरू होते ही भाजपा ने अधिष्ठाता को लेकर हंगामा शुरू कर दिया, जो 12:20 तक चलता रहा। इस दौरान सदन में कोई कामकाज नहीं हो सका। तत्पश्चात अपराहन 1:30 बजे सदन की कार्यवाही अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को लेकर शुरू हुई तो भाजपा के सदस्यों ने तब भी हंगामा शुरू कर दिया। लगातार हंगामे को देखते हुए जब सदन की कार्यवाही आगे बढऩे लगी तो भाजपा ने वाकआउट कर दिया। इस प्रकार अपराहन में लगभग 2 मिनट ही विपक्षी सदस्य सदन में रह पाए। तत्पश्चात सदन स्थगित होने तक वे अनुपस्थित ही रहे। शुक्रवार को पूर्वाहन 11 बजे सदन की कार्यवाही शुरू हुई तो भाजपा के सदस्य मुंह में पट्टी बांधकर सदन के बाहर धरने पर बैठ गए। राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए विपक्षी सदस्य जनता के प्रति शायद अपना दायित्व भी भूल गए थे। उन्हें सदन में रहकर जनता की समस्याओं को उठाने व उन पर चर्चा का मौका मिलता, लेकिन धरने में बैठने के कारण वह अवसर गंवा दिया गया।
विपक्ष के अधिकांश समय बाहर रहने का लाभ सरकार को मिला और जितने भी विधेयक सदन में रखे गए, वे बिना विस्तृत चर्चा एवं विरोध के पारित हो गए। यहां तक कि विनियोग विधेयक भी विपक्ष की गैरमौजूदगी में बिना किसी मत विभाजन की मांग व विरोध के पारित हुआ।
कांग्रेस के विधायकों की बात कहें तो कर्णप्रयाग के विधायक अनुसूया प्रसाद मैखुरी ने वर्ष 2012 में 13 सवाल पूछे थे, किंतु उसके बाद विधानसभा उपाध्यक्ष बनने के बाद फिर उन्होंने कभी कोई सवाल नहीं पूछा।
जुलाई 2016 में दो दिन चले विधानसभा के विशेष सत्र में देश की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा के सदस्य 4 घंटा 25 मिनट में लगभग 1 घंटा 22 मिनट ही सदन में रहे। इसमें भी अधिकांश समय हंगामे में काट दिया।