कृष्णा बिष्ट
आखिर ऐसा क्या हुआ कि जिस अधिकारी ने उत्तराखंड आने पर खुद ही सतर्कता विभाग मांगा था, उस को सरकार ने सतर्कता विभाग न देकर रिसर्च में बिठा दिया गया, किन्तु जनता को फिर भी सरकार या पुलिस से कहीं अधिक उसी अधिकारी पर भरोसा है ।
यही कारण है जो लोग अपराध की शिकायत सरकार, पुलिस या सम्बंधित विभाग के बजाय लोग सीधे संजीव चतुर्वेदी से कर रहे हैं।
ऐसा ही एक मामला कुछ दिन पूर्व का है जहां एक अंजाने शख्स ने गुमनाम पत्र के माध्यम से चमोली जिले के नंदादेवी बायोस्फेयर रिज़र्व में क्षेत्र के एक रसूखदार होटल व्यवसायी “मोहन सिंह रावत” पर पुलिस की मिली भगत से दुर्लभ प्रजाति के वन्य जीवों के अवैध शिकार में लिप्त होने के गंभीर आरोप लगाते हुए एक शिकायती पत्र भेजा था।
संजीव चाहते तो इस केस को अपने कार्यक्षेत्र से बाहर का बात आसानी से अपना पल्ला झाड़ सकते थे। किंतु संजीव चतुर्वेदी ने पत्र का तुरंत संज्ञान लिया और इस विषय की जांच करवा रहे हैं।
वर्तमान समय में चतुर्वेदी को कई बार विजिलेंस की जिम्मेदारी मांगने के बावजूद वन विभाग की अनुसंधान शाखा में डंप करके रखा हुआ है। यदि चतुर्वेदी को वन विभाग की विजिलेंस शाखा में ही तैनाती कर दी जाती तो इस बात की काफी संभावनाएं थी कि वन विभाग में घोटालेबाजों का जंगलराज लगभग खत्म हो जाता। गौरतलब है कि शासन में वन विभाग के दो दर्जन से भी अधिक घोटालेबाज अफसरों की फ़ाइलें कार्यवाही के बजाय धूल फांक रही हैं। साल भर से उन पर कोई टिप्पणी या अथवा कोई आदेश-निर्देश नहीं किए गए हैं।
हरीश रावत सरकार के समय में ही वन विभाग के कई आला अफसरों को गंभीर और संगीन घोटालों के बावजूद अधिकार क्षेत्र से बाहर जाते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री और शासन के आला अफसरों ने क्लीन चिट दे दी थी।
कुछ समय पहले चंपावत के तत्कालीन डीएफओ ए के गुप्ता के खिलाफ जांच करने की जिम्मेदारी चतुर्वेदी को दी गई तो उन्होंने रिकॉर्ड समय में जांच रिपोर्ट शासन को सौंप दी थी। किंतु 6 माह होने के बावजूद शासन में इस फाइल का फुटबॉल बना हुआ है। शासन और विभाग कार्यवाही की गेंद को एक-दूसरे के पाले में डालकर ‘जांच- जांच’ खेल रहे हैं। इतने उत्कृष्ट अफसर को मुख्यधारा में ना रखकर साइडलाइन रखने से जीरो टॉलरेंस की सरकार की नीति और नीयत पर भी सवाल खड़े होते हैं।
आई.एफ.एस 2002 बैच के ये वही अधिकारी हैं, जिन्होने हरियाणा मे अपने सात वर्षों के अल्प कार्यकाल के दौरान बगैर भेदभाव भ्रष्ट तंत्र व उसके राजनैतिक गठजोड़ पर ऐसा तीखा प्रहार किया था जिसकी धमक हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री हुड्डा के दरबार तक जा पहुंची। इस कारण चतुर्वेदी हुड्डा सरकार के सीधे निशाने पर आ गये। परिणाम स्वरुप 2005 से 2010 तक संजीव चतुर्वेदी को 12 स्थानांतरण से लेकर दो बार सेवा से बर्खास्तगी के लिये आरोप पत्र, एक बार सेवा से निलंबन, एक बार विभागीय जांच, जीरो ए.सी.आर के साथ-साथ आत्माहत्या के लिये उकसाने व चोरी तक के संगीन आरोपों से सामना करना पड़ा। यह भारतीय लोकतंत्र की ताकत ही थी जो राष्ट्रपति ने जाँच के बाद संजीव चतुर्वेदी के पक्ष मे आदेश पारित किये।
पहला आदेश जनवरी 2008 मे पारित किया था, जिस मे राज्य सरकार द्वारा दिये गये संजीव चतुर्वेदी के निलंबन आदेश को रद्द किया गया।
दूसरा आदेश जनवरी 2011 मे किया था जिस मे मुख्यमंत्री हुड्डा द्वारा संजीव चतुर्वेदी को नौकरी से बर्खास्तगी के विभागीय आदेश को रद्द किया। इस आदेश मे राष्ट्रपति ने स्पष्ट लिखा था कि संजीव चतुर्वेदी को अपना कर्तव्य निभाने व कानून का राज कायम करने के लिये गलत तरीके से आरोप पत्र जारी किया गया था और हरयाणा सरकार ने इस आरोप पत्र को तीन साल से अधिक समय तक जानबूझ कर लंबित रखा।
तीसरा आदेश अक्टूबर 2013 मे दिया था, जिस मे हरियाणा के मुख्यमंत्री द्वारा संजीव चतुर्वेदी के विरुद्ध झूठी जाँच के आदेश को राष्ट्रपति ने आधारहीन बताते हुए रद्द कर दिया। चौथा आदेश जनवरी 2014 मे पारित किया जिस के जरिये राष्ट्रपति ने मुख्यमंत्री हुड्डा द्वारा वित्तीय वर्ष 2010-11 व 2011-12 मे संजीव चतुर्वेदी की ए.सी.आर मे दिये गये शून्य अंक को ख़ारिज करते हुए दोनों वर्षो की ए.सी.आर को उत्कृष्ट करार दिया। देश के इतिहास मे पहली बार किसी एक अधिकारी के लिये राष्ट्रपति ने चार बार अपनी असाधारण शक्ति का इस्तेमाल किया है।
जब लाख कोशिश के बाद भी चतुर्वेदी पर हुड्डा सरकार का बस नही चला तो दो वर्ष 2010 से 2012 तक संजीव चतुर्वेदी को वर्तमान उत्तराखंड सरकार की ही तरह ‘बर्फ’ मे दबाये रखा।
आखिर संजीव चतुर्वेदी ने जब केंद्र मे जाने की इच्छा ज़ाहिर की तो राज्य सरकार ने चतुर्वेदी को रिलीव करने से भी मना कर दिया। किन्तु केंद्र सरकार ने हुड्डा सरकार की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए 28 जून 2012 को हरियाणा से रिलीव करवाते हुए सीधे AIIMS मे नियुक्ति दे दी।
ये भी संजीव चतुर्वेदी की शक्सियत व उन पर लोगों का भरोसा ही था जो AIIMS मे तैनाती से पूर्व ही संसदीय समीति ने 8 जून 2012 को सरकार से संजीव चतुर्वेदी को “मुख्य सतर्कता अधिकारी” बनाने व उनको बेरोक–टोक काम करने को ले कर लिखित में अंडरटेकिंग ली।
यही कारण था जब चतुर्वेदी ने AIIMS के एक उच्च राजनीति संरक्षण प्राप्त नकली दवा विक्रेता के खिलाफ कार्रवाई की तो संजीव चतुर्वेदी पर राजनीतिक दबाव के चलते कार्यवाही की तलवार लटकने लगी। तब संसदीय समिति चतुर्वेदी के बचाव मे खड़ी हो गई थी। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री ग़ुलामनबी आज़ाद को अपने कदम पीछे खींचने पड़े। उस दिन के बाद कभी भी मंत्री जी ने संजीव चतुर्वेदी के काम मे दखल अंदाजी नहीं की।
“सतर्कता अधिकारी” के तौर पर अपने दो वर्षो के कार्यकाल के दौरान संजीव चतुर्वेदी ने AIIMS के लगभग 200 भ्रष्टाचार के केस सुलझाये। जिनमे 7000 करोड़ के निर्माण कार्य को देखने के लिये नियुक्त भ्रष्ट इंजीनियर की बर्खास्तगी के साथ –साथ खुद से 20 वर्ष वरिष्ठ IAS विनीत चौधरी के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल कर के CBI जाँच को लिखना बड़ा कदम रहा।
यहाँ यह भी बताते चले कि वर्तमान मे विनीत चौधरी हिमाचल सरकार मे मुख्य सचिव पद पर तैनात हैं।लगभग 30 करोड़ के घोटाले मे अपने से 10 वर्ष वरिठ IPS शैलेश यादव के खिलाफ़ एक फर्जी सिक्योरिटी कम्पनी को संरक्षण देने पर आरोप पत्र दाखिल करना व सचिव स्तर के तत्कालीन AIIMS निदेशक ऍम.के,मिश्र पर फर्जी पेटेंट का फर्जी सर्टिफिकट जारी कर मेडिकल इक्यूपमेंट मे धोखाधड़ी मे उन के खिलाफ की गई कार्यवाही करना शामिल है।
हालांकि यहाँ भी हरियाणा की ही तरह केंद्र को भी संजीव चतुर्वेदी की भ्रस्टाचार विरोधी मुहिम खटकने लगी 2015 मे भ्रष्टाचार से मुखरता से लड़ने के लिये “रेमन मैग्सेसे पुरस्कार” लेने वाले अधिकारी को सरकार ने अगस्त 2014 मे AIIMS के “मुख्य सतर्कता अधिकारी” के पद से हटा दिया था।
यहाँ तक कि संजीव को दो वर्ष तक बगैर काम के खाली बिठा दिया गया। अगस्त, 2015 मे न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद न चाहते हुए भी केंद्र सरकार को संजीव चतुर्वेदी का कैडर हरियाणा से बदल कर उत्तराखंड करना पड़ा। जिस के बाद AIIMS का अपना कार्यकाल समाप्त करने के बाद 29 अगस्त 2016 को चतुर्वेदी उत्तराखंड आ गये। उस वक़्त उत्तराखंड मे कांग्रेस सरकार थी। हरीश रावत ने भी तीन माह तक खाली बैठाए रखा फिर काफी खोजने के बाद संजीव चतुर्वेदी को गुमनामी के अंधेरे मे बड़ी ही चतुराई से एडजस्ट कर दिया।
यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि चतुर्वेदी पर मुकदमों के बावजूद चतुर्वेदी बेदाग होके निकले। मुकदमे या तो सरकार ने खुद वापस ले लिये या न्यायालय ने रद्द किये ।
भ्रष्टाचार के मामलों को संजीव चतुर्वेदी ने अपनी जगह छोड़ने के बावजूद भी नही छोड़ा। सब से पहले तत्कालीन हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा, वन मंत्री किरन चौधरी, और राज्य के तमाम वरिष्ठ नोकरशाहों के खिलाफ सी.बी.आई जांच को लेकर सुप्रीम कोर्ट मे नवंबर 2012 में याचिका दायर की। जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा सरकार, केन्द्र सरकार तथा सी.बी.आई से जबाब मांगा था। अपने जबाब में केंद्र सरकार तथा सी.बी.आई ने चतुर्वेदी द्वारा उजागर भ्रष्टाचार के मामलों की सी.बी.आई जांच का समर्थन किया, ये मामला सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की बैंच के सम्मुख सुनवाई के लिए अंतिम चरण में है ।
इसी तरह AIIMS में चतुर्वेदी द्वारा उजागर किये गए भ्रष्टाचार के मामलों की निष्पक्ष जांच हेतु वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने दिल्ली हाइकोर्ट मे याचिका दायर की, जिस पर दिल्ली हाइकोर्ट ने स्वास्थ्य मंत्री जो.पी.नड्डा को नामजद रूप से नोटिस जारी कर के उन से जबाब मांगा है। NDA सरकार मे यह पहला मामला है, जब किसी केन्द्रीय मंत्री का भ्रष्टाचार के आरोप में नोटिस जारी कर जबाब मांगा है। इस मामले की सुनवाई भी दिल्ली हाइकोर्ट में अंतिम चरण में है ।
जब संजीव चतुर्वेदी तत्कालीन हरियाणा की कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार को उजागर कर रहे थे तो तब यही बी.जे.पी विपक्ष में रहते हुए उनका समर्थन कर रही थी, किन्तु जब चतुर्वेदी ने नड्डा पर उंगली उठाई तो तब इसी बीजेपी ने संजीव चतुर्वेदी का अपने ट्वीटर एकाउंट में पोस्टर लगा के सरेआम आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग किया था।
बहरहाल संजीव चतुर्वेदी नाम के इस अफसर से सभी सरकारें असहज रहती हैं। यदि उत्तराखंड में सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ संकल्पबद्ध है तो इनका सदुपयोग कर साफ-सुथरी सरकार देने का मजबूत संदेश दे सकती है।