पूरे राज्य की नदियों में होने वाला खनन सिर्फ उन्हीं टै्रक्टरों द्वारा ढुलान किया जा सकता है, जो परिवहन विभाग में व्यावसायिक श्रेणी में पंजीकृत हों। यदि कोई एग्रीकल्चर श्रेणी में पंजीकृत ट्रैक्टर ट्रॉली खनन सामग्री ढोता हुआ पकड़ा जाता है तो न सिर्फ भारी भरकम जुर्माना वसूला जाता है, बल्कि ट्रैक्टर ट्रॉली को भी सीज कर दिया जाता है। राज्य के इस कानून से इस क्षेत्र की जानकारी रखने वाले सभी लोग वाकिफ हैं, किंतु दिलचस्प बात यह है कि पिछले दिनों मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की विधानसभा डोईवाला में होने वाले खनन के लिए उनके प्रभावशाली ओएसडी धीरेंद्र सिंह पंवार ने यह नियम बदलवा डाला।
मुख्यमंत्री के क्षेत्र में बहने वाली नदियों में होने वाला खनन का ठेका वन निगम के पास है। वन निगम के अफसरों ने दबाव में मुख्यमंत्री के ओएसडी का आदेश तो मान लिया, लेकिन छह माह मे ही इससे राजस्व का पांच करोड़ रुपए का नुकसान हो गया।
सिर्फ मुख्यमंत्री की विधानसभा के कुछ लोगों के लिए जारी किए गए इस आदेश पर जब राज्य के अन्य क्षेत्रों से भी आपत्तियां की जाने लगी तो वन निगम हरकत में आया, किंतु मुख्यमंत्री की वीआईपी विधानसभा का मामला था, इसलिए उच्चाधिकारियों ने भी चुप्पी साध ली। हालांकि CM को अपने ओएसडी के इस कारनामे का कितना संज्ञान है, यह स्पष्ट नहीं है
इस पर वन निगम से एक व्यक्ति ने आरटीआई में इस तरह के आदेशों की जानकारी मांगी और परिवहन विभाग में इस मनमानी की शिकायत कर दी। अब खुद पर बन आई तो परिवहन विभाग ने वन निगम से इस तरीके के नियमों का जवाब तलब कर लिया। खुद को फंसता देखकर वन निगम के अफसरों को फिर अपना ही आदेश संशोधित करना पड़ा और इस तरह ओएसडी के मनमाने आदेश से पिंड छूटा। हालांकि इस बीच लगभग छह माह का समय गुजर गया और विभाग को लगभग पांच करोड़ का चूना लग गया।
ऐसे हुआ खेल
२९ अक्टूबर २०१७ का धीरेंद्र पंवार ने वन निगम को पत्र लिखकर आदेश दिया कि एग्रीकल्चर श्रेणी में पंजीकृत ट्रैक्टर ट्रॉली को भी खनन सामग्री ढोने की अनुमति दी जाए। ३ नवंबर २०१७ को वन निगम के तत्कालीन एमडी एसटीएस लेप्चा ने इसकी अनुमति दे दी। इस बीच आपत्तियां उठी तो ७ मई को परिवहन विभाग ने वन निगम को पत्र लिखकर आपत्ति जताई और इनका चालान करने की चेतावनी दी। मामला गर्माता देख आठ मई २०१८ को उत्तराखंड वन विकास निगम ने अपना पुराना आदेश वापस ले लिया।
अहम सवाल यह है कि राजस्व के इस नुकसान के लिए आखिर किसकी जिम्मेदारी तय की जाएगी। क्या ओएसडी इस तरह के आदेश करने के लिए अधिकृत हैं? और क्या वन निगम एक ओएसडी के आदेशों को मानने के लिए बाध्य है? जब ओएसडी ही सिर्फ एक वीआईपी विधानसभा के लिए नियम बदलने लगें तो नियम-कायदों का मखौल उडऩा लाजिमी है। देखना यह है कि मुख्यमंत्री इस पर क्या कार्यवाही करते हैं? जीरो टोलरेंस का यह कैसा नारा है, जहां राजस्व के नुकसान की संस्तुति मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा हो रही है।
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