नवल खाली
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत जी के भाषणों का अधिकांश हिस्सा आजकल भाँग व कंडाली पर आधारित है।
टिहरी में स्थापना दिवस रैबार कार्यक्रम में जब अपने 50 हजारी जैकेट की घोषणा मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने की तो , जनता भी हकदक रह गयी।
जिन घरों की मासिक आय 40 से 50 हजार होती है, वो भी इस महंगाई में तब जाकर बड़ी मुश्किल से एक हजार की जैकेट पहन पाते है।
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अब आप स्वयं कल्पना करें ? 50 हजारी जैकेट पहनने के लिए कितनी मासिक आमदनी चाहिए ?
लगभग 25 लाख रुपये महीने कमाई वाले बन्दे ही 50 हजारी जैकेट पहनने की सोच सकते हैं!
कितने लोग होंगे जो ढाई सौ रुपये खर्च करके कंडाली का सूप पियेंगे ??
चीजें ऐसी हों जिन्हें आम व्यक्ति के लिए सुलभ बनाया जाए।
वर्षों पहले आपने सुना होगा , जेट्रोफा से बायोफ्यूल बनाने व इससे ग्रामीणों को स्वरोजगार से जोड़ने की बात हुई , फिर बेम्बू से स्वरोजगार की बात हुई ,फिर आज से 11 बारह साल पहले भी पिरूल से कोयला बनाने के लिए वन विभाग की तरफ से कई एनजीओ के मार्फ़त प्लांट लगाए गए , फिर कोदा ,झंगोरा के लिए अभियान चला और अब भाँग व कंडाली के सपने से स्वरोजगार की बात हो रही है।
हाँ इन सब सपनो से जो सबसे ज्यादा खुश हैं ,वो हैं हमारे कई ऐसे एनजीओ जिनको इसमे फायदा नजर आ रहा है।
किसी भी चीज का विरोध करना हमारा मकसद नही है।
पर हम प्रदेशवासी दूध के जले हैं ,इसलिए छांछ भी फूंक फूंक कर पीते हैं।
आज 19 वर्षों तक लगातार सपने दिखाए गए पर एक भी सपना साकार न हो पाना ही हमारी पीड़ा है।
हमारा मन्तव्य साफ है कि चीजें ऐसी हों जो आम व्यक्ति से डायरेक्ट कनेक्ट हों।
जितनी सब्सिडी शराब के कारोबारियों को दी जा रही हैं ,उससे आधी सब्सिडी भी यदि दूध में दी जाती तो हजारों लोग इस व्यवसाय को अपनाते।
आज प्रदेश के ज्यादातर युवा ,बाहरी प्रदेशों में जाकर ,जिल्लतें सहकर नौकरी करने को बाध्य हैं। कभी किसी युवा का मर्डर हो जाता है तो सरकार भी चुप्पी साध लेती है।
वर्षों पहले जिस कंडाली व भाँग को लोग पहाड़ों में गालियों में शामिल करते थे , आज उस कंडाली के अच्छे दिन भी बीजेपी के अच्छे दिनों की तरह ही नजर आ रहे हैं ।
आज कंडाली का प्रमोशन भी वर्षों पहले जेट्रोफा की तर्ज पर हो रहा है ,जब कहा गया था कि जेट्रोफा से उत्तराखंड की तकदीर बदल जाएगी ,बायो फ्यूल के लिए इसका प्रयोग किया जाएगा ।। कहाँ गया होगा वो जेट्रोफा वाला सपना ???
बायोफ्यूल से कितनो को रोजगार मिला होगा??
मतलब हर पंचवर्षीय योजना में दिखाए जाने वाला नया सपना कभी भी उत्तराखंड के लिए हकीकत का रूप न ले सका।
हरीश रावत जी के कोदा झंगोरा की मुहिम के बाद अब भाँग व कंडाली का ये नया सपना कितना कारगर होगा ,ये देखने का विषय होगा।
पिछले 20 वर्षों से उत्तराखंड इस प्रकार के सपनो की एक प्रयोगशाला बनकर रह गयी है पर एक भी प्रयोग ऐसा सफल न हो पाया ,जिससे हम अपने प्रदेश के नौजवानों की ऊर्जा का इस्तेमाल इस प्रदेश के विकास के लिए कर पाए हों ,उनको रोजगार उपलब्ध करवा पाए हों ?
वर्षों पहले पहाड़ी गांवो में, कंडाली जामली, भंगलु जामलू तुमारी कुड़ीयों मा, जैसी गालियों का प्रयोग किया जाता था।
जिस कंडाली का नाम लेना भी लोगों को पसंद नही था ,आज वही कंडाली एकदम से हीरोइन बनकर उभर आई है।
कंडाली का जैकेट 1700₹ से 2000₹ का , साड़ी 8 हजार की , कंडाली की चाय 290₹ की सौ ग्राम , कंडाली का सूप 200₹ का एक बाउल । कंडाली की सब्जी 200₹ की एक कटोरी ।
अब सबसे महत्वपूर्ण बात कंडाली के दोहन पर आती है , क्योंकि ये एक जंगली जड़ी बूटी है इसलिए ये भी नही कह सकते कि प्रचुर मात्रा में होती है ।
आपने गांवो में भी देखा होगा कि कंडाली कुछ लिमिटेड जगहों पर ही होती है ।
प्राकृतिक रूप से उगने वाली इस बिच्छु घास की जड़ों का इस्तेमाल भी आयुर्वेदिक दवाइयों व अंगूठी में पहनने वाली नीलम धातु के विकल्प के रूप में लोग कर रहे हैं ।
ऐसे में किसी भी प्राकृतिक वनस्पति के व्यावसायिक तौर पर इस प्रकार के अंधाधुंध दोहन से वो एक दिन समाप्ति की कगार पर होगी ।
रूरल इंडिया क्राफ्ट संस्था के बचन सिंह रावत का कहना है कि बिच्छू घास की प्रदेश में व्यावसायिक खेती नहीं होती है। ऐसे में कच्चा माल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पा रहा है।
असल विषय यही है कि इसकी व्यावसायिक खेती कैसे की जाय ?? उसकी तकनीकी विकसित करने की आवश्यकता है ।
इस बिच्छु घास से प्रदेश के सैकड़ों नौजवानों को स्वरोजगार का सपना दिखाने का आइडिया अच्छा हो सकता है परंतु परमानेंट रूप से इसको व्यावसाय के तौर पर अपनाने के लिए इसकी व्यावसायिक खेती पर अनुसंधान की आवश्यकता होगी जोकि सबसे महत्वपूर्ण विषय है ।
आज आवश्यकता सपने दिखाने की नही बल्कि अपने निजी स्वार्थों को त्यागकर धरातल पर काम करने की है।
मुख्यमंत्री ने दो साल पहले अपने गाँव खेरासैण में चकबंदी की बात की थी ,आजतक उसपर काम न होना भी बड़े सवाल पैदा करता है ।
जितनी तेजी से पहाड़ों में शराब की गंगा बही है , काश ,उतनी ही तेजी से विकास की गंगा भी बहती।