पर्वतजन ब्यूरो
वर्ष 2012 में प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने वाले विजय बहुगुणा भाजपा में शामिल होने के बाद राजनैतिक परिदृश्य से गायब हो गए हैं। उत्तराखंड में पंचायत चुनाव के दौरान उत्तराखंड के उनके कुछ पुराने कार्यकर्ता जो पहले बहुगुणा के साथ कांग्रेस में थे और बाद में बहुगुणा द्वारा भाजपा में शामिल होने के बाद भाजपा में शामिल हो गए, उनसे मिलने गए और उन्होंने बहुगुणा के सामने ब्लॉक प्रमुखों और जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए बहुगुणा से गुहार लगाई। बहुगुणा के समर्थकों को तब जोर का झटका धीरे से लगा, जब बहुगुणा ने अपने श्रीमुख से उन लोगों को बताया कि वर्तमान में उनकी कहीं कोई पूछ नहीं है। उनके कहने पर कोई भी बात सुनी नहीं जाती। बहुगुणा ने उन लोगों को यह भी बताया कि वे लोग अब उन्हें कांग्रेस वाले बहुगुणा की छवि में देखना बंद कर दें।
बहुगुणा के इस उद्बोधन के बाद बहुगुणा के समर्थक भारी मन से वापस आए। तब उन्हें एहसास हुआ कि कल तक उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रूप में जिस व्यक्ति का दबदबा था, आज वह पंचायत स्तर पर भी किसी प्रकार की दखल देने लायक नहीं बचा।
दो बार कांग्रेस के टिकट पर टिहरी से लोकसभा का चुनाव लडऩे वाले विजय बहुगुणा के बेटे साकेत बहुगुणा की हालत भी वही है। साकेत बहुगुणा अपने समर्थकों के पास यह कहने से नहीं हिचकिचाते कि उन्होंने कभी भाजपा की सदस्यता नहीं ली। ये वही साकेत बहुगुणा हैं, जिनकी कांग्रेस सरकार के दौरान उत्तराखंड के बड़े-बड़े आईएएस और आईपीएस मिलने के लिए समय मांगते थे।
सूबे के काबीना मंत्री यशपाल आर्य कांग्रेस में भी काबीना मंत्री थे। उन्हें कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष होने का अवसर मिला। कांग्रेस के टिकट पर चार बार विधायक हुए और पहली निर्वाचित सरकार में विधानसभा अध्यक्ष भी बने। यशपाल आर्य प्रदेश के उन चुनिंदा दलित नेताओं में शुमार रहे हैं, जिन्होंने लगातार राजनैतिक क्षेत्र में आगे बढऩे का काम किया। २०१७ के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले यशपाल आर्य कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए तो भाजपा ने उन्हें बाजपुर और उनके बेटे संजीव आर्य को नैनीताल से विधानसभा का चुनाव लड़वाया। बाद में यशपाल आर्य सूबे के काबीना मंत्री बने।
भाजपा सरकार में मंत्री बनने के बाद यशपाल आर्य कभी भी जनता की आवाज बनकर नहीं दिखे। यहां तक कि जिस दलित समाज से वे चुनकर आते हैं, उनके पक्ष में बोलने तक की भी आजादी कभी यशपाल आर्य में नहीं दिखी। कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष रहते जिन यशपाल आर्य की संस्तुति पर दर्जनों विधानसभा के टिकट वितरित होते थे, भाजपा में आने के बाद वे बाजपुर और नैनीताल सीट पर सिमटकर रह गए। यशपाल आर्य के कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष रहते लोकसभा प्रत्याशियों के टिकट से लेकर उत्तराखंड से राज्यसभा के लिए चयनित होने वाले प्रत्याशियों की सूची में विशेष दखल होता था।
यशपाल आर्य कांग्रेस के अध्यक्ष रहे तो उनके पास प्रदेश कांग्रेस कमेटी के गठन का अधिकार था। यशपाल आर्य द्वारा बनाए गए महामंत्री, उपाध्यक्ष, प्रवक्ता से लेकर तमाम पदाधिकारी आज भी कांग्रेस में महत्वपूर्ण स्थानों पर हैं। जो यशपाल आर्य कांग्रेस में रहते पूरे प्रदेश में राजनीति की धुरी बने हुए थे, भाजपा में आकर सिमटकर रह गए हैं या यह कहें कि उन्हें इतना सीमित कर दिया गया है कि मंत्री के लिए मिलने वाला जनसंपर्क अधिकारी रखने का अधिकार भी उनके पास नहीं रहा।
यशपाल आर्य यूं तो सूबे में परिवहन, समाज कल्याण आदि विभागों के मंत्री हैं, किंतु उनके पास अपने विभाग के अधिकारियों की स्थानांतरण या तैनाती करने का वह अधिकार नहीं है, जो एक मंत्री के पास होना चाहिए। सूबे की भाजपा सरकार में मंत्री बनने के बाद यशपाल आर्य के कहने पर किसी भी व्यक्ति को दायित्वधारी नहीं बनाया गया। यही नहीं यशपाल आर्य के कहने पर कहीं भी जिला पंचायत या ब्लॉक प्रमुखों के पदों पर उनकी पसंद को नहीं पूछा गया। ये हालात बताते हैं कि जो यशपाल आर्य कल तक पूरे उत्तराखंड के नेता थे। जिन्हें कांग्रेस हाईकमान की मनमोहन सिंह से लेकर सोनिया गांधी और अहमद पटेल से लेकर गुलाम नबी आजाद जैसे बड़े नेताओं के साथ बैठे देखते थे, वह आज भाजपा के मंडल अध्यक्षों के सामने सैल्फी खिंचवाने को मजबूर हैं।
यशपाल आर्य के मंत्री बनने के बाद सूबे के उन्हीं के विभाग के एक छोटे से कर्मचारी ने यशपाल आर्य का फोन टेप कर वायरल करने की जुर्रत की और मजेदार बात यह रही कि उस कर्मचारी के खिलाफ किसी प्रकार की कोई कार्यवाही नहीं हुई। उनके द्वारा अपने विभाग में किए गए स्थानांतरण उन्हीं के अधिकारियों ने निरस्त कर दिए।
यशपाल आर्य की यह सारी गाथा बताती है कि आज वे जिन हालातों में सूबे में मंत्री हैं, उनकी असल बगत कितनी है। इससे समझा जा सकता है कि भाजपा ने यशपाल आर्य के न सिर्फ राजनैतिक रूप से हाथ-पैर बांध दिए हंै, बल्कि उन्हें आज भाजपा के मकडज़ाल में इस कदर जकड़ दिया है कि वे कशमसाकर रह गए हैं।
ऐसा नहीं कि भारतीय जनता पार्टी ने सिर्फ यशपाल आर्य को अपनी मुट्ठी में कैद कर दिया हो। कांग्रेस में सांसद से लेकर तमाम बड़े पदों पर रहने वाले उत्तराखंड सरकार के दूसरे काबीना मंत्री सतपाल महाराज की स्थिति यशपाल आर्य से कम नहीं है। कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाते वक्त सतपाल महाराज अकेले थे और तीन साल बाद भारतीय जनता पार्टी ने सतपाल महाराज की स्थिति वही अकेले वाली बनाकर रख दी है।
सतपाल महाराज कांग्रेस में रहते हुए पौड़ी लोकसभा के १४ विधानसभा टिकट अपनी शर्तों पर बांटते थे। कांग्रेस में सतपाल महाराज का कद ही था कि 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में सतपाल महाराज की पसंद से बाहर टिकट देने पर महाराज ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया था। तब आनन-फानन में ७ कांग्रेसी प्रत्याशियों के टिकट काटकर सतपाल महाराज की पसंद पर टिकट बांटे गए थे। यह वह समय था, जब उत्तर प्रदेश में दो बार के विधायक रहे शूरवीर सिंह सजवाण का भी टिकट काट दिया गया था, लेकिन सतपाल महाराज ने शूरवीर सजवाण को ऋषिकेश से टिकट दिलवाकर अपनी ताकत का प्रदर्शन किया था। यह सतपाल महाराज की ताकत ही थी कि राजनीति में पदार्पण करने वाले गणेश गोदियाल को तत्कालीन वित्त मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के खिलाफ मैदान में उतारा गया और गणेश गोदियाल ने निशंक को हराकर साबित कर दिया कि सतपाल महाराज का वह दांव पूरी तरह सही था।
तिवारी मंत्रिमंडल में सतपाल महाराज के कहने पर उनके साथियों को न सिर्फ मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया, बल्कि महाराज के कहने पर तीन दर्जन कांग्रेसियों को लालबत्ती भी बांटी गई।
सतपाल महाराज भाजपा में शामिल हुए थे स्वयं के अलावा किसी को भी विधानसभा का टिकट नहीं दिला पाए। भाजपा ने महाराज के कहने के बावजूद उनकी पत्नी को टिकट नहीं दिया। प्रदेश में दो बार कैबिनेट मंत्री, तीन बार विधायक रहने वाली अमृता रावत आज सूबे की राजनीति से तब बाहर कर दी गई है, जबकि उत्तराखंड में हुए विधायकों के सबसे बड़े दल-बदल के दौरान ही उन्होंने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामा था।
सतपाल महाराज यूं तो सूबे में काबीना मंत्री हैं, लेकिन राज्य सरकार द्वारा जिस प्रकार ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन के विस्तार पटल वाले कार्यक्रम में उन्हें बाहर रखा गया, उसी दिन तय हो गया था कि कल तक उत्तराखंड के लोगों के बीच रेल पुरुष के नाम से जाने जाने वाले सतपाल महाराज भाजपा में आकर बहुत बुरी तरह फंस गए हैं।
उत्तराखंड के अधिकारियों ने चारधाम यात्रा शुरू होने के कार्यक्रम के दौरान दो बार जानबूझकर सतपाल महाराज के लिए हैलीकॉप्टर मुहैया नहीं करवाया। महाराज के विभागों में लगातार दखलंदाजी का दौर जारी है। हरिद्वार स्थित उनके आश्रम पर सरकारी कार्यवाही से लेकर ऋषिकेश आश्रम को नोटिस देना जैसे दर्जनों घटनाएं बताती हैं कि अब महाराज की भाजपा की नजर में कितनी उपयोगिता है।
तीसरी बार विधायक बनकर मंत्री बनने वाले सुबोध उनियाल यूं तो सूबे के कृषि और उद्यान मंत्री हैं, किंतु सुबोध उनियाल के घर पर कार्यकर्ताओं और आम जनता का वह जमावड़ा अब गायब हो चुका है, जो कांग्रेस में विधायक रहते था। सुबोध उनियाल २००२ में पहली बार कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुनकर आए और नारायण दत्त तिवारी के सलाहकार बनाए गए। तब से लेकर भाजपा में शामिल होने तक सुबोध उनियाल के जलवे सचिवालय से लेकर विधानसभा और अपनी विधानसभा से लेकर हर क्षेत्र में चरम पर थे। भाजपा में शामिल होने के बाद सुबोध उनियाल को इतनी छूट नहीं कि उनके किसी कार्यकर्ता को एडजस्ट करने का उनके पास अधिकार होता।
सुबोध उनियाल के समर्थक बताते हैं कि जितना काम आज उनियाल कैबिनेट मंत्री होने के नाते कर रहे हैं, उससे कई गुना अधिक तो वे तिवारी के सलाहकार बनकर करते थे। अर्थात यशपाल आर्य, सतपाल महाराज की जो स्थिति भाजपा ने बनाकर रखी है, उसकी अगली कड़ी सुबोध उनियाल भी हैं।
सुबोध उनियाल को भारतीय जनता पार्टी ने २०१९ के लोकसभा चुनाव के दौरान तब जोर का झटका दिया, जब भाजपा से बगावत कर निर्दलीय चुनाव लडऩे वाले ओमगोपाल रावत को भाजपा में शामिल कर दिया गया। पंचायत चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने ओम गोपाल के समर्थकों को विशेष तरजीह देकर स्पष्ट कर दिया कि आने वाले वक्त में सुबोध उनियाल के साथ कैसा व्यवहार होने जा रहा है।
रुड़की में नगर निगम चुनाव के दौरान कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आने वाले प्रदीप बत्रा की हालत तब लोगों को पता चली, जब बत्रा के बड़े-बड़े बयानों और घोषणाओं के बाद भाजपा प्रत्याशी की बुरी हार हो गई। भाजपा से बगावत कर चुनाव जीतने वाले को अब कांग्रेस में २०२२ का टिकट मिलने के कयास लगाए जाने लगे हैं। प्रदीप बत्रा सिटिंग एमएलए होने, पूर्व में नगरपालिका अध्यक्ष होने के बावजूद आज पूरी तरह से बैकफुट पर हैं। प्रदीप बत्रा के खिलाफ कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लडऩे वाले सुरेश चंद जैन पुन: भाजपा में आ चुके हैं। २०२२ से पहले प्रदीप बत्रा से पहले अन्य लोगों के साथ-साथ सुरेश चंद जैन से पार पाना भी आसान नहीं होगा।
शैलेंद्र मोहन सिंघल कांग्रेस में रहते तीन बार विधायक और दायित्वधारी रहे दल-बदलकर भाजपा में शामिल हुए। बाद में भाजपा ने उन्हें टिकट तो दिया, लेकिन सिंघल चुनाव नहीं जीत पाए। चुनाव हारने के बाद भारतीय जनता पार्टी के संगठन में कई बार मंच से सिंघल की छिछालेदर करवाई। यहां तक कि भाजपा के गली-मोहल्ले के छुटभैये शैलेंद्र मोहन सिंघल के साथ अभद्रता करते देखे गए।
डा. शैलेंद्र मोहन सिंघल आज उस घड़ी को कोस रहे हैं, जब उन्होंने विधायकी छोड़कर भाजपा का दामन थामा।
२०१७ के विधानसभा चुनाव में रुद्रप्रयाग से भाजपा ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आने वाली विधायक शैलारानी रावत को चुनाव लड़वाया तो भाजपा से पूर्व में विधायक रही आशा नौटियाल बगावत कर चुनाव लड़ गई। जिसके परिणामस्वरूप शैलारानी रावत को हार का सामना करना पड़ा। कुछ दिन तो भाजपाई चुप रहे, किंतु बाद में उन्होंने आशा नौटियाल को भाजपा में शामिल कर स्पष्ट कर दिया कि आने वाले समय में शैलारानी रावत की भाजपा को कितनी आवश्यकता है।
बहुगुणा के समर्थकों को तब जोर का झटका धीरे से लगा, जब बहुगुणा ने अपने श्रीमुख से उन लोगों को बताया कि वर्तमान में उनकी कहीं कोई पूछ नहीं है। उनके कहने पर कोई भी बात सुनी नहीं जाती। बहुगुणा ने उन लोगों को यह भी बताया कि वे लोग अब उन्हें कांग्रेस वाले बहुगुणा की छवि में देखना बंद कर दें।
हरक सिंह रावत के साथ काऊ की हुंकार
भारतीय जनता पार्टी जिस प्रकार कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए नेताओं को राजनीति का स्लो प्वाइजन खिला रही है, उससे इतर कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत और विधायक उमेश शर्मा काऊ के तेवर एकदम अलग हैं। कोटद्वार की लालढांग-चिल्लरखाल मोटरमार्ग को अपना ड्रीम प्रोजेक्ट बताने वाले हरक सिंह रावत के तेवर उस दिन स्पष्ट हो गए थे, जब उन्होंने मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के मुंह लगे सचिव ओमप्रकाश के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की धमकी दी। हरक सिंह की इस धमक का ये असर हुआ कि दूसरे दिन ओमप्रकाश विभागीय फाइल लेकर हरक सिंह के दफ्तर में पहुंच गए।
वन विभाग के सबसे बड़े अधिकारी जयराज सिंह द्वारा कई बार विभागीय मंत्री हरक सिंह रावत को दरकिनार करने की खबरें आ चुकी हैं। हरक सिंह रावत का कहना है कि उन्हें घोड़े से दौड़ लगवानी आती है और वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि घोड़े की लगाम कब खींचनी है और कब उसे लाठी से पीटकर दुरुस्त करना है।
अब तक के कार्यकाल में हरक सिंह रावत अकेले मंत्री हैं, जिन्होंने हर मोर्चे पर वह बात कही है, जिसके लिए हरक सिंह जाने जाते हैं। अधिकारियों के बेलगाम होने से लेकर सूबे में सुस्त पड़ी विकास दर और अपनों को हर हाल में एडजस्ट करने का हरक सिंह का फार्मूला आज भी बदस्तूर जारी है।
हरक सिंह एकमात्र ऐसे मंत्री हैं, जिन्होंने सार्वजनिक मंच से न सिर्फ मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को आंखें दिखाई है, बल्कि तमाम उदाहरण सामने रखे हैं कि जिसने हरक सिंह रावत से पंगा लिया, उसकी राजनीति ही समाप्त हो गई।
हरक सिंह रावत के अलावा रायपुर के विधायक उमेश शर्मा काऊ भी सरकार से सीधा मोर्चा लेने वाले नेताओं में शामिल हैं। उमेश शर्मा काऊ नगर निगम चुनाव से लेकर पंचायत चुनाव और भारतीय जनता पार्टी के सांगठनिक चुनाव में अपने कार्यकर्ताओं के लिए लगातार लड़ते देखे गए गए हैं।
उमेश शर्मा काऊ तब से त्रिवेंद्र रावत के निशाने पर हैं, जब उन्होंने २०१२ के विधानसभा चुनाव में त्रिवेंद्र रावत को चुनाव हरा दिया था।