जयसिंह रावत
अपने चुनावी वायदे के अनुसार त्रिवेन्द्र रावत सरकार ने आखिरकार भराड़ीसैण में ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा की घोषणा कर ही दी। अगर सचमुच वहां 6 महीने के लिये ना सही 4 महीने के लिये भी सारी सरकार डेरा डालती है तो यह वास्तव में बहुत बड़ी ना सही मगर एक उपलब्धि तो होगी ही। लेकिन अगर हिमाचल प्रदेश की शीतकालीन सत्र की तरह यहां ग्रीष्मकालीन विधानसभा सत्र चलाने भर का है तो यह पहाड़ की जनता के साथ धोखा है। वर्तमान के पूर्ण राज्य महाराष्ट्र और हिमाचल प्रदेश तथा केन्द्र शासित जम्मू-कश्मीर में ही दो राजधानियां है, मगर जम्मू-कश्मीर की तरह कुछ महीनों के लिये सरकार अन्यत्र कहीं भी दूसरी जगह पर टिक कर शासन नहीं चलाती है।
जनता से धोखा ,संसाधनों का दुरुपयोग !
पहाड़ों में एक कहावत है कि छोटी पूजा के लिये भी पांच बर्तन और बड़ी पूजा के लिये भी पांच ही बर्तनों की जरूरत होती है। अगर भराड़ीसैण में सचमुच ग्रीष्मकालीन राजधानी चलाने की सरकार की मंशा है तो इसका मतलब ग्रीष्मकाल में वहीं से प्रदेश का शासन विधान चलना है। इसलिये ग्रीष्मकालीन राजधानी के लिये भराड़ीसैण में भी भवन आदि उतने ही बड़े ढांचे की जरूरत होगी जितनी कि देहरादून में उपलब्ध है। इसमें कम्प्यूटर आपरेटर और समीक्षा अधिकारी से लेकर मुख्यसचिव तक के सभी के कार्यालय और आवासीय भवन गैरसैण या भराड़ीसैण में उपलब्ध कराने होंगे। यही नहीं वहां चपरासी और बाबू से लेकर अधिकांश विभागों के दफ्तर भी बनाने होंगे। अगर ऐसा नहीं होता है और ग्रीष्मकालीन राजधानी का अभिप्राय केवल विधानसभा के ग्रीष्मकालीन सत्र से है तो यह पहाड़ की जनता के साथ धोखा और प्रदेश के बेहद सीमित संसाधनों का दुरुपयोग होगा।
सुखद नही दो राजधानियों का इतिहास
वर्तमान में पूर्ण राज्यों में महाराष्ट्र में मुम्बई के अलावा नागपुर में भी कुछ समय के लिये विधानसभा चलती है। इसी प्रकार हिमाचल की दूसरी राजधानी धर्मशाला है। यद्यपि पूर्ण विकसित धर्मशाला और नागपुर की तुलना अविकसित भराड़ीसैण से नहीं की जा सकती। फिर भी इन पूर्ण राज्यों की दूसरी राजधानियां मात्र कहने भर के लिये हैं। धर्मशाला में भी उत्तराखण्ड की तरह कुछ दिनों के लिये विधानसभा का शीतकालीन सत्र इसलिये चलता है क्योंकि उन दिनों शिमला अक्सर हिमाच्छादित या बहुत ही ठण्डा रहता है। जहां तक सवाल उप राजधानी नागपुर का है तो वह एक ऐतिहासिक शहर है जो कि भारत का तेरहवां सबसे बड़ा शहर है और वह मध्य प्रान्त तथा बेरार की राजधानी रह चुका है। फिर भी पूरी सुविधायें होते हुये भी महाराष्ट्र की सत्ता मुम्बई से ही चलती है। केवल बर्फबारी की मजबूरी के चलते जम्मू-कश्मीर में शीतकाल के दौरान पूरा शासन जम्मू से चलता है। गत विधानसभा चुनाव से पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्रसिंह ने धर्मशाला में सचमुचच दूसरी राजधानी स्थापित करने का वायदा किया था मगर वह चुनाव ही हार गये।
ग्रीष्मकालीन पिकनिक !
उत्तराखण्ड की सरकार अगर भराड़ीसैण की तुलना नागपुर, जम्मू और धर्मशाला से कर रही है तो वह बहुत बड़ी गलतफहमी में है या फिर जनता को गफलत में डाल रही है। भराड़ीसैण में जो अब तक जितना निर्माण हुआ है, उसी पर एनजीटी को ऐतराज है। वर्तमान में भराड़ीसैण में चल रहे विधानसभा के बजट सत्र के लिये कर्मचारियों और अधिकारियों के लिये बिस्तर और कुर्सियां तक देहरादून से गये। कुछ दिन पहले वहां एक प्लास्टिक की कुर्सी तक नहीं थी। देहरादून से वहां सामान ढोने में और कुछ दिन के लिये राजनीतिक बारात ले जाने में सरकार को करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं और नतीजा ढाक के तीन पात में है। वहां जाने के लिये सड़कें इतनी तंग हैं कि दो कारें भी हर जगह क्रास नहीं हो पाती। विपक्ष चाहे जितना भी चिल्लाये मगर भराड़ीसैण में रहना कोई नहीं चाहता। इस बार भी 7 मार्च के बाद तक सत्र चलने की गुंजाइश कम ही है। जाहिर है कि बिना बहस के ही 53 हजार करोड़ का बजट पारित हो जायेगा। उत्तराखण्ड की और खास कर पहाड़ की जनता अधिकारियों और नेताओं की तफरीह के लिये नहीं बल्कि अपनी समस्याओं के निदान और विकास के लिये प्रदेश की सत्ता को पहाड़ में चाहती है।
संकल्प पर हावी स्वार्थ
राज्य गठन के बीस साल बाद भी उत्तराखण्ड का राजकाज अस्थाई राजधानी के भारी बोझ तले दबे देहरादून से चलने एवं स्थाई राजधानी न मिल पाने का दोष राज्य का गठन करने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी और गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को देना तो आसान है मगर सच्चाई यह है कि इस अनिर्णय और असमंजस के लिये कोई और नहीं बल्कि स्वयं उत्तराखण्ड का राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार रहा है जो कि इस गंभीर मुद्दे पर न केवल सहूलियत की राजनीति करता रहा अपितु क्षेत्रवाद की संकीर्ण भावना से ग्रस्त रहा है।1 अगस्त 2000 को राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम बना और उत्तरांचल राज्य के गठन की संवैधानिक प्रकृया पूरी हुयी तो उस समय केन्द्र और राज्य में भाजपा की सरकारें होने के साथ ही उत्तराखण्ड क्षेत्र से भाजपा के 30 विधानसभा और विधान परिषद सदस्यों में से 23 सदस्य और लोकसभा के 5 में से 4 सदस्य थे। अधिनियम बनने के बाद तत्कालीन कैबिनेट सेक्रेटरी कमल पाण्डे ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव योगेन्द्र नारायण को पत्र लिख कर उनसे पूछा था कि नये राज्य की राजधानी कहां और कैसे बनायी जा रही है। उन्होंने राज्य के अस्तित्व में आने से पहले ही सरकार के मंत्रियों, राज्यपाल, मुख्यमंत्री और नौकरशाहों के आवास एवं कार्यालयों की व्यवस्था करने के साथ ही हाइकोर्ट के स्थान के चयन की भी अपेक्षा की थी। पाण्डे के पत्र पर तत्कालीन मुख्यमंत्री रामप्रकाश ने 9 सितम्बर 2000 को सभी विधायकों एवं सांसदों की बैठक लखनऊ में बुलाई थी जिसमें गैरसैण का नाम तो किसी ने नहीं लिया मगर अपनी सुविधा का ध्यान रखते हुये अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र या निर्वाचन क्षेत्र के निकट राजधानी बनाने की राय लगभग सभी ने प्रकट की। पहाड़ के जनप्रतिनिधियों के एकराय न हो पाने के कारण देहरादून, हरिद्वार और नैनीताल में जहां आवासीय एवं अन्य सुविधाएं पर्याप्त हों उस स्थान को राजधानी के लिये चिन्हित करने का सुझाव प्रशासन को दिया गया।
राज्य बनने के बाद लाखनऊ से सरकार देहरादून पहुंची तो स्थाई राजधानी के चयन की जिम्मेदारी एक बार फिर नये राज्य के राजनीतिक नेतृत्व पर आ गयी थी। नेता अपनी ढपली अपना राग अलापने लगे तो राजधानी चयन के लिये पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी ने दीक्षित आयोग का गठन कर अपने सिर की बला आयोग पर डाल दी।राजनीतिक नेता गैरसैण के बारे में कितने ईमानदार हैं, वह दीक्षित आयोग की रिपोर्ट से ही पता चल जाता है। आयोग ने अखबारों में विज्ञापन देकर स्थाई राजधानी के लिये जब सुझाव मांगे तो 70 विधायकों, 5 लोकसभा और 3 राज्यसभा सदस्यों के अलावा कई दर्जन नगर निकायों में से केवल एक तत्कालीन सांसद एवं एक मंत्री तथा नेता प्रतिपक्ष सहित 5 विधायकों ने स्थायी राजधानी स्थल के लियेे आयोग को अपने सुझाव दिये थे। गैरसैंण को राजधानी बनाने की राय देने वालों में शामिल जनप्रतिनिधियोें मेें तत्कालीन विधायक बद्रीनाथ डा. अनुसूया प्रसाद मैखुरी, विधायक थलीसैैंण गणेश प्रसाद गोदियाल, प्रमुख क्षेत्र पंचायत चौैखुटियां (अल्मोेड़ा) नन्दन सिंह सिरेजा थे। रामनगर काशीपुर कालागढ़ क्षेत्र के पक्ष मे राय देने वालों में शामिल जनप्रतिनिधियों में तत्कालीन पशुपालन, लघु उद्योग, खादी ग्रामोद्योग मंत्री (बाद में स्पीकर) गोविन्द सिंह कुंजवाल, नेता प्रतिपक्ष भगत सिंह कोश्यारी तथा विधायक काशीपुर हरभजन सिंह चीमा, अध्यक्ष नगर पालिका परिषद काशीपुर श्रीमति ऊषा चौधरी, आई.डी.पी.एल. ऋषिकेश की राय देनेे वालों मेें तत्कालीन टिहरी सांसद मानवेन्द्र शाह, नगर पालिका अध्यक्ष ऋषिकेश दीप शर्मा तथा सदस्य जिला पंचायत नरेन्द्र नगर राजेन्द्र सिंह भण्डारी, तथा अन्य क्षेत्र के अन्तर्गत श्रीनगर की राय देने वालों में नगर पालिका अध्यक्ष श्रीनगर कृष्णा चन्द्र मैठानी तथा क्षेत्र पंचायत सदस्य ऊखीमठ कुंवर सिंह राणा शामिल हैं। कोश्यारी और कुंजवाल ने रामनगर के साथ ही गैरसैण का भी सुझाव दिया था।