उत्तराखण्ड : आयुष प्रदेश बना एलोपैथ प्रदेश
उत्तराखंड के आयुष प्रदेश होने का दावा करने के बावजूद भी, आयुर्वेद के प्रयोग को सिर्फ कोरोना एपिडेमिक की रोकथाम के उपाय की गाइडलाइन्स जारी कर ही सीमित कर दिया गया है। जिससे कि उत्तराखण्ड के आयुष प्रदेश होने पर प्रश्नचिह्न लग गया है।
राजकीय आयुर्वेद एवं यूनानी चिकित्सा सेवा संघ, उत्तराखण्ड के प्रदेश मीडिया प्रभारी *डॉ ० डी० सी० पसबोला* एवं प्रदेश उपाध्यक्ष *डा० अजय चमोला* द्वारा बताया गया कि, ” केरला, गोवा और हरियाणा प्रदेशों ने आयुष प्रदेश न होते हुए भी कोरोना पैंडेमिक के रोकथाम, शमन और कोरोना रोगियों के रिहेबलिटेशन में आयुर्वेद के प्रयोग के लिए शासनादेश भी जारी कर दिए गए हैं।” आखिर क्यों उत्तराखंड मे सौतेला व्यवहार किया जा रहा है ।
चरक संहिता के रचयिता महर्षि चरक की यह देवभूमि, संजीवनी बूटी का यह हिमालयी प्रदेश आज आयुष प्रदेश की जगह एलोपैथ प्रदेश बनकर रह गया है।
राज्य में एक आयुर्वेद विश्वविद्यालय, तीन राजकीय आयुर्वेद परिसर, दर्जनों प्राइवेट आयुर्वेदिक कालेज, एवं शोध संस्थान और जड़ी बूटी केंद्र होने के बावजूद भी इन संसाधनों का उचित उपयोग कोरोना पैंडेमिक की चिकित्सा में नहीं किया जा रहा है।
ज्ञात है कि एलोपैथ में भी अभी तक कोरोना पैंडेमिक की कोई कारगर चिकित्सा उपलब्ध नहीं है, फिर भी सभी रोगियों की सिर्फ एलोपैथी से ही चिकित्सा व्यवस्था की जा रही है।
जबकि अपार संभावनाओं से युक्त आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति एवं आयुर्वेद चिकित्सकों की घोर उपेक्षा की जा रही है। प्रदेश में राजकीय चिकित्सालयों में कार्यरत लगभग एक हजार आयुर्वेदिक चिकित्सकों एवं लगभग चार-पांच हजार प्राइवेट आयुर्वेदिक चिकित्सकों का प्रयोग कोरोना पैंडेमिक की चिकित्सा, रोकथाम एवं रिहेबलिटेशन में नहीं किया जा रहा है।
इसके इतर राजकीय आयुर्वेदिक एवं संविदा आयुर्वेदिक चिकित्सकों को उनकी मूल पैथी में काम करने देने के बजाय उनकी डयूटी ऐसे कार्यों में लगायी जा रही जो कि आशा, ए एन एम, नर्सिंग स्टाफ, एलोपैथिक फार्मासिस्ट एवं टैक्निशियन्स द्वारा भी किए जा सकते हैं।
अगर उत्तराखण्ड सरकार वाकई में आयुर्वेद का विकास करने और आयुर्वेद को बढ़ावा देने के प्रति गंभीर है तो राज्य सरकार को भी केरला, गोवा और हरियाणा की सरकारों से प्रेरणा लेकर उन राज्यों की सरकारों की तरह ही शासनादेश जारी करने चाहिए जिससे कि आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का कोरोना महामारी के चिकित्सकीय प्रबन्धन में समुचित प्रयोग किया जा सके, और प्रदेश की जनता कोरोना पैंडेमिक में आयुर्वेद चिकित्सा का भरपूर लाभ उठा सके।
उत्तराखंड राज्य निर्माण बनने के बाद इस राज्य को सम्पूर्ण देश में एकमात्र *आयुष प्रदेश* घोषित किया गया था, जिससे उत्तराखण्ड के साथ-साथ पूरी दुनिया आस भरी निगाहों से इस पर्वतीय राज्य को देख रही थी कि उत्तराखण्ड राज्य में आयुर्वेद का स्वर्णिम काल वापिस लौट आएगा, किंतु इस प्रदेश में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी कहिए या फिर शासन में बैठे हुए नीति निर्धारकों की अदूरदर्शी सोच कि राज्य मे आयुर्वेद डाक्टरों को कोरोना काल मे दोयम दर्जे के काम तक सीमित कर दिया गया है।