भले ही आज सारा देश 2 अक्टूबर को गांधी जयंती और लाल बहादुर शास्त्री की जयंती के रूप में मनाता है, लेकिन उत्तराखंड के लिए यह दिन 1994 में काला दिवस के रूप में बदल गया था।
आज लोग इस दिन अहिंसा के दिवस के रूप में याद कर रहे हैं लेकिन उत्तराखंड के लोग इस दिन को शहीद आंदोलनकारियों को इंसाफ दिलाने और उनके सपनों का उत्तराखंड बनाने की दिशा में हम कितना कदम चले हैं, इसका विश्लेषण कर रहे हैं।
आज के ही दिन 1994 की रात को उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर जब सैकड़ों प्रदर्शनकारी शांतिपूर्वक दिल्ली जा रहे थे, तो मुजफ्फरनगर की रामपुर तिराहे पर तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की सपा सरकार के आदेश पर पुलिस ने जमकर दमन किया था और 7 आंदोलनकारियों की मौत हो गई थी।
मुजफ्फरनगर कांड में देहरादून के राजेश नेगी, उखीमठ के अशोक, नेहरू कॉलोनी श्री रविंद्र रावत पोलू, भाववाला के सत्येंद्र चौहान, बद्रीपुर के गिरीश बद्री, अजबपुर के राजेश लखेड़ा, ऋषिकेश के सूर्य प्रकाश थपलियाल शहीद हो गए थे। देहरादून के राजेश नेगी के शव को तो गंग नहर में फेंक दिया गया था।
आंदोलनकारियों पर जमकर लाठियां और गोलियां बरसाई गई थी। इस कांड में सात आंदोलनकारी शहीद हुए थे तथा 60 से भी अधिक लोग घायल हुए थे। 16 महिलाओं के साथ बलात्कार और अन्य शारीरिक शोषण हुआ।
उत्तराखंड आंदोलनकारियों के जहन में आज भी वह काला दिवस ताजा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर 1995 में 28 पुलिसकर्मियों पर बलात्कार डकैती जैसे केस दर्ज हुए लेकिन कमजोर पैरवी के चलते अधिकांश अपराधी दोषमुक्त हो गए।
अब तक उत्तराखंड के सभी मुख्यमंत्री लगभग हर साल यहां पर आकर इस दिन शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं और दो-चार जुमले संबोधित करके वापस अपने सियासी गलियारों में कैद हो जाते हैं।
उत्तराखंड आंदोलनकारियों को इंसाफ दिलाने के लिए तमाम मुकदमे आज भी लचर पैरवी के शिकार हैं।
कोई भी सरकार इसके प्रति गंभीर नहीं रही। बल्कि इस कांड के मुख्य अभियुक्तों से अपने रिश्ते प्रगाढ़ करने में लगे रहे।
उत्तराखंड की धरती मां आज भी बॉलीवुड की शोले फिल्म की तरह इसी उम्मीद पर है कि उनके करन अर्जुन आएंगे लेकिन जाने कब आएंगे वक्त को भी इसका इंतजार है !