मामचन्द शाह
देहरादून। लगता है उत्तराखंड सरकार ने प्रदेश के निजी शैक्षिक संस्थानों के आगे घुटने टेक दिए हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो सरकार यह बयान जारी नहीं करती कि प्राइवेट स्कूलों को फीस न लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। प्रिंसीपल प्रोग्रेसिव स्कूल्स एसोसिएशन उत्तराखंड द्वारा आज अखबारों में प्रकाशित एक विज्ञापन को पढ़कर अभिभावक भौचक रह गए, जिसमें लिखा गया है कि स्कूल प्रबंधन फीस मामले में संबंधित की सत्यापन के बाद ही उचित निर्णय लेगा।
निजी स्कूल संचालकों के हौसले तो वैसे उसी दिन से बुलंद थे, जब एक माह पहले स्कूलों द्वारा फीस लिए जाने पर एक अभिभावक ने मुख्यमंत्री से यह गुजारिश की थी कि लॉकडाउन के चलते वह स्कूलों को फीस कैसे जमा करेगी। अभिभावक का तात्पर्य यही था कि लॉकडाउन के दौरान फीस को स्थगित कर दिया जाए, किंतु मुख्यमंत्री ने उनके ट्वीट में रिप्लाई करते हुए कहा इस मांग को ही गैर जरूरी बता दिया था और कहा था कि फीस ऑनलाइन भी जमा करवाई जा सकती है। मुख्यमंत्री ने इतनी भी संवेदनशीलता नहीं दिखाई कि कई अभिभावक ऑनलाइन फीस जमा करना नहीं जानते।
दरअसल प्रिंसीपल प्रोग्रेसिव स्कूल्स एसोसिएशन उत्तराखंड ने आज अखबारों में एक विज्ञापन जारी करवाया है। जिसमें लिखा गया है कि आर्थिक रूप से कमजोर ऐसे छात्रों के अभिभावक प्रिंसीपल को लिखित में जानकारी प्रेषित करेंगे, जिसके बाद स्कूल उसका सत्यापन करेगा और उचित निर्णय लेगा।
सवाल यह है कि स्कूल द्वारा लिया जाने वाला उचित निर्णय हां या फिर न भी हो सकता है। ऐसे में सरकार निजी स्कूलों पर सख्ती के साथ लगाम क्यों नहीं लगा पाई, कई सवाल खड़े करता है।
कुछ जानकार लोगों का कहना है कि पिछले दिनों प्राइवेट स्कूलों ने मिलकर 62 लाख रुपए जुटाकर राहत कोष में जमा करके सरकार की गुड बुक में शामिल होने का प्रयास किया। उनका यह प्रयास सफल भी रहा और सरकार की ओर से कहा गया कि प्राइवेट स्कूलों को फीस माफी के लिए नहीं कहा जा सकता। इस बात से लोग समझ गए कि निजी स्कूलों और सरकार की सांठ-गांठ के चलते इसका सारा भार अभिभावकों पर ही पड़ेगा।
हुआ भी यही और प्राइवेट स्कूलों ने अगले दिन ही अभिभावकों को ऑनलाइन फीस जमा करने के मैसेज करने शुरू कर दिए। ऐसे में उन अभिभावकों की बड़ी समस्या खड़ी हो गई, जो छोटे-मोटे काम करके अपनी आजीविका चलाते हैं और लॉकडाउन के कारण उनका रोजगार व आय पूर्ण रूप से ठप हो गया, लेकिन प्राइवेट स्कूल वाले देश में चल रहे कोरोना संकट से कोई सरोकार नहीं रख रहे हैं।
प्राइवेट स्कूलों का तर्क है कि उन्हें अपने स्टाफ की सैलरी देनी है, क्योंकि सरकार की गाइडलाइन में किसी की सैलरी नहीं रोकी जानी है, लेकिन यह तर्क देते हुए निजी स्कूल यह भूल गए कि सरकार की उसी गाइडलाइन में यह भी लिखा गया है कि स्कूलों की फीस लॉकडाउन तक नहीं ली जा सकती। यानि कि फीस के लिए अभिभावकों पर स्कूल प्रबंधनों द्वारा दबाव नहीं डाला जा सकता।
इसके लिए सचिव शिक्षा आर मीनाक्षी सुंदरम ने २२ अप्रैल को एक आदेश जारी कर लॉकडाउन के बाद स्थिति सामान्य होने तक समस्त प्रकार के शुल्क लिए जाने पर रोक लगा दी थी, लेकिन इस आदेश में गोलमोल भाषा लिखी गई है कि जो अभिभावक स्वेच्छा से फीस जमा करना चाहते हैं, वह फीस जमा कर सकते हैं। लेकिन इस आदेश का निजी स्कूलों ने फायदा उठाना शुरू कर दिया है। अभी प्रदेश कोरोना संक्रमण से जूझ रहा है और पूर्ण रूप से लॉकडाउन है और स्कूलों द्वारा फीस वसूलनी शुरू की जा चुकी है।
सवाल यह है कि क्या सरकार व शासन इस गंभीर प्रकरण का संज्ञान लेकर ऐसे स्कूलों पर कार्यवाही तय करेगा! यदि नहीं तो फिर यह भी संभव है कि कई स्कूलों की फीस न चुकाने की स्थिति में बच्चों का नाम काट दिया जाए।
तो सरकार ने कर दिया आत्मसर्मण
मुख्यमंत्री राहत कोष में कुछ रकम दान करके निजी स्कूल संचालकों ने सरकार को मैनेज करने का काम किया है और सरकार मैनेज भी हो गई। ये बात दावे के साथ इसलिए कही जा सकती है, क्योंकि सरकार ने अपने आदेश में स्पष्ट शब्दों में ये नहीं कहा कि स्कूल संचालक 50 प्रतिशत या जो भी हो, उतनी फीस कटौती कर अभिभावकों से लें।
वहीं दूसरी ओर राजस्थान व कुछ अन्य राज्यों की सरकारों ने ऐसे स्पष्ट आदेश किए हैं। इस संदर्भ में उत्तराखंड शासन की ओर से जारी गोलमोल आदेश सरकार और निजी स्कूल संचालकों के गठजोड़ की पोल खोलने को काफी है।
सर्वविदित है कि अपने स्टाफ को सैलरी देने के नाम पर फीस वसूलने को आतुर निजी स्कूल संचालक अपने मुनाफे का 20 प्रतिशत हिस्सा भी स्टाफ की सैलरी पर खर्च नहीं करते। स्कूल प्रबंधनों द्वारा सैलरी के नाम पर बेहद मामूली सी पगार गुरुजनों को दी जाती है, लेकिन कोई भी टीचर इसका विरोध नहीं कर पाते और अपने काम में जुटे रहते हैं।
प्राइवेट स्कूलों को त्रिवेंद्र सरकार द्वारा दिए गए आदेश को बदलना शक के घेरे में
आम आदमी पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता रविन्द्र सिंह आनंद ने कहा कि त्रिवेंद्र सरकार द्वारा उत्तराखंड की जनता के साथ धोखा किया गया है। सरकार द्वारा यह आदेश जारी किया गया था कि निजी स्कूल लॉकडाउन के चलते अभिभावकों को फीस जमा कराने को नहीं कहेंगे और न ही किसी प्रकार का दबाव बनाएंगे, परंतु बाद में यह आदेश बदल दिया गया। इसके पीछे क्या मंशा है, कहा नहीं जा सकता कि सरकार द्वारा बाद में यह आदेश जारी किया गया कि जो अभिभावक फीस देना चाहते हैं, वह निजी स्कूलों को फीस जमा करा सकते हैं और जो अभिभावक असमर्थ हैं, वह फीस जमा न कराएं।
आनन्द ने कहा कि यह न सिर्फ उत्तराखंड की जनता के साथ धोखा है, बल्कि इससे उत्तराखंड की जनता के मान सम्मान को ठेस लगती है, क्योंकि जो लोग फीस जमा नहीं कराएंगे उनको और उनके बच्चों को प्राइवेट स्कूलों द्वारा हीन दृष्टि से देखा जाएगा कि वह अभिभावक स्कूल की फीस देने में असमर्थ है और इससे बहुत ही गलत संदेश समाज में जाएगा।
सरकार को चाहिए कि ऐसे संकट की घड़ी में प्राइवेट स्कूलों को लॉकडाउन पीरियड तक स्कूल फीस न लेने का सख्ती के साथ आदेश जारी करना चाहिए, ताकि बुरे आर्थिक हालातों से गुजर रहे अभिभावकों को कुछ राहत मिल सके।
इस पर संगठन प्रभारी डीके पाल का कहना है कि जब स्कूल कॉलेज शैक्षणिक संस्थान बंद हंै तो फिर किस बात कीफीस ली जा रही है।
हालांकि इस बात का प्राइवेट स्कूलों ने तोड़ भी निकाल लिया है और अब विभिन्न स्कूलों ने ऑनलाइन क्लास चलानी शुरू कर दिया है, ताकि वह ये साबित कर सकें कि उनके टीचर लॉकडाउन में भी अपनी ड्यूटी कर रहे हैं।
निजी स्कूलों के इस गैरजिम्मेदाराना व्यवहार के विरोध में अभिभावक संघ ने नैनीताल हाईकोर्ट में याचिका भी दायर की है। जिसकी सुनवाई होने के बाद भी स्पष्ट हो पाएगा कि हाईकोर्ट ने इस मामले पर क्या फैसला सुनाया है।
बहरहाल, उत्तराखंड सरकार निजी स्कूलों पर लगाम लगाने में पूर्ण रूप से नाकाम रहा है। अब देखना यह है कि सरकार द्वारा निजी स्कूलों के खिलाफ इस तरह के रवैये पर कार्यवाही की जाती है या नहीं!