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अय्याशी का अड्डा बना वन निगम

October 23, 2017
in पर्वतजन
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मामचन्द शाह//

वन निगम ने विभिन्न कार्यक्रमों और बैठकों के नाम पर आलीशान होटलों में इतना दारू-मुर्गा उड़ाया कि ऐसा लगता है कि वन निगम में मीटिंग, सिटिंग और ईटिंग के अलावा और कुछ नहीं होता

वन विकास निगम के अधिकारियों व कर्मचारियों को सरकारी दामाद यूं ही नहीं कहा जाता। तभी तो वे दून के महंगे होटल, मॉल व रेस्टोरेंट में जमकर पार्टियां करते हैं, दारू-मुर्गा उड़ाते हैं, काजू-बादाम व अन्य ड्राईफ्रुट पर लाखों खर्चा करते हैं, लेकिन अपनी जेब से उन्हें धेलाभर भी खर्च नहीं करना पड़ता और इसका सारा भुगतान वन विकास निगम के खजाने से होता है।

जी हां! यह सौ फीसदी सच है। देहरादून स्थित वन विकास निगम मुख्यालय/शिविर कार्यालय के अधिकारियों व कर्मचारियों ने सरकारी धन को पानी की तरह बहाया है। हैरानी यह है कि उनके लाखों के बिलों को निगम द्वारा बड़ी आसानी से पास भी कर दिया गया।

आरटीआई एक्टिविस्ट अमर सिंह धुंता ने जब वन विकास निगम से वित्तीय वर्ष 2015-16 एवं 2016-17 में हुए जलपान व्यय में हुए खर्च की जानकारी मांगी तो वहां से मिले आंकड़ों ने वन विकास निगम कर्मचारियों को सरकारी दामाद घोषित करवा दिया।

1 अप्रैल 2015 से 31 मार्च 2016 तक निगम कर्मचारियों ने जलपान के नाम पर 19 लाख 12 हजार 723 रुपए की भारी भरकम धनराशि खर्च की। इसी प्रकार 1 अप्रैल 2016 से 31 मार्च 2017 तक 25 लाख 29 हजार 589 रुपए जलपान के नाम पर उड़ाए गए। इस प्रकार इन दो वित्तीय वर्षों में कर्मचारियों ने अधिकारियों के साथ सांठ-गांठ कर वन विकास निगम के खजाने को 46 लाख 75 हजार 195 रुपए का चूना लगाया।

हैरानी की बात यह है कि ये तमाम बिल वन विकास निगम के वास्तविक बिल होने के बजाय अधिकारियों, कर्मचारियों, ड्राइवर, मेहमानों आदि पर खर्च किए गए नितांत निजी बिल हैं, ऐसे में निगम के प्रबंध निदेशक के साथ ही एमडी भी सवालों के घेरे में घिर गए हैं कि आखिर सरकारी धन की बंदरबांट की इस तरह क्या जरूरत पड़ी!

उक्त व्यय वन विकास निगम मुख्यालय/शिविर कार्यालय देहरादून का है। इसके अलावा प्रदेश में महाप्रबंधक कुमाऊं, 4 क्षेत्रीय प्रबंधक कार्यालय एवं 33 प्रभागीय कार्यालय संचालित हैं। अत: कुल 38 कार्यालय हैं, जिनके व्यय इसमें सम्मिलित नहीं है।

निगम कर्मचारियों द्वारा अय्याशी में की गई 46 लाख 75 हजार 195 में से 17 लाख 39 हजार 681 रुपए का चैक से भुगतान किया गया है, जबकि 29 लाख 37 हजार 514 रुपए की भारी भरकम राशि का नकद भुगतान कर स्वत: ही उजागर हो गया है कि वन विकास निगम के कर्मचारियों के लिए कोई भी नियम-कायदे मायने नहीं रखते।

रुपए 46,75,195 में से 6,87,760 रुपए कार्यालय के विभिन्न अनुभागों जैसे एमडी चैंबर, जीएस चैंबर, ऑडिट अनुभाग, ईपीएपफ अनुभाग, लेखा अनुभाग आदि में चाय, नमकीन, बिस्किट आदि का व्यय है, जिसके लिए 314 बिल दिखाए गए हैं।

37 लाख 54 हजार 552 रुपए विभिन्न होटलों व रेस्टोरेंटों में लजीज व्यंजनों पर खर्च किए गए हैं, जिसके 380 बिल हैैं।

पूर्व में सूचित व्यय 2,32,883 रुपए मीटिंग हॉल में साफ-सफाई एवं जलपान (जिसमें अधिकांश काजू, बादाम, किशमिश, पिश्ता आदि ड्राईफ्रुट) के बिल हैं।

निगम कर्मचारियों की शानो-शौकत का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि सरकारी खजाने से मेहमानों को दोपहर 2 बजे देहरादून के अत्यंत महंगे क्रॉस रोड  मॉल में शराब पिलाई जाती है। इसकी पुष्टि बिल संख्या 12 जनवरी 2016, 20 जनवरी 2016, टेवरन क्रॉसरोड मॉल का बिल संख्या बी/17244 दोपहर 2 बजे, दिनांक 20.01.16 करता है।

इतना ही नहीं 30 दिसंबर 2015 को होटल ऐटलानटिस क्लब पंडितवाड़ी देहरादून में 1 लाख 21 हजार 4 सौ रुपए का भोजन किया गया। जिसमें मनोरंजन के लिए 5 हजार में लाइव सिंगिंग का आयोजन भी करवाया गया था। यह सरकारी धन की बर्बादी नहीं तो और क्या है।

अमर सिंह धुंता कहते हैं कि वर्ष में अवकाश आदि को कम कर दें तो लगभग 270 से 275 दिन ही कार्यदिवस के रूप में बचते हैं। वन विकास निगम में प्रत्येक कार्यदिवस पर सरकारी आगंतुक, बैठकों के नाम पर विभिन्न होटलों एवं रेस्टोरेंट के बिल बनाकर सरकारी धन को ठिकाने लगाया गया है।

दारू और मुर्गा मुसल्लम में उड़ाए लाखों

निगम अधिकारियों के मेहमाननवाजी का इससे बेहतरीन उदाहरण और क्या हो सकता है कि वह सरकारी धन से किस तरह मेहमानों को खाने में माही फिश, गोल्डन फिश, तंदूरी चिकन, बटर चिकन, चिली चिकन, चिकन, मटन प्लेटर, मटन रोगन जोश, लेम्ब रोगन जोश, रारा गोश्त, मटन बिरयानी, चिकन बिरयानी व ब्लेंडर्स प्राइड के पैग पिलाते हैं। 16.10.16, 18.4.16, 31.2.17, 4.2.17, 29.3.16, 15.4.16, 13.5.16, 6.8.16,16.6.16, 8.6.16, 13.8.16, 20.8.16 एवं 4.8.16 के बिल इस बात की पुष्टि करवाने के लिए पर्याप्त हैं।

यही नहीं एक ही तिथि को दो-तीन रेस्टोंरेंटों के अलग-अलग बिल इस गड़बड़झाले पर और संदेह पैदा करवाते हैं। उदाहरण के लिए बाउचर 20 जुलाई 2015 को बिल संख्या 334, दिनांक 29.6.15 होटल ऐटलांटिस क्लब में रु. 86 हजार, पुन बाउचर सं. 67/अगस्त/15, बिल संख्या 2175, वाक इन वुड्स रेस्टोरेंट रु. 22050, दिनांक 29.6.15 जैसे दो बिल बताते हैं कि कहीं न कहीं कर्मचारियों ने सरकारी धन को ठिकाने लगाया है।

11 नवंबर 2016 को बाउचर संख्या 39/दिस/16 में 50 लंच पैक रु. 27562 के हैं। कार्यालय कर्मचारियों को खनन कार्य में देरी होने के कारण यह लंच पैक मंगाए गए, जबकि विश्वस्त कार्यालयी सूत्रों मुताबिक खनन अनुभाग में मात्र 3 कर्मचारी ही कार्यरत हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि निगम कर्मचारियों ने किस तरह भ्रष्टाचार को अंजाम दिया है।

दीवाली गिफ्ट में निकाला दीवाला

30 दिसंबर 2015 को एक बैठक पर 1 लाख 21 हजार 4 सौ रुपए का खर्चा दर्शाया गया है। पुन: 11 जनवरी 2016 को बैठक पर 1 लाख 48 हजार 5 सौ रुपए का व्यय किया गया। मात्र 11-12 दिनों के अंतराल में ही दो बैठकें करने के औचित्य पर भी कई सवाल खड़े होते हैं।

दीपावली गिफ्ट दिनांक 8.11.15, 9.11.15, 10.11.15 एवं 11.11.15 को 64959 रुपए के कुल 72 बॉक्स एवं 25.10.16 को रुपए 60 हजार के दीपावली गिफ्ट खरीदे गए। इन दो वर्षों में दीपावली के अवसर पर सरकारी धन को जिस तरह पानी की तरह बहाया गया है, उससे यह समझा जा सकता है कि निगम कर्मचारियों ने बताया है कि उन्हें राज्यहित से कोई सरोकार नहीं है।

इसके अलावा 11.11.15 को ही 18750 रुपए के गिफ्ट तत्कालीन वन मंत्री उत्तराखंड एवं उनके स्टाफ  के लिए खरीदा जाना भी जांच का विषय है।

30 जून 2015 को बाउचर संख्या 27/जुलाई/15 में 24 हजार 750 रुपए के 15 शॉल तत्कालीन मुख्यमंत्री को भेंट किए गए हैं। मुख्यमंत्री के सम्मान में उन्हें एक शॉल देना ही पर्याप्त है। इस तरह  15 शॉल को खरीदने के पीछे धन का वारे-न्यारे करना ही अधिक प्रतीत होता है।

एक तथ्य यह भी है कि जून 2016 में उत्तराखंड महालेखाकार के ऑडिटरों को मुख्यालय में ऑडिट के दौरान 70 हजार रुपए का भोजन करवाया गया, जबकि ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है कि सरकारी खर्चों पर ऑडिटरों को भोजन करवाने की कोई प्रावधान ही नहीं है। स्पष्ट है कि ऑडिटरों की आवाभगत कर उन्हें खुश कर निगम की उनसे मनवांछित रिपोर्ट बनवाने की मंशा प्रतीत होती है।

आयकर विभाग के नियमानुसार वर्षभर में किसी भी संस्था को या फर्म को 20 हजार से अधिक का नकद भुगतान नहीं किया जा सकता। इससे अधिक नकद भुगतान पर टीडीएस काटे जाने का प्रावधान है, जो 2.5 प्रतिशत होता है, किंतु वन विकास निगम द्वारा लगभग 30 लाख रुपए का नकद भुगतान किया गया है। जिस पर कोई टैक्स या टीडीएस नहीं काटा गया है। इस तरह आयकर विभाग को 75 हजार की क्षति हुई है।

निगम के बजट में रातें रंगीन

निगम अधिकारियों के कुछ चहेते रेस्टोरेंट व होटल हैं, जहां से अक्सर भोजन, गिफ्ट, ड्राइफ्रुट व पार्टियां की जाती रही हैं। उनमें टूलिव रेस्टोरेंट, पंजाबी एसेंस, माई वाइफ  प्लेजर्स, आंगन रेस्टोरेंट, उद्दपि रेस्टोरेंट, काउंटडाउन रेस्टोरेंट, प्रेसिडेंट होटल, ग्रिल रेस्टोरेंट, केएफसी, होटल साइना इन, बीके अग्रवाल सप्लायर्स, कॉफी डे, नैनी बैकर्स, एलोरा बैकर्स, कुमार स्वीट्स, ब्लैक पेपर, न्यू एज ईटावुल, तिरुपति रेस्टोरेंट, क्रॉस रोड मॉल, पैसिफिक होटल व मधुबन होटल शामिल हैं।

इन तमाम होटलों व रेस्टोरेंटों के बिलों के समय व दिनों को देखने से पता चलता है कि निगम कर्मचारी कभी ऑन ड्यूटी के वक्त होटलों में अय्याशी कर रहे थे तो अधिकांश बार सेटरडे, सेकंड सेटरडे व रविवार को महंगी पार्टियां कर जमकर जश्न मनाया गया। कई बिलों को देखने से यह भी पता चलता है कि वन विकास निगम के कर्मचारियों ने छुट्टी के बाद सायंकाल से लेकर 10, 11, 12 व 1 बजे रात्रि तक इन होटलों व रेस्टोरेंटों में निजी पार्टियां कर अपने शौक पूरे किए, जबकि इसका बिल भुगतान वन विकास निगम के खजाने से किया गया।

अब चूंकि उत्तराखंड में जीरो टोलरेंस वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार सत्तासीन है और ये घोटाला भाजपा सरकार के उदय होने से पहले के कांग्रेसराज के दो वर्षों में अंजाम दिया गया है। ऐसे में जीरो टोलरेंस वाली सरकार की जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है कि वह इस घोटाले व गड़बड़झाले की उच्च स्तरीय जांच करवाकर प्रदेशवासियों के सम्मुख वन निगम अधिकारियों व कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को उजागर करे।

अब देखने वाली बात यह होगी कि जीरो टोलरेंस का दावा करने वाली उत्तराखंड की त्रिवेंद्र रावत सरकार घोटाले, मनमानियों व गड़बड़झालों के इन मगरमच्छों को किस तरह इनकी करतूतों का सबक सिखाती है!

 

”मैंने करीब एक माह पूर्व ही इस कार्यालय में कार्यभार ग्रहण किया है। ऐसे में यहां के व्यय व अन्य खर्चों से संबंधित जानकारी मेरे संज्ञान में नहीं है।”

– जे.एस. सुहाग

महाप्रबंधक, वन विकास निगम, देहरादून

”वन विकास निगम के अफसर स्वायत्तशासी निकाय होने के चलते वन विकास निगम में जमकर घोटाले कर रहे हैं। वन निगम खनन से लेकर अन्य योजनाओं में भी

व्यापक घपले-घोटालों में लिप्त है।”

– अमर सिंह धुंता, आरटीआई एक्टिविस्ट


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