कुलदीप एस राणा
फीस निर्धारण कमेटी ने एसजीआरआर मेडिकल विश्वविद्यालय पर साढे तीन करोड़ का जुर्माना तो लगा दिया, किंतु सरकार एसजीआरआर को जुर्माना भरने के लिए बाध्य नहीं कर सकती। इसमें कई कानूनी पेंच आड़े आ रहे हैं और सरकार का नया फरमान फिर से सरकार के गले पड़ने वाला है।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की स्पष्ट गाइडलाइन है कि एडमिशन लेते वक्त ही स्टूडेंट को यह पता होना चाहिए कि कॉलेज की कितनी फीस निर्धारित की गई है, किंतु फीस निर्धारण कमेटी के द्वारा फीस निर्धारित न होने पर हुए बवाल के कारण पूरे देश भर में उत्तराखंड सरकार की छवि खराब हुई है। सरकार को कई तरह के आरोपों का सामना करना पड़ा है। इसके बावजूद कोई चेतने को तैयार नहीं है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हालिया फरमान है।
16 अप्रैल की बैठक में शासन ने फीस कमेटी के नोडल अधिकारी डॉ रणवीर सिंह की अध्यक्षता में एक बैठक आयोजित की गई थी, जिसमें प्रति छात्र 10लाख रुपए का जुर्माना लगाने का फैसला लिया गया था और इस बात की सिफारिश की गई थी कि नियमों के उल्लंघन पर मेडिकल कॉलेज की मान्यता रद्द करने को कहा जाए।
इन सब फरमानों के बावजूद फीस निर्धारण कमेटी का जो मुख्य कार्य था, वह उसने नहीं किया। यह कमेटी अभी तक भी 2017-18 बैच के छात्रों की फीस के विषय में कोई निर्णय नहीं ले पाई है।
पर्वतजन के सूत्रों के अनुसार यह कमेटी फीस निर्धारण करने की निर्धारित योग्यता नहीं रखती है। क्योंकि इस फीस कमेटी के चेयरमैन गुरमीत सिंह पहले ही इस्तीफा दे चुके हैं।
सवाल यह है कि जब यह कमेटी फीस ही निर्धारित नहीं कर सकती तो फिर जुर्माना किस आधार पर लगा सकती है ! जब कि यह मामला पहले से ही कोर्ट में चल रहा है।
जाहिर है कि सरकार ने बिना किसी होमवर्क के फिर से अपनी किरकरी कराने की तैयारी कर ली है।
यूनिवर्सिटी के जनसंपर्क अधिकारी भूपेंद्र रतूड़ी हाई कोर्ट के निर्देशों का हवाला देते हुए कहते हैं कि हाई कोर्ट ने अपीलीय प्राधिकरण को 6 हफ्ते के भीतर मामले का निस्तारण करने के लिए कहा था। ताकि फीस निर्धारित की जा सके किंतु सरकार ने अभी तक भी अपीलीय प्राधिकरण का गठन नहीं किया है और ना ही फीस निर्धारण कमेटी ने कोई फीस फिक्स की है।
भूपेंद्र रतूड़ी कहते हैं कि जो फीस सरकार ने तय की थी वह 6 साल पुरानी है, जबकि हर 3 साल में फीस रिवाइज होनी चाहिए। बकौल रतूड़ी,-“फीस कमेटी जो भी फीस तय करेगी वह वही फीस छात्रों से लेंगे।”
इसलिए बैकफुट पर है सरकार
इस मामले को शुरू से ही शासन और सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया। जिसके कारण सरकार पूरी तरह से बैकफुट पर है। जबकि फीस निर्धारण कमेटी को पर्याप्त अधिकार है कि वह जितनी मर्जी फीस फिक्स करें। यदि किसी को फीस निर्धारण से संबंधित कोई शिकायत है तो उसके लिए अपीलीय प्राधिकरण मे जाने का प्रावधान है। और यदि फिर भी किसी को कोई राहत नहीं मिलती तो फिर वह हाईकोर्ट जाने के लिए स्वतंत्र रहता है। किंतु अहम सवाल यह है कि जब फीस फिक्सेशन कमेटी ने ही कोई फीस तय नहीं की तो फिर अपीलीय प्राधिकरण अथवा हाई कोर्ट भी इसमें कुछ खास नहीं कर सकते।
इस मामले को थोड़ा पीछे से समझें तो सरसरी तौर पर शासन के अधिकारियों की बड़ी लापरवाही और नासमझी नजर आती है।
मामला यह है कि वर्ष 2016 बैच से पहले छात्रों के लिए यह फीस 5 से 6 लाख रखी गई थी। वर्ष 2016 के लिए मेडिकल यूनिवर्सिटी ने इस फीस को 17 लाख 90 हजार करने का प्रस्ताव शासन को भेजा। किंतु शासन की फीस फिक्सेशन कमेटी का गठन न हो पाने से शासन ने इसकी अनुमति नहीं दी। ऐसे में मेडिकल यूनिवर्सिटी हाई कोर्ट गई और हाई कोर्ट ने 6 सप्ताह के अंदर फीस निर्धारण कमेटी के गठन करने का आदेश दिया।
मेडिकल यूनिवर्सिटी ने आर्थिक मजबूरियों का हवाला देते हुए डेढ़ सौ छात्रों को बढ़ी हुई फीस देने के लिए कहा किंतु सिर्फ 35 ने ही बढ़ी हुई फीस जमा कराई। भूपेंद्र रतूड़ी कहते हैं कि यूनिवर्सिटी प्रबंधन ने किसी भी छात्र से जबरन फीस नहीं ली। वर्ष 2016 में जिन 35 छात्रों ने बढ़ी हुई फीस दी थी, उनकी फीस भी 2017 और 18 में एडजस्ट कर दी गई है। 2016 के बाद ऐसे किसी भी छात्र से कोई फीस नहीं ली गई। इन छात्रों का कोर्स वर्ष 2021 में खत्म होगा।
शासन और सरकार की लापरवाही को लेकर कुछ अहम सवाल खड़े होते हैं।
पहला सवाल तो यही है कि जब मामला पहले से ही हाईकोर्ट में विचाराधीन है तो इस ताजा जुर्माने के नोटिस का औचित्य और वैधानिकता क्या है ?
दूसरा सवाल यह है कि वर्ष 2016 में ही जब फीस बढ़ाई गई थी तो हाईकोर्ट के निर्देश के बाद भी अपीलीय कमेटी का गठन क्यों नहीं किया गया ? यदि तभी अपीलीय कमेटी का गठन हो चुका होता तो छात्रों के आंदोलन की नौबत ही नहीं आती और ना ही कोई अनिश्चय की स्थिति रहती। किंतु अपीलीय कमेटी का गठन 31 जनवरी 2018 को किया गया। अपीलीय कमेटी बनी तो अब फीस निर्धारण कमेटी के चेयरमैन इस्तीफा दे चुके हैं।
तीसरा बड़ा सवाल यह है कि हाई कोर्ट के निर्देशों के बावजूद वर्तमान तक फीस फिक्सेशन कमेटी ने फीस का निर्धारण क्यों नहीं किया है। फीस निर्धारित न होने के कारण ही हालत यह है कि वर्ष 2016 में भी एडमिशन एफिडेविट पर हुए थे। वर्ष 2017 में भी एडमिशन एफिडेविट पर हुए और वर्ष 2018 के एडमिशन भी एफिडेविट पर हुए हैं। छात्रों ने एफिडेविट दिए हैं कि जो भी फीस निर्धारण कमेटी करेगी, वही फीस उन्हें मान्य होगी। बड़ा सवाल यह है कि यह एफिडेविट पर एडमिशन की परिपाटी कब तक चलती रहेगी ? आखिर शासन और सरकार मैं बैठे फीस फिक्सेशन कमेटी के सदस्यों को फीस निर्धारण करने में दिक्कत क्या है ?
चौथा सवाल यह है कि गुरु राम राय मेडिकल कॉलेज को 6 अप्रैल 2017 को मेडिकल यूनिवर्सिटी का दर्जा मिला था। जब जॉली ग्रांट स्थित हिमालयन यूनिवर्सिटी स्वयं एमबीबीएस की फीस का निर्धारण करती है तो एसजीआरआर उसी दर्जे की यूनिवर्सिटी होने के बावजूद स्वयं फीस निर्धारण क्यों नहीं कर सकती ? आखिर शासन इन दोनों यूनिवर्सिटी की फीस निर्धारण में किन बिंदुओं पर भेदभाव कर रहा है? यदि स्वयं फीस निर्धारण करने में यूनिवर्सिटी से शासन को आपत्ति थी तो कभी जौलीग्रांट को इस तरह का नोटिस क्यों नहीं भेजा गया।
गौरतलब है कि इससे पहले भी हिमालयन यूनिवर्सिटी और सुभारती यूनिवर्सिटी में बिना फीस निर्धारण कमेटी की अनुमति के निर्धारित फीस से अधिक फीस ली गई लेकिन उन पर शासन ने कोई कार्यवाही नहीं की आखिर यह भेदभाव क्यों?
पांचवा सवाल यह है कि यह यूनिवर्सिटियां होटल मैनेजमेंट, लॉ और इंजीनियरिंग के कोर्सेज भी संचालित करा रही हैं तो सिर्फ मेडिकल की फीस निर्धारण पर ही क्यों बवाल मचा है ? आखिर सरकार या फीस निर्धारण कमेटी इन अन्य विषयों की फीस के विषय में कोई चिंता क्यों नहीं करती ?
छठा सवाल यह है कि पहले से ही पूरी तैयारी क्यों नहीं की गई?
सातवां सवाल यह है कि जब फीस निर्धारण कमेटी के चेयरमैन रिटायर्ड जस्टिस गुरमीत सिंह के इस्तीफे के बाद कोई दूसरा चेयरमैन नहीं बना तो इस कमेटी की वैधानिकता क्या है तथा इसके फरमान का क्या औचित्य रह जाता है?
वर्ष 2018 बैच की काउंसलिंग के लिए एसजीआरआर यूनिवर्सिटी तथा स्वामी राम हिमालयन यूनिवर्सिटी ने 19 लाख रुपए फीस का प्रस्ताव शासन को भेजा था। इसे शासन ने बाकायदा स्वीकार भी कर लिया और यह बढ़ी हुई फीस HNB चिकित्सा विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर भी डिस्प्ले कर दी गई थी। 20 मार्च से 4 अप्रैल तक यह फीस सरकार की वेबसाइट पर डिस्प्ले रही। किंतु 12 अप्रैल को काउंसलिंग की डेट से ठीक पहले शासन ने वेबसाइट से इस फीस का डिस्प्ले हटा कर पिछले साल वाली फीस डिस्प्ले कर दी। इस से छात्रों में काफी आक्रोश रहा और उन्हें एफिडेविट भरने को मजबूर होना पड़ा। पुरानी वाली फीस का डिस्प्ले देखते ही हिमालयन यूनिवर्सिटी ने सभी अख़बारों में विज्ञप्ति प्रकाशित करा दी कि 2018 के एडमिशन नई बढ़ी हुई फीस पर ही किए जाएंगे।
यह देख कर एसजीआरआर यूनिवर्सिटी भी 10 अप्रैल को कोर्ट गई और हाईकोर्ट के आदेश से 11 अप्रैल को एसजीआरआर ने भी अखबारों में बढ़ी हुई फीस लिए जाने के पब्लिक नोटिस प्रकाशित करा दिए। इस पर स्टूडेंट भी कोर्ट गए लेकिन हाई कोर्ट ने आदेश दिए कि फीस फिक्सेशन कमेटी जल्द फीस निर्धारित करें, तब तक कोर्ट के अग्रिम आदेशों के अधीन फीस की लास्ट डेट को देखते हुए पुरानी फीस पर ही एडमिशन ले लिए जाएं। किंतु यह एडमिशन की फीस कोर्ट के निर्णय के अधीन होगी।
इन सारे सवालों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि इस मुद्दे पर सरकार की पैनी नजर न होने के कारण न तो फीस फिक्सेशन कमेटी ने इस पर कोई ध्यान दिया और न ही शासन के अधिकारियों ने इसकी गंभीरता समझी। परिणाम स्वरुप फीस निर्धारण न हो सकी और एक कंफ्यूजन बना रहा। मेडिकल कॉलेजों ने इसका ठीकरा सरकार के ऊपर फोड़ दिया और कहा कि फीस निर्धारण कमेटी जो भी निर्णय करेगी वह मान मान लेंगे। स्टूडेंट भी कहते रहे कि यदि सरकार पहले ही फीस तय कर लेती तो या तो वह कहीं और जाकर कम फीस वाले कॉलेजों में एडमिशन लेते अथवा कम फीस वाले कोई अन्य कोर्स कर लेते।
जाहिर है कि नीट क्वालीफाई करके दाखिला लेने आए छात्रों की शिकायत वाजिब है। नीट एक राष्ट्रीय परीक्षा है। ऐसे में यदि सरकार जरा भी संजीदा होती तो आसपास के अन्य राज्यों के प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों का फीस डाटा लेकर अपने यहां भी तुलनात्मक फीस निर्धारित कर सकती थी। किंतु सरकार इस मामले को लेकर कितनी लचर रही इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकार ने जिन बांड के तहत मेडिकल छात्रों को 5 साल तक निशुल्क पढ़ाया था, उन बांड की सेवा शर्तें इतनी कमजोर रखी कि सरकारी खर्चे पर डॉक्टरी की पढ़ाई कर चुके अधिकांश छात्रों ने बांड की शर्तें नहीं मानी और ना ही सरकार उन पर कोई कार्यवाही कर पाई।
जाहिर है कि सरकार न तो अपनी ओर से कोई फीस निर्धारण कर पा रही है और न ही जन दबाव के कारण मेडिकल कॉलेजों को फीस निर्धारण करने की छूट दे पा रही है। एक बड़ा तथ्य यह है कि फीस फिक्सेशन कमेटी में चेयरमैन पंजाब हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस गुरमीत सिंह के अलावा अपर मुख्य सचिव रणवीर सिंह और चिकित्सा शिक्षा के अपर सचिव हैं। इनमें से जब चेयरमैन गुरमीत सिंह इस्तीफा दे चुके हैं तो ऐसे में फीस फिक्सेशन कमेटी की क्या वैधानिकता रह जाती है ? और यदि कमेटी के वैधानिक नहीं है तो यूनिवर्सिटी पर जुर्माना लगाए जाने से संबंधित कमेटी के आदेश की कितनी वैधानिकता है! यह अपने आप में अहम सवाल है। यदि गुरु राम राय यूनिवर्सिटी इस जुर्माने के आदेश के खिलाफ फिर से हाईकोर्ट चली गई और हाईकोर्ट कमेटी के निर्णय को रद्द कर देता है तो सरकार की एक बार फिर से किरकिरी होनी तय है।