हरिश्चन्द्र चंदोला
खबरों के अनुसार बीते कुछ महीनों की भारी बर्षा ने उत्तराखंड राज्य में दस हज़ार हेक्टेयर में लगी फसलों की भारी क्षति कर दी है।, जबकि उन दिनों वर्षा-काल समाप्त नहीं हुआ था। यह राज्य की फसल उगानेवाली भूमि का कितना प्रतिशत भाग होगा, यह नहीं बताया गया। क्या यह उसका दस प्रतिशत हो सकता है?
यहां पिछली शताब्दी में टिहरी बांध के विस्थापितों का अभी तक पूरा पुनर्वास नहीं हो पाया है। क्या अब प्राकृतिक आपदा में ध्वस्त खेती के स्वामियों का पुनर्वास हो पाएगा, संभव नहीं लगता। वनों से भरे इन पहाड़ों पर नई खेती के लिए जगह है ही नहीं और जंगलों को पर्यावरण बचाने के चलते सरकार काटने नहीं देगी।
भारी वर्षा के बाद वातावरण का पूरा गुबार धुल गया है। ऊंचाइयों में चट्टानें कांच की भांति चमचमाने लगी हैं। पेड़ों के पत्ते धुलकर अपने असली रंगों में झिलमिलाने लगे हैं और उनके नीचे वन्य पशु भी झुण्डों में घास चरते या इधर-उधर जाते दिखाई देते हैं।
प्रकृति अपनी शांति तथा मनोहरतम छटा में दिखाई देती है। केवल उसके प्रकोप से ध्वंस हुए पर्वतीय किसान उद्विग्न हैं कि वे खेतों के बहनेवाद अब अपने खाने के लिए कहां बीज वोऐंगें? जनता को बसाने का काम कहां हो सकेगा? यह स्थिति और अधिक गंभीर होती जाएगी और कब, कितने बर्षौं बाद इसका समाधान हो पाएगा, कहा नहीं जा सकता।
इस वर्षाकाल के बाद पहाड़ों की रंगत बदल गई है। उनके ऊपर की पतली मिट्टी, जिस पर घास उगती थी तथा कहीं-कहीं सदाबहार बड़े जंगल भी खड़े थे, नहा-धो कर साफ-लुभावने लगते हैं। उनके नीचे चट्टानें चमचमाने लग गई हैं। पता नहीं उन पर घास उगने लायक धूल पुनः कब जम पाए? इस बीच बची घास पर आश्रित हिरण, भालू, बंदरों आदि वन्य पशुओं के झुंड इधर-उधर घूमाते दिखाई देते हैं। वे कभी बस्तियों के पास आ जाते हैं तथा कभी खेतों में घुस कर् अपनी भोजन जैसी समस्याओं को सुल्झाने में लगे रहते हैं। इससे किसानों तथा वन्यजीवों का संघर्ष और अधिक तीब्र हो जाएगा? गांव के लोग काफी समय से चिल्ला रहे हैं कि उनकी फसलों का वन्य्ाजीवों से बचाव नहीं हो पा रहा है।
वन विभाग किसानों को पटाके बांट देररात को उनकी भयानक ध्वनियों से वन्यजीवों को भगाने का काम करने को कहता है, लेकिन होता यह है कि पशु कुछ समय के लिए भाग अवश्य जाते हैं, लेकिन फिर खाने के तलाश में खेती की ओर लौट आते है, और सुबह किसान देखता है कि उसके लगाए सब आलू तथा फल जंगली सुअर तथा भालू उधेड़-तोड़ कर खा चुके होते है।
इस प्रकार की समस्याएं, शिकायतें हजारों में वन अधिकारियों के पास आती रहती हैं जिनका अंत नहीं हुआ है।
समस्या केवल खेती की ही नहीं है। हिंसक पशु जंगलों में अपना आहार पर्याप्त न होने पर, मनुष्यों को भी मार खाने लग जाते है। जब कई जगहों त्र्ााहि-त्र्ााहि मचने लगती है और सरकार के पास समाधान नहीं होता कि वह क्या करे? वह केवल वर्षा से हुई क्षति का आंकलन तथा नदियों द्वारा बहाई भूमि का आंकलन करने में लगी रहती है। जो कभी पूरा नहीं हो पाता। कतनी भूमि की क्षति हुई, कतने मकान तथा खेत बहे उसके आंकड़े जोड़ने में अधिकारी लगे रहते हैं, जो काम पूरा नहीं होता। फिर उसे देखना पड़ता है कि उस क्षति का क्या मुआवज़ा दिया जाना चाहिए और क्या निवारण करना चाहिए। पहले से सोचने-समझने की उसकी राज्य में परम्परा नहीं है। अभी तक की राज्य सरकारें क्षति के आंकड़े देनेे केंद्र सरकार के पास जा तथा आर्थिक सहायता मांगने दौड़ लगाती रहती दिखी है। लेकिन समाधान नहीं मिल पाता। केन्द्र भी अधिकतर असमर्थ रहता है।
राज्य के पास प्रत्येक विषय पर आंकड़े होने चाहिए, लेकिन उनको एकत्रित करने में इतना समय लगता है कि तब तक परिस्थितियां बदल जाती हैं और समस्याओं का स्वरूप भी और पुराने निदान भी बेकार हो जाते है।
राज्य के पास प्रत्येक क्षेत्र में क्या-क्या है और उसका कैसे तथा कितना उपयोग किस स्थिति में किया जा सकता है, उसका अनुमान अधिकारियों के पास होना आवश्य्ाक है। अभी तो यही जानने में महीनों-वर्षों लग जाते हैं।