हाईकोर्ट ने चीफ स्टैंडिंग काउंसिल परेश त्रिपाठी पर कोर्ट को गुमराह करने और उन्हें जानबूझकर नजरअंदाज करने को लेकर जमकर लताड़ लगाई, और उन्हें कोर्ट की अवमानना का नोटिस जारी करने का आदेश दे दिया।
हाई कोर्ट के इस आदेश से इस बात की भी अच्छे से पोल खुल गई है कि जिन वकीलों को सरकार ने अपने केस की पैरवी करने के लिए भारी भरकम तनख्वाह भक्तों और कर्मचारियों के फौज फाटे के साथ तैनात किया हुआ है, वे केस क्यों हार जाते हैं!
सरकार की किरकिरी और आर्थिक नुकसान क्या वाकई हमारे पैरवीकारों की मिलीभगत के कारण उठाना पड़ता है !
चीफ स्टैंडिंग काउंसिल परेश त्रिपाठी ने मुख्य शिक्षा अधिकारी रुद्रप्रयाग के एक झूठे शपथ पत्र को कोर्ट में सही ठहराया तो न्यायमूर्ति हत्थे से उखड़ गए।
मामला दरअसल यह था कि 2 अध्यापकों ने कोर्ट से यह गुहार लगाई थी कि शिक्षा विभाग ने उन्हें वर्ष 2011 से वेतन नहीं दिया है। इस पर कोर्ट ने उन्हें 50% एरियर के साथ वेतन जारी करने का आदेश दिया था। किंतु जब वेतन नहीं मिला तो अध्यापक दोबारा से कोर्ट गए इस पर मुख्य शिक्षा अधिकारी रुद्रप्रयाग ने झूठा शपथ पत्र कोर्ट में जमा कर दिया। इस पर जब न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह ने चीफ़ स्टैंडिंग काउंसिल को यह मामला स्पष्ट करने के लिए बुलाया तो चीफ स्टैंडिंग काउंसिल परेश त्रिपाठी ने गैर जिम्मेदारी से बिना देखे परखे कोर्ट को कह दिया कि शपथ पत्र सही है।
कोर्ट ने सुनवाई की एक और तारीख तय की लेकिन इस सुनवाई में परेश त्रिपाठी पैरवी के लिए उपस्थित नहीं हुए। इस पर भड़के न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह ने परेश त्रिपाठी के खिलाफ कोर्ट को गुमराह करने पर अवमानना का नोटिस जारी कर दिया और तगड़ी फटकार लगाते हुए आदेश दिया कि भविष्य में इस तरह की गलती न दोहराई जाए।
कोर्ट ने स्टैंडिंग काउंसिल अनिल डबराल को भी एफिडेविट की ड्राफ्टिंग सही तरीके से न करने पर भी नाराजगी जताई और पाया कि स्टैंडिंग काउंसिल ने काउंटर एफिडेविट तैयार करने में भी गंभीर अनियमितता और गुमराह करने वाली बातें लिखी थी। कोर्ट ने इस पर भी नाराजगी जताई कि स्टैंडिंग काउंसिल की कार्यशैली तथा कोर्ट में हाजिर न रहने की प्रवृत्ति में भी कोई सुधार नहीं आया है और इसे मिस कंडक्ट बताते हुए गंभीर संज्ञान लिया।
कोर्ट ने अपने आदेश में लिखा कि राज्य सरकार के वकील रिकॉल एप्लीकेशन पर बहस और एफिडेविट भरने जैसे कार्यों को भी बहुत ही गैरजिम्मेदारी से करते हैं।
कोर्ट ने इस बात पर भी नाराजगी जताई कि 4 अप्रैल 2018 को जबकि इसकी तारीख फिक्स की गई थी तो न तो मुख्य महाधिवक्ता एस एन बाबुलकर कोर्ट में हाजिर थे और ना ही चीफ स्टैंडिंग काउंसिल परेश त्रिपाठी हाजिर हुए।
एक और मजेदार बात यह है कि परेश त्रिपाठी ने कोर्ट को यह तो कह दिया कि एडवोकेट जनरल बीमार हैं लेकिन कोर्ट ने यह बात पकड़ ली और अपने आदेश में इस बात का संज्ञान लेते हुए लिख दिया कि एडवोकेट जनरल उस दिन कोर्ट कैंपस में ही थे और दूसरी कोर्ट के कुछ केस में हाजिर भी हुए थे। न्यायमूर्ति ने अपने आदेश में लिखा कि चीफ़ स्टैंडिंग काउंसिल उनकी कोर्ट में हाजिर होने से डरते हैं और जब वह अकेले सुनवाई करते हैं तो वह क्यों हाजिर नहीं होते उन्हें ही बेहतर पता होगा।
एक आम प्रचलन यह देखने में आया है कि सरकारें चाहे किसी भी पार्टी की रही हों, वह वकीलों की तैनाती योग्यता के आधार पर करने के बजाए सेटिंग सेटिंग से करती है। इससे यह सरकारी वकील पैरवी करने के बजाए सरकार को ही नुकसान पहुंचाते हैं। न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह की ताजा फटकार से सरकार के पास भी अपने पैरवी कारों की समीक्षा का एक मौका जरूर है। वरना हमारे वकीलों की जिस तरह की रील धुली है भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति और अधिक होने की आशंका है।