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अंधकारमय क्षेत्रों की चिंता नहीं

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हरिश्चन्द्र चंदोला//

उत्तराखंड राज्य जिसे एक समय ऊर्जा प्रदेश नाम देने की बात हो रही थी, उसका एक उत्तरी बड़ा भाग दो महीनों से अंधकार में रह रहा है। अब भी उसके रुद्रप्रयाद से उत्तरी सरहदी क्षेत्र में सुचारूरूप से बिजली नहीं आ पा रही है। एक मिनट आती है और फिर कई घंटे गुल! बिजली विभाग से पूछने पर पहले बताया जाता था कि वर्षा के कारण रुद्रप्रयाग जनपद में पेड़ों के टूटने से लाइन अवरुद्ध हो गई थी, जिसकी मरम्मत की जा रही है।
जोशीमठ स्थानीय बिजली दफ्तर का कहना है कि 5 अगस्त से लाइन चमोली में टूटी है, जिसकी मरम्मत की जा रही है। अब देखना यह है कि अंधेरे में जी रहे ग्रामीणों को रोशनी के दर्शन कब तक हो पाते हैं!
ठीक जोशीमठ के नीचे जय प्रकाश कंपनी 4०० मेगावाट की जल विद्युुत परियोजना है, लेकिन यह सब उत्पादन इस क्षेत्र से 3०० किलोमीटर नीचे बहादराबाद, बिजली ग्रिड में भेज दिया जाता है। राज्य सरकार के कंपनी से हुए समझौते के अनुसार कंपनी को उसका 12 प्रतिशत उत्पादन राज्य को देना होता है, लेकिन यह भाग उत्पादन क्षेत्र से नहीं, नीचे बहादराबाद से दिया जाता है।
इसका अर्थ हुआ कि बिजली को पहले 3०० किलोमीटर नीचे ले जाकर फिर उसे उतनी ही दूर वापस लाकर उपभोक्ताओं को वितरित किया जाता है। लाने-ले जाने में बिजली का कितना क्षरण होता है, जिसे ‘ट्रंासमिशन लॉस’ कहा जाता है। उसके आंकड़े उत्पादन या वितरण कंपनियों ने अभी तक नहीं दिए हैं। शायद जितना क्षरण होता है, उससे जोशीमठ जैसे एक-दो शहरों की बिजली आपूर्ति हो सकती थी। समझौते के समय भी मैंने लिखा था कि 12 प्रतिशत बिजली नीचे बहादराबाद न ले जाकर यहीं इस क्षेत्र में वितरित की जाए, लेकिन उस पर कोई सुनवाई नहीं हुई।
बिजली सुचारून रहने के कारण कई वर्र्षों से राज्य के उत्तरी क्षेत्र के उफ्भोक्ताओं को कुछ समय अंधकार में रहना पड़ता है।
सौर ऊर्जा यहां सबसे उपयुक्त साधन हो सकता था। उसका जिला मुख्यालय गोपेश्वर में खुला है, किन्तु उसनेे गावों के लिए बिजली नहीं बनाई है। केवल कुछ सीमांत गांवों जहां बिजली की लाइन नहीं पहुंची है, वहां कुछ रास्तों को सौर ऊर्जा से आलोकित किया है, सारे गांव को नहीं। वहां पहाड़ों की ऊंचाइयां खाली पड़ी हैं और वायु प्रवाह भी ़पंखे चलाने पर्याप्त हैं, जिनसे ऊर्जा आसानी तथा कम खर्चे पर प्राप्त की जा सकती है।
बहुत वर्ष पहले किसी विभाग ने बिजली बनाने दो वायु-चालित पंखे एक जोशीमठ और एक बद्रीनाथ की ऊंचाइयों में लगाए थे, जो शायद ठंड क कारण जम गए और एक मिनट भी नहीं चले। बहुत वर्षों से वह प्रेत की भांति उन ऊंचाइयों पर बेकार खड़े हैं।
वे क्यों नहीं काम किए पूछे जाने पर पता लगा कि ऊंचाइायों पर अधिक ठंड के कारण उनके वेयरिंग जम गए। नए काम करने वाले बेयरिंग सस्ते दामों में मंगाने किसी को नहीं सूझी। सरकारी काम ऐसे ही होते हैं।
अब सौर उर्जा के पैनल सस्ते में बन भारत में भी मिलते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व मैं हिमालय पार तिब्बत गया था। वहां घर ही नहीं चरवाहों के तंबू भी सौ-उर्जा से आलोकित थे। चीन यदि यह कर सकता है तो भारत, जिसे देहातों में अंधकार दूर करने की बड़ी आवश्यकता है, क्यों नहीं? भारत करोड़ों रुपए खर्च कर ‘मेक इन इंडिया’ के विज्ञापन लगातार दे रहा है, लेकिन तब से भारत ने क्या बनाया है और देशों में विकसित तकनीक के बारे में उसने अवश्य कहा है कि वह भी उसे बना सकता है, लेकिन बात करने के अलावा उसने तब से बनाया क्या है? ‘मेक इन इंडियाÓ की यदि छोटी, आसान तकनीक के सौर-ऊर्जा हवा द्वारा चालित पंखे नहीं बना पा रहा है तो कठिन विकसित तकनीक का क्या काम कर पाएगा और कम तकनीक की अन्य छोटी वस्तुएं होंगी, जो भारत बनाने में समर्थ होगा, लेकिन नारे के अलावा उसने और बनाया क्या है?
सेमी-कंडक्टर बनाने के अलवा उसने बनाया क्या है? वे भी उसकी ईजाद नहीं हैं। केवल बनाओ कहने से तो काम नहीं चल सकता! जापान ने नारा देकर यह काम नहीं किया है!
शायद तकनीक विकसित करने वाले विज्ञानी तथा धन-लगाने वाली कंपनियां सोचती हैं कि छोटे-मोटे काम क्यों आरंभ करें, जब बड़े किए जा सकते हैं, किंतु छोटे न किए जा सके तो बड़े क्या कर पाएंगे? अपनी आवश्यकताओं की छोटी चीजें यदि हम न बना पाएंगे तो बड़ी क्या बनाएंगे?

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