विधानसभा चुनाव 2017 के परिणामों ने कांग्रेस के लिए ऐसी खाई खोद दी है, जिसे पार करने से पहले उसे उस खाई को भरना भी होगा। कांग्रेस की यह हालत कांग्रेसियों द्वारा खोदे गए गड्ढ़ों के कारण ही हुई है, जहां वह आज स्वयं गिरे हुए हैं।
गजेंद्र रावत
उस कांग्रेस को आज मुखर होकर जनता के सवालों के लिए सड़क से लेकर सदन तक लडऩा चाहिए था, वो आज आपस में ही लड़ रहे हैं। विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष द्वारा विधानसभावार हार की समीक्षा और भविष्य की रणनीति पर विचार के लिए बैठकों में कांग्रेसियों के बीच सिर-फुटव्वल इस कदर बढ़ रहा है, मानो कांग्रेसी इस स्थिति के लिए कभी तैयार ही नहीं थे। कांग्रेस संगठन द्वारा हरिद्वार में बुलाई गई बैठक में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय से इस्तीफे की मांग पर हंगामा शांत भी नहीं हुआ था कि रुद्रप्रयाग में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक में एक बार फिर कांग्रेसी आपस में लड़ पड़े। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय द्वारा लाख प्रयास के बावजूद किसी ने उनकी एक न सुनी। आखिर में किशोर उपाध्याय को ही बैठक छोड़कर बाहर जाना पड़ा। कांग्रेस के भीतर हो रहे इस तीव्र असंतोष के लिए कांग्रेस के अनुशासन समिति के प्रदेश अध्यक्ष डा. केएस राणा का कहना है कि यह एक प्रायोजित विरोध कार्यक्रम है, जो हर हाल में हार का ठीकरा सिर्फ किशोर उपाध्याय पर फोडऩा चाहता है। केएस राणा की बात पर यकीन करें तो पार्टी के भीतर यह भी संदेश है कि शीघ्र ही अध्यक्ष के रूप में पहला कार्यक्रम पूरा करने के बाद किशोर उपाध्याय की पुन: अध्यक्ष बनने की संभावनाएं ही समाप्त कर दी जाएं।
सत्रह वर्षों के इतिहास में पहली बार विपक्ष में इतने कम विधायक हैं कि विपक्ष कहीं नजर ही नहीं आता। इंदिरा हृदयेश के नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद जब पहला सदन आहूत हुआ तो इंदिरा हृदयेश की उपस्थिति में कांग्रेस विधायक हरीश धामी, करन महरा, काजी निजामुद्दीन ने सदन में इस अंदाज में हंगामा काटा, मानो वे इंदिरा हृदयेश को विधान मंडल दल का नेता मानने को तैयार ही नहीं हैं। इन विधायकों के इस रवैये के बाद शहरी विकास मंत्री मदन कौशिक ने विपक्ष के इन विधायकों पर हमला बोला कि इन्हें एक वरिष्ठ महिला को नेता प्रतिपक्ष स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि वे अब नेता प्रतिपक्ष बन चुकी है। मदन कौशिक के इस बयान को भले ही उनके राजनैतिक चातुर्य के रूप में देखा गया, किंतु मदन कौशिक के जवाब पर इंदिरा हृदयेश के चेहरे की चमक वास्तव में बढ़ गई थी।
उत्तराखंड में विपक्ष पर समय-समय पर मित्र विपक्ष के आरोप लगते रहे हैं। एक ओर सरकार केे पास ५७ विधायकों का प्रचंड बहुमत है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस एक दर्जन से कम विधायक होने के बावजूद बिखरी हुई दिखाई देती है। यदि यही बिखराव जारी रहा तो कांग्रेस के लिए उत्तराखंड में जनता के सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य जैसे सवालों को आगे बढ़ाना और मुश्किल होगा। यदि कांग्रेस इन परिस्थितियों में भी मजबूत विपक्ष की भूमिका नहीं निर्वहन कर पाई तो इससे सरकार के निरंकुश होने का भी खतरा पैदा होगा। जिसका नुकसान कांग्रेस की बजाय उत्तराखंड की जनता को उठाना पड़ सकता है।
उत्तराखंड में अब तक के न्यूनतम स्कोर ११/७० पर खड़ी कांग्रेस अपनी इस दुर्दशा से सबक लेने की बजाय फिर सिरफुटव्वल में लगी है। ११ विधायकों के साथ विधानसभा में खड़ी कांग्रेस का झगड़ा एक बार फिर चौक चौराहों पर है। नेता प्रतिपक्ष पद की लड़ाई में इंदिरा हृदयेश को रोकने के लिए जिस प्रकार पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपने साले करन महरा के लिए लॉबिंग की और उसके बाद हरीश रावत के हनुमान कहे जाने वाले हरीश धामी ने कांग्रेस की कार्यशैली पर सवाल खड़े किए, उससे नहीं लगता कि आने वाले समय में कांग्रेस संभलने की स्थिति में है।
अधिकांश कांगे्रसियों के भाजपा में चले जाने के बाद कांग्रेस की स्थिति खराब हुई ही थी कि विधानसभा चुनाव के दौरान कई लोगों के निर्दलीय चुनाव लडऩे, कुछ के भितरघात करने और कुछ के षडयंत्र करने के कारण सैकड़ों लोगों को ६ साल के लिए निष्कासित कर दिया गया। एक ओर कांग्रेस के पास नेताओं का टोटा हो गया है, वहीं दूसरी ओर चुनाव लडऩे के चक्कर में दूसरी पांत के भी काफी नेता पार्टी से बाहर हो गए हैं।
बुरी तरह हार के बाद जब कांग्रेस भवन में हार की समीक्षा के लिए चुनाव लडऩे वाले सभी ६९ प्रत्याशियों के बैठक के लिए बुलाया गया तो आधे से अधिक लोग बैठक में शामिल ही नहीं हुए। हार की समीक्षा के लिए हुई बैठक में शामिल न होने वाले लोगों में वे लोग भी थे, जो पिछले पांच वर्षों तक कांग्रेस सरकार में काबीना मंत्री रहे। हार की समीक्षा के लिए बुलाई बैठक भड़ास में तब्दील हो गई और किसी ने कांग्रेस संगठन, किसी ने हरीश रावत के नेतृत्व पर तो किसी ने पीके को मैनेजमेंट सौंपने पर सवाल खड़े किए। पूरी बैठक में कांग्रेस के भीतर बिखराव दिखाई दिया।
हार के बाद जब कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष ने जागेश्वर में कांग्रेस कार्य समिति की बैठक की तो बैठक शुरू होने से पहले हल्द्वानी, रामनगर और पिथौरागढ़ में जमकर आरोप-प्रत्यारोप के दौर चले। कुछ स्थानों पर हार के लिए हरीश रावत को जिम्मेदार ठहराया गया तो कुछ पर संगठन को। कांग्रेस के एक धड़े ने हार का पूरा ठीकरा हरीश रावत के नेतृत्व पर फोड़ा। इसके बाद तो सिर-फुटव्वल ओर तेज हो गई। हरीश रावत के समर्थकों ने यह कहकर कांग्रेस अध्यक्ष पर हमला बोल दिया कि किशोर उपाध्याय ने हरीश रावत को कभी भी मुख्यमंत्री के रूप में चैन से काम नहीं करने दिया। कई स्थानों पर किशोर उपाध्याय से इस्तीफा मांगने की बातें हुई।
हाथ से फिसली हृदयेश
इससे पहले कि हार की रार पर आंच कुछ ठंडी होती, हाल ही में नेता प्रतिपक्ष बनी इंदिरा हृदयेश ने हरीश रावत पर हमले तेज कर दिए। नेता प्रतिपक्ष के चुनाव के दौरान हरीश रावत ने ८ विधायकों को करन महरा को नेता प्रतिपक्ष बनाने के लिए एकजुट कर लिया था, लेकिन आखिरकार बाजी इंदिरा हृदयेश के हाथ लगी। इंदिरा हृदयेश ने अब हार के लिए पूरी तरह से हरीश रावत को जिम्मेदार ठहराकर उन्हें कांग्रेस को इस हालात में पहुंचाने का दोषी बताया है। इंदिरा हृदयेश ने अपने हमले यहीं समाप्त नहीं किए। इसके बाद उन्होंने हरीश रावत द्वारा हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा से चुनाव लडऩे के निर्णय को काला निर्णय बताकर हरीश रावत की दुखती रग पर हाथ रख दिया। इससे पहले कि बात संभलती, इंदिरा हृदयेश ने तीसरा हमला करते हुए और स्पष्ट कर दिया कि जब जीत का श्रेय हरीश रावत ले रहे थे तो हार का उन्हें ही श्रेय जाता है, क्योंकि चुनाव उनके चेहरे पर, उनकी नीतियों पर लड़ा गया था।
इंदिरा हृदयेश के तीखे हमलों से आहत हरीश रावत अब कह रहे हैं कि उनके कार्यकाल के दौरान हुए हर काले काम के लिए वे नैतिक रूप से जिम्मेदारी लेते हैं और अब कांग्रेस को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय और नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश की है। ये दोनों नेता ही अब कांग्रेस को उजाले की ओर ले जाएं।
कांग्रेस के भीतर नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी के कलह के शांत न होने का मसला अभी धीमा भी नहीं पड़ा कि जून २०१७ में अध्यक्ष पद का कार्यकाल पूर्ण कर रहे किशोर उपाध्याय भी अब कांग्रेस के निशाने पर हैं। हरीश रावत इस मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहते। हरीश रावत के समर्थकों की पहली कोशिश है कि चूंकि हरीश रावत अब हरिद्वार में राजनीति कर रहे हैं तो उन्हें ही अध्यक्ष की जिम्मेदारी मिले, किंतु हरीश रावत ने इसके लिए दूसरे विकल्पों पर भी काम करना शुरू कर दिया है।
कांग्रेस के भीतर लगातार चौथी बार चकराता से विधायक बनने वाले प्रीतम सिंह को पार्टी अध्यक्ष बनाने के लिए टीम हरीश रावत ने काम शुरू कर दिया है। हरीश रावत चाहते हैं कि यदि गढ़वाल से ही अध्यक्ष बनाने की बात आई और हरीश रावत के नाम पर किसी तरह की आपत्ति आई तो प्रीतम सिंह को आगे कर किशोर उपाध्याय को दूसरा कार्यकाल मिलने से रोका जा सके।
किशोर उपाध्याय द्वारा काबीना मंत्री धन सिंह रावत के वंदेमातरम की अनिवार्यता पर दिए गए बयान पर किसी भी बड़े कांग्रेसी नेता ने किशोर उपाध्याय का साथ नहीं दिया। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने वंदेमातरम को कांग्रेस द्वारा दिए गए गीत कहकर एक तरह से किशोर उपाध्याय से किनारा किया तो गणेश गोदियाल ने एक कदम आगे बढ़कर न सिर्फ किशोर उपाध्याय से इतर वंदेमातरम का तब समर्थन किया, जबकि गणेश गोदियाल उन्हीं धन सिंह रावत से चुनाव हारे हैं, जिन्होंने उत्तराखंड में रहना होगा, वंदे मातरम कहना होगा, का नारा दिया। यूं तो गणेश गोदियाल अभी तक विवादों से दूर रहे हैं, किंतु बदली परिस्थितियों में कांग्रेस द्वारा चुनाव में अपेक्षित रूप से उन्हें मदद न करने के बाद उन्होंने भी अब एक नया मोर्चा खोलकर भविष्य की राजनीति की संभावनाओं को तलाशने की कोशिश की है।
बढ़ रहा आंतरिक विरोध
२०१९ के लोकसभा चुनाव की चुनौतियों से पहले कांग्रेस को स्थानीय निकाय के चुनाव में भी उतरना है। समस्या सिर्फ लोकसभा चुनाव की नहीं, बल्कि स्थानीय स्तर पर नगरपालिका, नगर पंचायत के चुनाव लडऩे वाले बड़ी संख्या में कांग्रेसी अब भाजपा में चले गए हैं। विधानसभा चुनाव २०१७ के दौरान भी कई ऐसे स्थानीय स्तर के नेता कांग्रेस छोड़ गए। कांग्रेस के लिए ६ साल के लिए निष्कासित किए गए ये नेता अब गरम दूध के समान हो गए हैं। कांग्रेस न तो उनसे मोह छोड़ पा रही है और न शीघ्र उन्हें वापस कांग्रेस में शामिल ही कर पा रही है। उत्तराखंड के इतिहास में संभवत: यह पहला अवसर है, जब कांग्रेस के पास स्थानीय निकाय से लेकर लोकसभा तक चुनाव लडऩे के लिए प्रत्याशी भी ढूंढकर नहीं मिल रहे।
पूरे देश की भांति उत्तराखंड में भी कांग्रेस की हालत पस्त है। लोकसभा चुनाव से लेकर तमाम राज्यों में सरकार खोती जा रही कांग्रेस के लिए उत्तराखंड के पांच नगर निगमों व शेष नगरपालिकाओं, नगर पंचायतों में अस्तित्व बचाना मुश्किल हो रहा है। यह पहला अवसर है, जब नेताओं से भरी पड़ी कांग्रेस के पास न सिर्फ नेताओं का टोटा हो गया है, बल्कि ग्रासरूट कार्यकर्ता भी कांग्रेस से लगातार दूर होता जा रहा है। हार की समीक्षा से पहले कांग्रेस की बड़ी समस्या कांग्रेसियों को एकजुट करने की है, किंतु जिस प्रकार कांग्रेसी आपस में लड़-भिड़ रहे हैं, उससे नहीं लगता कि जल्दी कोई रास्ता कांग्रेस ढूंढ पाएगी।
यह पहला अवसर है, जब कांग्रेस के पास अपने परंपरागत फार्मूले के लिए भी चेहरे नहीं बचे हैं। गढ़वाल-कुमाऊं, ठाकुर-ब्राहमण के फार्मूले के बीच अब तक राजनीति करती रही कांग्रेस के पास बचे दलित चेहरे यशपाल आर्य ने जब से कांग्रेस का हाथ छोड़ा है, नेतृत्व का संकट और गहरा गया है। कुमाऊं से ब्राह्मण इंदिरा हृदयेश के नेता प्रतिपक्ष होने के बाद कांग्रेस के एक गुट ने दबाव बनाना शुरू कर दिया है कि गढ़वाल से वर्तमान पार्टी अध्यक्ष किशोर उपाध्याय को बाहर कर किसी ठाकुर नेता को अध्यक्ष की कुर्सी सौंपी जाए। पूरे गढ़वाल क्षेत्र में जीतने वाले चेहरे ही नहीं बचे तो लड़ाने वाले अध्यक्ष ढूंढना भी कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर हो गया है।
विधानसभा चुनाव २०१७ हरीश रावत दोनों विधानसभा सीटों से चुनाव हारकर न सिर्फ इतिहास बना गए, बल्कि उनकी हार से पैदा हुआ खालीपन कांग्रेस जल्द ही भर पाएगी, इसकी संभावना बहुत कम है। कुमाऊं दौरे पर गए कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय का मुर्दाबाद के नारों के साथ स्वागत होना किशोर उपाध्याय के लिए और पीड़ादायक इसलिए भी है, क्योंकि किशोर उपाध्याय लगातार दो विधानसभा चुनाव हार चुके हैं। दो अलग-अलग विधानसभाओं से चुनाव हारने के बाद अब दबाव किशोर उपाध्याय के ऊपर पर भी है। हरीश रावत के मुख्यमंत्री रहते हरीश रावत को गरियाने वाले किशोर उपाध्याय के लिए अब कांग्रेस संगठन चलाना और कांग्रेसियों को समेटकर रखना इतना आसान नहीं होगा। कुमाऊं दौरे में ही किशोर उपाध्याय के समर्थकों ने मुर्दाबाद के नारों का कायदे से जवाब देते हुए प्रदेश कांग्रेस कमेटी की मीटिंग में यह कहकर हिसाब चुकता कर दिया कि जब हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव मैदान में उतरी तो हार का ठीकरा हरीश रावत के अलावा किसी और पर फोडऩे का क्या औचित्य? हाल ही में हरीश रावत ने एक साक्षात्कार में खुलासा किया कि किशोर उपाध्याय को वे टिहरी से ही चुनाव लड़ाना चाहते थे, किंतु किशोर उपाध्याय ने हठ कर सहसपुर से चुनाव लडऩे का निर्णय लिया।
टिहरी में नहीं टिकाऊ चेहरा
टिहरी लोकसभा में कांग्रेस के पास जीतकर आने वाले एकमात्र मजबूत विधायक चकराता के प्रीतम सिंह हैं, जो इस बार बमुश्किल १४०० वोटों से चुनाव जीत सके हैं। प्रीतम सिंह चकराता विधानसभा से बाहर निकलते नहीं हैं। २०१९ के लोकसभा चुनाव की दृष्टि से भी देखें तो टिहरी लोकसभा में फिलहाल कांग्रेस के पास प्रत्याशी ही नहीं हैं। अब तक कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लडऩे वाले विजय बहुगुणा, साकेत बहुगुणा अब भाजपा में शामिल हो चुके हैं तो एक बार कांग्रेस के टिकट पर लडऩे वाले जसपाल राणा सक्रिय राजनीति से ही दूर हैं। १४ विधानसभाओं वाली टिहरी लोकसभा में कांग्रेस के पास सिर्फ दो विधायक हैं। प्रीतम सिंह के अलावा पुरोला से राजकुमार। राजकुमार कुछ समय पहले ही कांग्रेस में शामिल हुए हैं और चुनाव जीतकर कांग्रेस दफ्तर जाने से पहले वे त्रिवेंद्र रावत और प्रकाश पंत के दर पर हो आए।
टिहरी जनपद की ६ सीटों में से कांग्रेस एक भी नहीं जीत पाई। उत्तरकाशी की तीन में से दो पर उसे हार का सामना करना पड़ा। देहरादून जननद की टिहरी लोकसभा के अंतर्गत आने वाली ७ विधानसभाओं में से मात्र एक सीट पर जीत से कांग्रेस पूरी तरह बैकफुट पर है। प्रीतम सिंह चाहते थे कि उन्हें नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी मिल जाए, किंतु आखिर में उन्हें अपने कदम पीछे खींचने पड़े।
पौड़ी में पस्त कांग्रेस
पौड़ी लोकसभा की बात कहें तो इस लोकसभा की हालत टिहरी से भी और बुरी है। पौड़ी लोकसभा की १४ विधानसभा सीटों में से कांग्रेस के पास केदारनाथ से एकमात्र विधायक मनोज रावत है। मनोज रावत पहली बार विधायक बने हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से चुनाव लडऩे वाले हरक सिंह रावत व सतपाल महाराज अब भाजपा सरकार में मंत्री हैं। इस पूरी लोकसभा में भी कांग्रेस के पास एक भी ऐसा चेहरा नहीं बचा, जो २०१९ की दृष्टि से कहीं टिकता हुआ दिखाई देता है।
पौड़ी जिले की सभी ६ सीटों, चमोली की तीनों सीटों, रुद्रप्रयाग की एक सीट और पौड़ी लोकसभा के अंतर्गत आने वाली टिहरी जनपद की दोनों सीटों को हारने के बाद पौड़ी लोकसभा में कांग्रेस नैपथ्य की ओर चली गई है। पिछली दो सरकारों में काबीना मंत्री रहे राजेंद्र सिंह भंडारी का बड़बोलापन कांग्रेस पर भारी पड़ गया। अनुसूया प्रसाद मैखुरी का गैरसैंण राग किसी ने स्वीकार नहीं किया। हार के बाद दो बार के विधायक गणेश गोदियाल भी अपने आपको किनारे किए हुए हैं। कांग्रेस के पास चुनाव लडऩे से ज्यादा बड़ी समस्या प्रत्याशी ढूंढने की है।
पौड़ी लोकसभा सीट के अंतर्गत भारतीय जनता पार्टी ने सतपाल महाराज, सुबोध उनियाल, हरक सिंह रावत और धन सिंह रावत को मंत्रिमंडल में स्थान देकर अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैंै।
२००९ में हरिद्वार से सांसद बनकर केंद्र में मंत्री बनने वाले हरीश रावत की पत्नी २०१४ में हरिद्वार लोकसभा सीट से चुनाव लड़ी और उन्हें तकरीबन दो लाख मतों से हार का सामना करना पड़ा। वर्तमान में हरिद्वार लोकसभा की १४ विधानसभा सीटों में कांग्रेस के पास भगवानपुर से ममता राकेश, पिरान कलियर से फुरकान अहमद और मंगलौर से काजी निजामुद्दीन मात्र तीन विधायक हैं। शेष 11 सीटों पर मिली हार के बाद इस सीट पर ही कांग्रेस के लिए अब पुन: खड़ा होना बहुत मुश्किल हो गया है। हरीश रावत द्वारा हरिद्वार ग्रामीण सीट से हारने का नुकसान कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में भी होगा।
हरीश रावत की पत्नी रेणुका रावत हालांकि अब भी अपने आप को हरिद्वार लोकसभा सीट से प्रबल दावेदार बताती है, किंतु यह जगजाहिर है कि २०१४ के उस चुनाव में रेणुका रावत तब बुरी तरह हार गई थी, जब कुछ समय पहले उनके पति इसी सीट से सांसद रह चुके थे और उनके मुख्यमंत्री रहते ही रेणुका रावत को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा।
लगातार चौथी बार जीतकर आए मदन कौशिक दूसरी बार प्रदेश में काबीना मंत्री बने हैं। हरिद्वार लोकसभा से उन्हें काबीना मंत्री तो प्रेमचन्द अग्रवाल को विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया है। डोईवाला विधानसभा सीट से जीतने वाले त्रिवेंद्र रावत सूबे के मुख्यमंत्री हैं और यह विधानसभा भी हरिद्वार लोकसभा सीट के अंतर्गत ही आती है।
नैनीताल लोकसभा सीट की १४ विधानसभा सीटों में भी कांग्रेस की स्थिति दयनीय ही है। नैनीताल लोकसभा सीट के अंतर्गत कांग्रेस के पास अब नेता प्रतिपक्ष के रूप में इंदिरा हृदयेश और जसपुर से पहली बार चुनकर आए आदेश चौहान हैं। २०१४ के लोकसभा चुनाव में इस सीट से लडऩे वाले केसी सिंह बाबा चुनाव हारने के बाद से गायब हैं। तराई में एक समय तक दमदार नेता रहे तिलकराज बेहड़ लगातार दूसरी बार विधायकी का चुनाव हारने के बाद राजनैतिक रूप से बहुत पीछे चले गए हैं।
रुद्रपुर से लगातार दूसरी बार भाजपा के राजकुमार ठुकराल से हारने वाले तिलकराज बेहड़ अब कांग्रेस के लिए उतने मुफीद नहीं रह गए हैं। किच्छा विधानसभा सीट से विधायकी का चुनाव हारने के कारण हरीश रावत की छवि तो धूमिल हुई ही है, तराई में कांग्रेस के लिए उभरना कठिन हो गया है। कल तक तराई में जिस प्रकार तिलकराज बेहड़ का प्रभाव था, उस श्रेणी में अब लगातार चौथी बार चुनाव जीतकर मंत्री बनने वाले अरविंद पांडे शुमार हो गए हैं। भाजपा के लिए राजकुमार ठुकराल और राजेश शुक्ला जैसे दबंगों का चुनाव जीतना भी फायदेमंद रहा।
कांग्रेस सरकार के दौरान यशपाल आर्य और विजय बहुगुणा के बूते तराई में मजबूत रही कांग्रेस दोनों के भाजपा में चले जाने के बाद कमजोर हो गई है। ऊधमसिंहनगर में कांग्रेस के एकमात्र विधायक के जीत पाने से यह स्पष्ट हो गया है कि जिले में कांग्रेस की हालत क्या है? तराई से अरविंद पांडे के साथ-साथ यशपाल आर्य भी राज्य सरकार में काबीना मंत्री हैं।
आरक्षित श्रेणी की अल्मोड़ा लोकसभा सीट से २०१४ में चुनाव हारने वाले प्रदीप टम्टा हालांकि तब हरीश रावत की कृपा से राज्यसभा जाने में सफल रहे, किंतु प्रदीप टम्टा को राज्यसभा भेजकर हरीश रावत को राजनैतिक रूप से फायदा कम और नुकसान अधिक हुआ। अल्मोड़ा लोकसभा सीट की १४ विधानसभाओं में से कांग्रेस के पास धारचूला से हरीश धामी, रानीखेत से करन महरा और जागेश्वर से गोविंद सिंह कुंजवाल विधायक हैं। शेष ११ सीटों पर कांग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। प्रदीप टम्टा के राज्यसभा जाने के बाद अब इस सीट पर भी संघर्ष के अलावा प्रत्याशी का भी टोटा खड़ा हो गया है।
भारतीय जनता पार्टी ने अल्मोड़ा से लोकसभा चुनाव २०१४ जीतने पर अजय टम्टा को केंद्र सरकार में मंत्री बनाया है तो पिथौरागढ़ से जीतकर आने वाले प्रकाश पंत सूबे में काबीना मंत्री हैं।
कुल मिलाकर जिस तरह कांग्रेस में बिखराव है और जिस रणनीति के तहत भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभावार कांग्रेस की घेराबंदी शुरू कर दी है, उससे कांग्रेस के लिए संघर्ष और कठिन हो गया है। कांग्रेस में न सिर्फ अपने परिवार को संभाले रखने की चुनौती है, बल्कि भारतीय जनता पार्टी द्वारा की गई घेराबंदी को तोडऩे के लिए भी नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। देखना है कि १३० साल पुरानी कांग्रेस अब किस प्रकार इस संकट से उबरती है!
जिस तरह कांग्रेस में बिखराव है और जिस रणनीति के तहत भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभावार कांग्रेस की घेराबंदी शुरू कर दी है, उससे कांग्रेस के लिए संघर्ष और अधिक हो गया है। कांग्रेस में न सिर्फ अपने परिवार को संभाले रखने की चुनौती है, बल्कि भारतीय जनता पार्टी द्वारा की गई घेराबंदी को तोडऩे के लिए भी नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं।
पहले ही होने लगा था हार का आभास
कांग्रेस द्वारा भले ही अब हार-जीत की समीक्षा करने की बातें और एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चरम पर हो, किंतु कांग्रेस प्रभारी अंबिका सोनी द्वारा चुनाव से पहले ही उत्तराखंड के कांग्रेस प्रभारी के दायित्व से मुक्त होने की मांग से कार्यकर्ताओं में संदेश जाने लगा था कि कांग्रेस प्रभारी कहीं न कहीं कांग्रेस की हार को भांप चुकी है। हालांकि कहने के लिए वह कांग्रेस की उत्तराखंड प्रभारी रही, किंतु उन्होंने चुनाव के दौरान कोई भी कार्य मनोयोग से नहीं किया। उसके बाद कहीं पीके को चुनाव प्रबंधन की भूमिका देने पर झगड़ा मचा तो कभी किशोर उपाध्याय के पांच सूत्रीय विजन डॉक्युमेंट को आधे रास्ते में रुकवा कर हरीश रावत नौ सूत्रीय रावत के संकल्प नामक विजन डॉक्युमेंट को लेकर भी अंतर्कलह होती रही। चुनाव के बीच में किशोर उपाध्याय का एक और बयान आया, जिसमें उन्होंने भाजपा की ओर से अनिल बलूनी को मोदी और अमित शाह की उत्तराखंड को लेकर पहली पसंद बताकर संदेश देने की कोशिश की कि कांग्रेस मैदान छोड़ चुकी थी। पूरा चुनाव पार्टी विचारधारा, विकास कार्यों की बजाय सिर्फ हरीश रावत के भावनात्मक मुद्दों के बीच फंसकर रह गया।