आई.पी. ह्यूमन
शिक्षक समाज का निर्माता होता है, शिक्षक देश का भविष्य होता है, शिक्षक राष्ट्र निर्माता होता है। इससे भी बड़ी उपाधि हमारे शास्त्रों में गुरु को इस रूप में दी गयी है -गुरुब्रह्म, गुरु विष्णु,—ये उपाधियाँ सुनने में अच्छी लगति है, थोड़ा सकूँ भी देती हैं और पल भर के लिए गर्व का अहसास भी दिलाती हैं कि शिक्षक भी कोई सम्मान की वस्तु है। शिक्षक को किताबों में शास्त्रों में शुक्तियों में काफी आदर सम्मान दिया गया है।ये सच भी है कि वर्तमान में जिसे शिक्षक कहा गया है पहले उसको गुरु कहा गया है और गुरु को गोविंद से भी ऊंचा स्थान दिया गया है। माता पिता के बाद गुरु का स्थान है और उसके बाद देवता का। गुरु शिष्य संबन्ध वैदिक काल से ही आदर्श और आदरभाव का केंद्र रहा है। गुरुकुल में गुरु शिष्य को शिक्षा देता था और शिष्य गुरु की निस्वार्थ भाव से सेवा करता था। तब गुरु का पद लाभ का नहीं वरन सम्मान का होता था। धीरे धीरे सामाजिक परिवर्तन के साथ साथ कई परंपराएं बदली, कई लगभग खत्म हो गयी और कई व्यस्थाओं और परंपराओं का स्वरूप बदल गया। इसी बदलाव के क्रम में गुरु-शिष्य की जगह शिक्षक-शिक्षार्थी या छात्र-शिक्षक हो गया और गुरु के प्रति जो आदरभाव बस था। समाज के अंदर वह भी धीरे -धीरे कम होता गया। आज वर्तमान स्थिति यहां तक पहुच गयी है कि शिक्षक सबसे ज्यादा उपेक्षित और निरादर का भाव बन गया है। आखिर बलिहारी गुरु अपने गोविंद दियो बताय, अचानक सम्मान और आदर की पृष्ठभूमि के किनारे पर क्यों लुढ़क गया है?इसके कुछ कारण और कारक जरूर जानने होंगे। सरकारों द्वारा सरकारी संस्थाओं को पीपीपी मोड़ पर दिए जाने तथा खासकर सरकारी शिक्षण संस्थाओं को सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक मैदान बना दिया गया। किसी चुनाव में लाभ लेने के लिए बिना मानक के बिना होमवर्क के हजारों स्कूल खोल दिये गए, मगर इन स्कूलों में न भौतिक संसाधन ही सुलभ हो पाए न ही शिक्षक।
शिक्षकों की कमी हमेशा ही इस राज्य की मुख्य समस्या बनी हुई है।
शिक्षा का अधिकार कानून तो खूब विज्ञापित होता रहा है, मगर गणित, विज्ञान, अंग्रेजी जैसे मुख्य विषयों के विषय विशेषज्ञ शिक्षकों का टोटा हमेसा बना रहा है। अब स्थिति ये हो गयी है कि कई स्कूलों को बंद कर दिया गया है और कई स्कूलों को दूसरे स्कूलों के साथ विलय कर दिया गया है।विषम भौगोलिक स्थिति में शिक्षक कई वर्षों से एक ही स्थान पर कार्यरत हैं। उत्तराखण्ड राज्य में 13 जनपद हैं, जिनमें 10 जिले पूर्ण रूप से पहाड़ी जिले हैं। उत्तराखंड राज्य का श्रीगणेश ही विशुद्ध पर्वतीय राज्य की मांग के साथ हुआ था और उसकी राजधानी गैरसैंण को बनाने की राज्य आंदोलनकारियों की माग थी। आज जब ये प्रदेश 18 साल पूर्ण कर चुका है और वयस्क हो चुका है, मगर इसकी मूलभूत समस्याएं जस की तस बनी हैं, जो 9 नवंबर 2000 से पहले थी। जल, जंगल, जमीन को छोड़ दिया जाए और सिर्फ उन्ही मुद्दों पर विचार किया जाए जो एक कल्याणकारी राज्य के नागरिकों का मूलभूत अधिकार होता है, जिसमें शिक्षा और स्वास्थ्य अहम है। रोजगार की बात तो तब होगी जब उचित शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य होगा। आज इस राज्य में सड़क पर, बसों में प्रसव हो रहा है। 108 एम्बुलेंस शोपीस बने हैं। अस्पतालों में डॉक्टर उपलब्ध नहीं हैं। स्कूलों में शिक्षक पर्याप्त नहीं हैं तो कैसा भविष्य होगा इस प्रदेश का ?
इस वक्त सबसे ज्यादा ठगा गया है तो शिक्षक। सबसे अधिक उपेक्षा का शिकार है तो शिक्षक। इन 18 वर्षों में शिक्षकों के लिए कोई भी स्थानांतरण नीति सुचारू रूप से हर वर्ष नहीं हो पाई। ऊंंची पहुंच और सत्ता के करीबियों ने पहाड़ की पगडंडियों से चलकर मीलों किसी स्कूल में कदम नहीं रखे होंगे और लाचार लोगों के लिए दुर्गम और अति दुर्गम के स्कूल हमेशा के लिए कॉपीराइट बनकर रह गए हैं। आखिर क्या मजबूरी है इस राज्य में कि मैदानी क्षेत्र और पहाड़ी क्षेत्रों के बीच एक गहरी खाई बना दी गयी है। बेहतर ये होता कि शिक्षकों को अपने राज्य की भौगौलिक क्षेत्रों की जानकारी के लिए पहाड़, मैदान, भाबर, हिमालयी क्षेत्रों की जानकारी के लिए बारी बारी से ट्रांसफर करने की अहम नीति होनी चाहिए थी, ताकि सिर्फ किताबी ज्ञान ही नहीं व्यावहारिक ज्ञान भी उनको प्राप्त हो जाता। उम्मीद जागी भी थी जब उत्तराखंड सरकार ने विगत गैरसैंण विधानसभा सत्र में ट्रांसफर एक्ट को पारित कर दिया और राज्यपाल द्वारा इसको मंजूरी भी मिल गयी, मगर फिर वही किस्सा कि ,”दिल के अरमान आँसू में बह गए हम एक्ट पारित होकर भी तन्हा रह गए” न एक्ट के प्रावधानों के अनुरूप नियत समय सारणी पर अमल हुआ और न ही किसी अधिकारी को दंडित किया गया। उल्टा एक्ट में ट्रांसफर की सीमा को 10 प्रतिशत कर दिया गया। एक कहावत है गम्भीर बीमारी, लाइलाज बीमारी का बीमार व्यक्ति के बचने के मात्र 10 प्रतिशत सम्भावना होती है, फिर भी वह जीने की आस रखता है, लेकिन यहां 10 प्रतिशत सम्भावना को भी खत्म कर दिया गया। अब तो हताश और हारकर हर दुर्गम शिक्षक यही कहने को मजबूर है कि- ”कौन सुनेगा किसको सुनाएं इसी लिए चुप रहते हैं”।