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ओमप्रकाश पार्ट 6: सीएम त्रिवेंद्र को ले डूबेगा ओम प्रकाश का मोह

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अक्सर बात-बात पर जीरो टॉलरेंस की कसम खाने वाले मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को शायद दीवार पर लिखी इबारत नजर नहीं आ रही है।

 ओम प्रकाश नामक इस दीपक के तले का अंधेरा यदि उन्हें नजर आ जाता तो या तो वह जीरो टॉलरेंस की कभी बात ही न करते अथवा ओम प्रकाश आज उनकी किचन कैबिनेट में नहीं होते।
 ओनिडा अग्निकांड में बुरी तरह घिर चुके अपर मुख्य सचिव ओमप्रकाश का बचना अब नामुमकिन लगता है।
 हाईकोर्ट ने लगातार दो दिन ओनिडा अग्निकांड के मामले की सुनवाई करके अपना रुख साफ कर दिया है। बेहद तल्ख टिप्पणियों के साथ हाई कोर्ट का फैसला किसी अंधे की भी आंखें खोलने के लिए पर्याप्त है। हाई कोर्ट ने आज ओनिडा प्रकरण की सुनवाई करते हुए अपने फैसले में कहा कि इसकी जांच वही पुरानी वाली एसआईटी करेगी जिसकी मुखिया आइपीएस नीरू गर्ग थी।
 पाठकों को याद होगा कि ओनिडा फैक्ट्री अग्नि कांड की सुनवाई नीरू गर्ग की अगुवाई में एसआईटी कर रही थी। बाद में ओम प्रकाश ने अपने आप को एसआईटी की जांच में बुरी तरह घिरा हुआ पाते हुए राजनीतिक दबाओं का इस्तेमाल करते हुए एसआईटी को ही निष्क्रिय करवा दिया था।
हाईकोर्ट मे आज बहस में ओम प्रकाश की ओर से उनके अधिवक्ताओं ने पूरा जोर दिया और कहा कि इस प्रकरण की जांच भले ही सीबीआई से करा ली जाए, किंतु उस एसआईटी को यह जांच न दी जाए। लेकिन हाईकोर्ट ने उनकी मांग को कड़ी निंदा करते हुए ठुकरा दिया।
 हाईकोर्ट की बातों का लब्बोलुआब यह था की हमने तुम्हें सुनना था सुन लिया। फैसला क्या देना है, यह हमारा काम है। इसकी जांच एसआईटी करेगी। अब ओमप्रकाश पर शिकंजा कसना तय है।
 पाठकों को याद होगा कि उत्तराखंड के रुड़की में 8 फरवरी 2012 को ओनिडा फैक्ट्री में हुए अग्निकांड में 12 लोगों की जिंदा भुनकर मौत हो गई थी। इस अग्निकांड में गांव के ही महक सिंह नाम के व्यक्ति के भाई कृष्ण बल्कि मौत हुई थी। महक सिंह ने धारा 304 में ओनिडा समूह के चेयरमैन जीएल मीरचंदानी व सुधीर Mahindra के खिलाफ नामजद मुकदमा दर्ज कराया था।
 ईमानदार छवि के लिए विख्यात कोतवाल महेंद्र सिंह नेगी ने अपनी जांच में पाया था कि महक सिंह के आरोप बिल्कुल सही थे। कोतवाल महेंद्र सिंह नेगी ने  पाया था कि फैक्टरी के पास अग्निशमन विभाग के अनापत्ति प्रमाण पत्र की डेट भी निकल चुकी थी। और फैक्टरी ने अग्निशमन के निर्देशों को भी नहीं माना था। इसमें सीधे-सीधे मालिक की ही गलती थी कि न तो उन्होंने ‘बिल्डिंग ऑक्यूपेंसी प्रमाण पत्र’ लिया था और न ही अग्निशमन विभाग के निर्देश माने थे। उनका मकसद सिर्फ पैसा कमाना था। इस तरह से वह फैक्ट्री में अवैध उत्पादन कर रहे थे। फैक्ट्री में अग्निशमन यंत्र तक नहीं थे।
 जब तत्कालीन  प्रमुख सचिव गृह ओमप्रकाश को लगा कि इस मामले में कोतवाल महेंद्र सिंह नेगी और तत्कालीन एसएसपी अरुण मोहन जोशी फैक्ट्री वालों को ही फंसा देंगे तो उन्होंने दोनों का ट्रांसफर करा दिया। प्रमुख सचिव गृह होने का दुरुपयोग करते हुए ओम प्रकाश ने मामले की विवेचना करने वाले विवेचक और जिला स्तरीय पुलिस अधिकारियों को प्रभावित करने के लिए तथा अग्निकांड में मारे गए परिजनों को अपने सचिवालय स्थित कार्यालय में बुलाकर खूब दबाव डलवाया और यह जांच रिपोर्ट बदलने के लिए कहा।
 7 जून 2013 को प्रमुख सचिव गृह को लिखे एक पत्र में राज्य अभियोजन के संयुक्त निदेशक ने साफ लिखा है कि 30 मई 2013 को प्रमुख सचिव ग्रह ओम प्रकाश द्वारा विवेचक, महेंद्र सिंह नेगी ,अभियोजन विभाग के अधिकारी और कंपनी के प्रतिनिधियों की बैठक ली गई थी। इसमें उन पर मुकदमे को कमजोर करने और फैक्ट्री के मालिक का नाम हटाने के लिए काफी दबाव डाला गया।
 जब अरुण मोहन जोशी तत्कालीन एसएसपी हरिद्वार नहीं माने तो ओमप्रकाश ने 13 जून को उनका तबादला करा दिया। क्योंकि वहां पाला एक ऐसे कोतवाल से पड़ा था जो अपनी वर्दी में भी जेब नहीं सिलवाता। 13 जून को SSP का ट्रांसफर ओमप्रकाश ने करा दिया और 14 जून को महेंद्र सिंह नेगी से भी ओनिडा फैक्ट्री की जांच का कार्य हटाकर राजीव डंडरियाल को सौंप दिया।
राजीव डंडरियाल टिहरी जिले के थाना मुनिकीरेती में तैनात थे। ओम प्रकाश ने तत्कालीन डीआईजी केवल खुराना से दबाव में यह आदेश करवाए। पर्वतजन के सूत्रों के अनुसार ओमप्रकाश ने खुराना को मनमाफिक तैनाती देने का लालच दिया था। बाद में केवल खुराना ने अपनी रिपोर्ट में साफ-साफ लिख दिया कि यह ट्रांसफर भी ओमप्रकाश ने ही कराया था। जैसे ही ओमप्रकाश ने इन दोनों से जांच का काम हटाया, उसके अगले ही दिन तत्कालीन उपमहानिरीक्षक गढ़वाल का कार्यभार देख रहे खुराना को निर्देश दिए कि इस विवेचना को आईपीसी की धारा 304 में चलाने के बजाए 304 ए में चलाया जाए। ऐसा करने का ओमप्रकाश को कोई अधिकार नहीं था। धारा 304 में आजीवन कारावास या 10 साल की जेल और जुर्माने की सजा होती है। जबकि 304ए में लापरवाही के कारण हुई मौत आती है। इसमें अधिकतम 2 साल की जेल या जुर्माना होता है। अधिकतर मामले जुर्माने में खत्म हो जाते हैं। भारत की आजादी के 70 सालों में किसी भी ब्यूरोक्रेट ने कभी भी अभियोजन और विवेचना के मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया है। न्याय संहिता की भाषा में एक लोक सेवक के लिए ऐसा हस्तक्षेप संगीन अपराध है। न्यायपालिका इसका कड़ा संज्ञान लेती है।
 इस पूरे मामले में ओमप्रकाश की भूमिका कुछ ऐसी ही थी जैसे वह तनख्वाह तो सरकार से ले रहे थे किंतु चाकरी फैक्ट्री मालिक की बजा रहे थे। ऐसा भ्रष्ट अफसर जब त्रिवेंद्र रावत के आंखों का तारा बना हुआ है तो ऐसा प्रतीत होता है कि श्री त्रिवेंद्र को वाकई ओम प्रकाश नामक मोतियाबिंद हो गया है। पर्वतजन के सूत्रों के अनुसार ओमप्रकाश ने विवेचक  को अपने हाथ काट कर दे दिए हैं। ओम प्रकाश ने साफ-साफ स्वीकार किया है कि उन्होंने विवेचक, फैक्ट्री मालिक और अभियोजन को अपने यहां बुलाकर बैठक की थी। इससे बड़ा संगीन अपराध एक लोक सेवक के लिए कोई दूसरा नहीं हो सकता।
 ओमप्रकाश के दबाव का परिणाम यह हुआ कि जहां पहले कोतवाल महेंद्र सिंह नेगी ने अपनी जांच के बाद न्यायालय रुड़की से फरार फैक्ट्री मालिकों की गिरफ्तारी के गैर जमानती वारंट लेकर लगभग कुर्की के आदेश तक करा दिए थे, नए विवेचक ने उन्हें  पानी में बहा दिया। और एक-दो दिन में ही जांच की खानापूर्ति कर मीरचंदानी का नाम अभियुक्त से हटा दिया। डंडरियाल जैसे अफसरों के ऐसे कृत्यों पर वाकई उत्तराखंड के शहीदों को भी अफसोस होता होगा।
 विवेचक की जांच के बाद भी जब हरिद्वार के एसएसपी और विवेचक पर मामले को और हल्का करने का दबाव डाला गया तो अपनी नौकरी पर खतरा समझते हुए एसएसपी और नये विवेचक ने और आगे कदम बढ़ाने से इनकार कर दिया। अब दोबारा से प्रमुख सचिव गृह ओमप्रकाश आगे आए और उन्होंने संविदा पर काम कर रहे अभियोजन के संयुक्त निदेशक को विधिक राय देने का आदेश दिया। जबकि मामले की केस डायरी से बिल्कुल साफ है कि विवेचक ने कभी भी विधिक राय मांगी ही नहीं थी। संविदा पर ओमप्रकाश की दया से काम कर रहे संयुक्त निदेशक विधि ने ओमप्रकाश की मर्जी के हिसाब से अभियुक्तों की पैरवी में ही विधिक राय दे डाली। उन्होंने जो लिखा उसका मतलब था कि मृतकों के आश्रितों को क्षतिपूर्ति और रोजगार दिया जा रहा है, इसलिए थोड़ा नरमी बरती जाए।
 संविदा के अभियोजन ने अपनी रिपोर्ट में फैक्ट्री मालिकों को जिम्मेदार ठहराए जाने वाले किसी भी बिंदु का उल्लेख ही नहीं किया। ओम प्रकाश खुद भी स्वीकार करते हैं कि यह उनके जीवन की महान भूल थी। ओमप्रकाश का बचना अब नामुमकिन है लेकिन लगता है कि ओम प्रकाश मुख्यमंत्री के साथ कुछ इस तरह से चिपके हैं कि मानो कह रहे हों कि हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत के सामने अब दो ही रास्ते हैं । या तो वह एसआईटी  में दखल देकर ओम प्रकाश को बचाने का इंतजाम करें या फिर ओमप्रकाश की बदनामी अपने सर लेकर 2019 से पहले विदा हो जाएं।  देखना यह है कि त्रिवेंद्र रावत की नियति में क्या लिखा है।
 प्रिय पाठकों! हाई कोर्ट के कड़े तेवरों के बाद भी मुख्यमंत्री का ओमप्रकाश के प्रति मोह यह बताता है कि कहीं ना कहीं भ्रष्टाचार की दुरभिसंधि में दोनों शामिल हैं। इसकी तहकीकात और पड़ताल भी आवश्यक है।
प्रिय पाठकों! लोकतंत्र में लोकलाज ही सब कुछ है। जब तक पाठक और अन्य सामाजिक संगठन इस बेशर्म गठबंधन पर एतराज नहीं जताएंगे, तब तक पर्वतजन कितने भी पार्ट–1 पार्ट 2 निकाल ले कोई फायदा नहीं।इसलिए पाठकों से भी अनुरोध है कि आप इस पर एतराज जताएं  क्योंकि ओमप्रकाश नाम का यह भ्रष्ट दीमक उत्तराखंड की जड़ों को खोखला कर रहा है। मुख्यमंत्री को लगता है कि ओम प्रकाश से काबिल अफसर उनकी नजर में कोई नहीं है।आप से अनुरोध है कि यदि आपको उत्तराखंड के हित मे उचित लगे तो इस खबर को जमकर शेयर करें तथा कमेंट करें। और यदि आपके पास भी कोई सूचना है तो हमसे हमारे मोबाइल नंबर 94120 56112 पर साझा करें अपने स्तर से मुख्यमंत्री को बताएं कि आप ओमप्रकाश को लेकर क्या राय रखते हैं!
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