विनोद कोठियाल//
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिया गया विकास का डबल इंजन बजट खर्च किए जाने की योजना न बनने से स्टेशन पर खड़ा है। राज्य योजना आयोग की लापरवाही के कारण जिलों के लिए ही जारी बजट अभी तक खर्च नहीं हो पाया है।
प्रदेश का विकास सरकार व सरकारी तंत्र के भंवर में फंसने से गले की हड्डी बन चुके हैं। सरकार प्रत्येक वर्ष राज्य के विकास के लिए वार्षिक बजट की व्यवस्था करती है और वित्तीय वर्ष से पूर्व में विभागों को उपयोगी प्लान बनाने के दिशा-निर्देश देती है। विभाग अपने योजनाओं के औचित्य सहित वास्तविक प्लान तैयार कर उसे सरकार से अनुमोदित कर योजनाओं व कार्यक्रमों का लक्ष्य निर्धारण कर अप्रैल से योजनाओं का व्यय विवरण व भौतिक उपलब्धि प्रत्येक माह सरकार को देते हैं।
वर्ष २०१७-१८ में सरकार ने वार्षिक प्लान ३९,२२३ करोड़ का बजट पारित करवाया। मार्च के अंत में कुल प्लान का ४ माह यानि जुलाई २०१७ तक का दो तिहाई बजट अग्रिम रूप से लेखानुदान के रूप में पारित किया, ताकि कर्मचारियों का वेतन व विकास कार्य बाधित न हों, किंतु नियोजन विभाग ने जिला योजना तैयार करने के निर्देश विलंब से १० अप्रैल को प्रेषित किए और कहा कि हुए ३० अप्रैल तक जनपदों के प्रभारी मंत्रियों से अनुमोदित कर शासन को उपलब्ध कराया जाए, किंतु वास्तविकता यह है कि अगस्त २०१७ तक अधिकांश जनपदों के प्लान पास न करने से वर्ष के पांच माह बर्बाद हो गए हैं और अक्टूबर तक भी प्लान बनने की संभावना नहीं दिख रही है। कब योजना बनेगी, कब धनराशि व्यय होगी, इसके लिए कोई भी गंभीर नहीं दिख रहा है। अवशेष महीनों में कैसे प्लान का पैसा खर्च होगा और कब विभागों के निर्धारित लक्ष्य पूरे होंगे, यह सरकार व तंत्र के लिए चुनौती है। विभागों का प्लान बनाने का कार्य रुटीन कार्य है। समय पर प्लान न बनने से धन खर्च नहीं हुआ, इसलिए सरकार के १०० दिन के रिपोर्ट कार्ड में भौतिक उपलब्धि व व्यय विवरण गायब था, जबकि सरकार निरंतर बैठकें कर समीक्षा कर रही है और वित्त व नियोजन विभाग भी प्रत्येक महीने मदवार व्यय की प्रगति रिपोर्ट मांगती है।
वहीं पिछली सरकार में ३१ मार्च २०१७ को २५०० करोड़ रुपए वित्त विभाग द्वारा जारी किया गया था। यह पैसा भी अभी तक खर्च हुआ या नहीं? सरकार को विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। इसी तरह राज्य सेक्टर की योजना जो विभागों द्वारा तैयार की जाती है, उसमें भी मानक के अनुसार व्यय व भौतिक उपलब्धि परिलक्षित नहीं है।
यही स्थिति केंद्र पोषित व बाह्य सहायतित योजनाओं की भी है। विभागों के पास सभी सेक्टरों का मिलाकर १ अप्रैल २०१७ को ३८८८८ लाख रुपए की धनराशि अवशेष पड़ी थी और अनुसूचित जाति उपयोजना में बजट प्राविधान १६.१७ के सापेक्ष १३.४५ प्रतिशत स्वीकृत था। जिसके सापेक्ष ४६.१७ प्रतिशत व्यय था और बजट के सापेक्ष व्यय ६.२३ प्रतिशत था। इसी प्रकार अनुसूचित जनजाति योजना में भी बजट प्राविधान १६.९९ प्रतिशत व व्यय ६८.४२ प्रतिशत और बजट के सापेक्ष व्यय का प्रतिशत मात्र ११.६७ प्रतिशत है।
यही स्थिति पिछड़ी जाति कल्याण की भी है और विधायक निधि देखो तो १ अप्रैल २०१७ को १५,४४६८४ हजार रुपए अवशेष पड़ी थी, जबकि विधायकगण तो राज्य के नीति बनाने वाले हैं। उनको भी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में यह धनराशि व्यय करनी होती है और विधायकों के लिए नियमों में व्यय करने की कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है। कहीं सरकारी तंत्र भी अपने रुटीन कार्य को विधायक निधि की तरह खर्च करने के लिए तो नहीं सोच रहे हैं?
इस प्रकार संपूर्ण स्थिति को देखा जाए तो विकास की स्थिति दयनीय है। जिला योजना को देखें तो इसमें सभी धनराशि रुकी पड़ी है। यह तो विभागों की ही जिम्मेदारी है, परंतु प्लान न बनने व विकास कार्यों में गति नहीं आने से अधिकारीगण भी फील्ड विजिट करते नहीं दिख रहे हैं। यदि समय पर प्लान बनता, धन खर्च होता तो पैसा बाजार में आता, जिससे लोगों को रोजगार मिलता और व्यापारियों व ठेकेदारों की भी आमदनी होती और मजदूरों व मध्यम वर्ग का रोजगार सृजन होता।
इसी प्रकार नगरीय क्षेत्र के विकास का जिलेवार प्लान बनना था, परंतु जिले का प्लान न बनने से नगरीय क्षेत्र का प्लान भी प्रभावित हो गया है। आगामी शेष माहों में भी यही स्थिति रही तो गरीब, मध्यम वर्ग व व्यापारियों के रोजगार प्रभावित होंगे अैर विभागों के लक्ष्यों की पूर्ति होना संभव नहीं होगा, जबकि विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। वर्तमान में आवश्यकता के अनुसार प्रत्येक वर्ष वास्तविक रूप से वार्षिक प्लान बनाने का प्राविधान है। विकास के यही लक्ष्य और उपलब्धियां अधिकारियों को वार्षिक रिपोर्ट में अपने स्वमूल्यांकन में देनी होती है।
यह भी उल्लेख करना है कि प्रदेश के विभागों में कार्मिकों की अत्यंत कमी है जो कार्यरत हैं, उनको भी सरकार ने संतुलित रूप से तैनाती नहीं दी है और कार्मिकों को संबद्ध करने का सिलसिला फिर शुरू हो चुका है। प्रशासनिक अधिकारियों को सुपरमैन की तरह ३०० किमी. अन्य विभागों के अतिरिक्त चार्ज देंगे तो निचले स्तर के अधिकारियों को अपने मुख्यालय में पूर्ण समय बैठने के लिए कौन रोकेगा? वर्तमान में ग्रास रूट पर कार्मिकों की विभागों में अत्यंत कमी है। उनका ही ग्रामीण जनता से सीधा संबंध रहता है।यदि कोई मुख्यालय पर नहीं रहेगा तो कौन उनको रोकने वाले हैं, जबकि जनता कई किमी. पैदल व गाड़ी से अपनी समस्या को लेकर आती है। इस प्रकार उत्तराखंड का समुचित विकास पटरी से उतर चुकी है। कैसे रोजगार मिलेगा व पलायन कैसे रुकेगा, यह प्रश्न आमजनमानस के मस्तिष्क में चल रहा है।