हरिश्चन्द्र चन्दोला
कुछ दिन पहले एक अखबार में प्रमुख खबर थी कि पर्वतीय राज्य उत्तरांचल के दो हज़ार गावों से ३२ लाख, लोग पालायन कर चुके हैं। राज्य की कुल आबादी ९॰ लाख के लगभग है। यदि इस अखबार की खबर सही है तो उसकी एक-तिहाई जनसंख्या पहाड़ छोड चुकी है।।
इस पर राज्य सरकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है यदि यहां लोग ही नहीं रहे तो उनके हरेला इत्यादि उत्सव कैसे बचेंगे? औरों की क्या कहूं, अपने असली गांव, थापली, की कथा लिखता हूं। वह दो भागों में विभक्त था, ऊपर की चन्दोला थापली और नीचे थपलियालों की। चन्दोला लोग श्रीनगर के पास राजा के मंदिर में पुरोहिती करते थे। वहां से पता नहीं क्यों थपलियाल लोग कुछ चंदोला परिवारों को शताब्दी पूर्व अपने थापली गांव में बसाने ले गए थे, जिससे चन्दोला-थापली का जन्म हुआ था। पुरोहित परिवार के बालक प्रातःकाल घरों के नीचे एक खेत में जमा हो संस्कृत व्याकरण कंठस्थ् करने उसे उच्चरित करतेे थे। उनका सामूहिक स्वर इतना मधुर होता था कि गांवभर के लोग उन्हें सुनने नित्य जमा हो जाते थे।
चालीस वर्ष बाहर नौकरी करने के बाद मैं उस गांव गया। वह लगभग जन-विहीन हो चुका था, केवल कुछ खांसती-कराहती बूढी महिलाएं घरों से निकल पूछने लगीं कि मैं किसे ढूंड रहा हूं? पुराना बहुत बड़ा गांव खाली हो गया था। मेरे पिताजी की मृत्यु हो चुकी थी तथा मां भाई के परिवार के साथ मुम्बई रहने चली गईं थीं। अपनी गाएं उन्होंने पड़ोस के गांव में किसी परिचित को दे दी थीं। घर खंडहर हो चुका था।
जनहीन थापली में रहने की संभावना को त्याग, मैं उत्तर की ओर रहने एक सुंदर-सा स्थान खोजने दूर जोशीमठ पहुंच गया। वहां शहर से दस किलोमीटर ऊपर एक बड़े बांजवन के पास कुछ भूमि बिक रही थी, जिसे एक मकान बनाने तथा एक छोटा सा सेब का बगीचा लगाने मैंने खरीद लिया और वहीं रहने का निश्चय कर लिया।
पुराने थापली गांव जाने का फिर साहस नहीं हुआ। सोचा अब तो बूढी स्त्रियां भी मर गई होंगी, वहां जा किससे बात करूंगा?
इस प्रकार पहाड़ के कितने ही गांव समाप्त हो गए हैं। कारण हैं खेती की अवनति तथा काम-नौकरियों का अत्यंत अभाव। जिससे हो सका वह काम की खोज में पहाड़ों से निकल गया। जो निकले वे वापस नहीं आए। जहां काम पाया वहीं बस गए। पहाड़ों मंे रहने की समस्याएं अधिक हो गईं। महंगाई बढ़ गई, सड़क्-रास्ते वर्षा के कारण टूटते गए, काम-काज का विकास नहीं हुआ, खेतों की उपज कम हो गई। और सब मिला कर जीवन कठिन हो गया।
जोशीमठ से आगे एक दर्शनीय स्थान क्वारी पास है। उसके रास्ते में पुराने खेतों का एक लंबा, बड़ा ढलान डियाली सेरा मिलता है, जिसपर कभी बासमती चावल उगता करता था। अब वहां मीलों तक कोई गांव या मकान नहीं है। जो वहां कभी खेती करते थे वे सब चले गए। अब केवल बंजर खेतों का फैलाव बचा है। इस प्रकार जनशून्य हुए गांव इन पहड़ों पर कई जगहों मिल जाएंगे, जो हरेला तथा जन-संस्कृ्ति के जन्मस्थान हुआ करते थे। अब केवल कुछ शहरों में जन-संकृति बचीे है। हम सब आशा लगाए हैं कि उसका अंत नहीं होगा।