लाखी राम अमोला//
महाराजा सुदर्शन शाह और अंग्रेजों के बीच हुई “सिंगोली संधि” के अनुसार जब अलकनंदा का पूरबी भाग अंग्रेजों के प्रशासनिक क्षेत्र में चला गया तो राजा सुदर्शन शाह श्रीनगर(गढ़वाल) की पुरानी राजधानी छोड़ भिलंगना और भागीरथी के तट गणेश प्रयाग अर्थात पुरानी टिहरी के चनाखेत में नई राजधानी स्थापित करने आया, तमाम लाव लश्कर के साथ राजा के मंत्री, संतरी, लड़ाके, भंडारी, बोजेर, महावत, इत्यादि भी साथ-साथ चले आये थे, करीब बारह वर्षीय बालक (रूपा) रूपराम अमोला जोकि अपनी तंगहाली के कारण राजा के भण्डार में पथेर (अनाज भरने वाला) का काम करता था राजा के दल-बल के साथ टिहरी आ पहुंचा, गोरखों का छुट-पुट आतंक अब भी चल रहा था, बताते हैं कि वे कहीं भी, कभी भी मौका पाकर खूंकरी हाथ में लिए टूट पड़ते थे, और लोग अपनी जान बचाने के लिए जहाँ–तहां छुप जाया करते थे कौन कहाँ-कहाँ छुपा है, कई दिनों तक लोगों का पता ही नहीं लगता था|
रूपराम भी अपनी प्राण रक्षा हेतु पुरानी टिहरी से खांड खाले होते हुए जंगल के रास्ते भागते–भागते लोगों से बिछड़कर डिबनू के पीछे की एक पहाडी गुफा (पसेला ओडार) के पास थक हारके छुप कर बैठ गया, काफी दिनों तक वहीँ छुपा रहा, केवल रात को ही पेट की भूख मिटाने के लिए गुफा से बाहर निकलता और दिन को फिर वहीँ छुप जाता था, काफी दिनों के बाद माहौल कुछ शांत होता देख इसी ओडार के पीछे पूरब की ओर ऊंची धार में एक पौराणिक शिलाखंड के पास आकर बैठ गया, दूर-दूर तक कहीं कोई बस्ती नहीं थी, संभवतः इससे पूर्व यहाँ पर श्री नागदेवता की शिलायें मात्र ही रही होगी, रूपा ने कई दिनों तक अकेले इस गुफा और शिला के आस-पास रहकर शिलाखंड को चारों ओर से पत्थरो की छोटी दीवाल बनाकर उसके ऊपर एक बड़ी पठाल से ढक कर मंदिर का आकर दे दिया, और रोज इन्ही शिलाखंडो की पूजा करने लगा|
श्री नागदेवता की इन शिलाओं के बारे में कहा जाता है कि इणियाँ (दयोंसारी) के एक व्यक्ति के पास एक ऐसी गाय थी जो रोज “धण” (जानवरों के झुण्ड) से अलग होकर सीधे इस शिला के पास आती थी और अपना सारा दूध शिला के ऊपर दूहती थी, शाम को जब यह गाय दूध कम देती तो इसका दूध आखिर जाता कहाँ है? क्या कोई जंगल में इसका दूध निकाल देता है? यह देखने के लिए एक दिन वह व्यक्ति स्वयं हाथ में कुल्हाडी लिए छुपते हुए गाय के पीछे-पीछे आया, तो उसने देखा कि गाय स्वयं अपने खुरों से दूध शिला के ऊपर दूह रही है, यह देखते ही उसने गुस्से में कुल्हाड़ी गाय के ऊपर चलादी, गाय तो किनारे होकर बच निकली परन्तु कुल्हाडी शिला के ऊपर जा गिरी और शिला के दो टुकड़े हो गए, तब से यह दो नाग शिलाखंड मंदिर के अन्दर जस के तस विद्यमान हैं और स्थानीय लोग आज इन्ही की पूजा करते हैं|
बताया जाता है कि इणियाँ (दयोंसारी) में इस घटना के कुछ ही दिनों बाद उस व्यक्ति के घर जिसकी गाय श्री नागदेव की शिला के ऊपर अपना दूध दूहती थी ऐसी कोई दैवीय आपदा आई कि पूरा परिवार, चैन-पशु और खेती-बाडी, सब समाप्त हो गए, और धीरे-धीरे पूरा गाँव भी ऐसी ही दैवीय आपदा की भेंट चढ़ गया, तब से आज तक दयोंसारी का पूरा क्षेत्र बंजर है, कोई वहाँ बसना तो दूर एक रात रुकना भी नहीं चाहता, लोग बताते हैं कि पुराने समय में यदि किसी किसान का कोई पशु अगली फसल नहीं देता था तो उस पशु को दयोंसारी ही छोड़ा जाता था|
रूपराम (रूपा) राजदरवार में अपने पुराने काम पे जाने लगा, रोज ड्यूटी बजाने के बाद डिबनू के श्री नागराजा मंदिर में आ जाता था, गाय- भैंसों को पालने का शौक था, समय बीतता गया रूपा ने ब्याह कर लिया तो दो पुत्र हुए मंगला और बाला, परिवार जैसे-जैसे बढ़ता गया गायों और भैंसों को पालने का काम किया, पाल्या डिबनू में एक छोटा मकान और वाल्या डिबनू में एक छान श्री नागराजा मंदिर के पास ही बना दी थी, कहीं परिवार के साथ स्वयं रहते थे कहीं गाय भैंसे रहती थी मंगला और बाला दोनों पुत्र डिबनू से मोकरी तक गाय-भैंसों को चराने जाया करते, आगे मंगला और बाला की भी शादियाँ की गई, बाला दत्त ने कोई औलाद न होने के कारण एक के बाद एक पांच शादियाँ की क्योंकि पहली तीन शादियों से कोई औलाद नहीं हुई जबकि चौथी शादी से केवल एक बेटी हुई, पांचवी शादी पाटा से थी जिससे दो पुत्र कंठु और नागेश्वर हुए, व दोनों के एक-एक पुत्र जगदीश व गुरुप्रसाद हुए, जबकि मंगला नन्द अमोला की एक मात्र संतान दामोदर थी, दामोदर की दो पत्नियाँ थी हंशा और रुपली, पहली पत्नी हंशा से दो पुत्र सुरेशा और पातेराम हुए, सुरेशा की जवानी में ही मौत हो गयी थी, जबकि पातेराम की शादी अठूर के खांड गाँव में तुलशा के साथ हुई थी जिसकी दो बेटियां राधा और रुक्मणि होने के बाद मौत हो गयी थी और तुलशा की बड़ी बेटी राधा की भी दो बच्चे इन्द्रा और शम्भू होने के बाद ससुराल में मौत हो गयी थी, जिसके कुछ समय बाद छोटी बहन रुक्मणि की भी ब्याह से पहले ही मौत हो गयी थी, तुलशा और उसकी दोनों बेटियों की मौत के बाद पातेराम ने तुलशा की ही छोटी बहन छुम्मा से शादी की जिसके आठ बच्चे शाकुम्बरी, बिशम्बर, चन्दा, पदम् दत्त, कादंबरी, विद्या दत्त, चिरंजीव लाल व लाखी राम हुए, दामोदर की दूसरी पत्नी रुपली से भी दो पुत्र महिमा नन्द और महेश्वर दत्त हुए, महिमा नन्द की भी दो शादियाँ थी पहली पत्नी से बाचस्पति, कीर्ति दत्त व शांता हैं जबकि दूसरी पत्नी से मूर्ति राम व थेपडी हैं जबकि महेश्वर दत्त के आठ बच्चे शोभा, चंदरमोहन, गोविन्दराम, पीताम्बर दत्त, कमली, सुन्दरी, जूरी व रोशनी हैं, गोविन्दराम अमोला गढ़वाल रैफ़ल में थे, जो १९६५ में भारत, पाकिस्तान युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुए थे, श्री नागराजा मंदिर के पास बाद में उनका स्मारक उनके छोटे भाई श्री पीताम्बर दत्त अमोला द्वारा बनवाया गया |
रूपराम के वंशज बताते हैं कि राजा के एलकार ने एक दिन स्वयं आकर श्री नागराजा मंदिर के चारों ओर कठिया गाँव, बागी व कोंड की सीमा के उपरान्त इंगित करते हुए बताया था कि यह जमीन रूपराम अमोला के नाम है, जिस जमीन पर रूपराम के वंशज अपनी खेती-बाडी व पशु चराया करते थे, ८० रुपये मामला भरना पड़ेगा, उस जमाने में एक साथ इतनी बड़ी रकम चुका पाना बहुत मुश्किल था और कई सालो तक इतनी बड़ी रकम जुटा पाना भी संभव नहीं था, कितना टैक्स दे सकते हैं उतनी ही जमीन तुम्हारे नाम रखी जाएगी? जब दामोदर से यह से पूछा गया तो उसने कहा फिलहाल कर्जपात कर करीब आधा तो दे सकते हैं, तब जाकर ४० रुपये (मामला) टैक्स ही चुकाया जा सका था, बाकि की बची हुई जमीन पांगर, बालमा व बुड़ोगी के लोगों में जो उस वक्त राजशाही को टैक्स देने को तैयार थे तीन बराबर हिस्सों में बाँट दी गई, कर्ज उतारने के फेर में दामोदर कई-कई महीनो तक अपनी गाय-भैंसों के साथ जंगलों में ही पड़ा रहता था, परन्तु बैसाख महीने की एक गते से पहले श्री नागदेवता के स्नान व पूजा के लिए अवश्य घर पहुँच जाता था|
कालांतर में श्री नागदेवता की त्रिशूल के ऊपर चांदी की जडित प्रतिमा बनवाकर एक धार्मिक प्रथा हमेशा के लिए विकसित की गई, जिसमे हर साल बैसाख महीने की एक गते डिबनू सहित आस-पास सभी गावों के लोग प्रातः चार बजे इकठ्ठा होकर ढोल, नगाड़े व अन्य पौराणिक वाद्य यंत्रों के साथ पुरानी टिहरी के संगम में इस प्रतिमा को लेकर जाते थे, और गंगा जल से नहलाकर पवित्र करते थे, गंगा स्नान के बाद संगम से ही श्री नागदेवता की शोभायात्रा आस-पास के गावों से होती हुई पुनः डिबनू श्री नागराजा मंदिर में विश्राम के लिए लाई जाती थी, बैसाख महीने की तीन गते श्री नागदेवता मंदिर के पास मेला लगता था, दुकाने सजती थी, ढोल, नगाड़ों के साथ लोग मंडाण में नाचते-गाते थे, काफी दूर–दूर से लोग नागदेवता के दर्शन के लिए आते थे, श्रीफल, फूल प्रसाद, पूड़ी, कचौड़ी, पापडी, भेंट इत्यादि चढाते थे, और आशीर्वाद लेते थे, परन्तु अब समय के साथ-साथ लोगों में इस पावन यात्रा के प्रति शालीनता कम और विकृत उल्लास ज्यादा बढ़ रहा है, हालाँकि मंदिर परिसर के अन्दर बलि प्रथा, मांस, मदिरा, भांग, इत्यादि बंद तो कर दी गई है फिर भी कुछ लोग इन प्रतिबंधित चीजों को साथ लेकर इस पवित्र स्थल पर पिकनिक मनाने चले आते हैं, जो कि उचित नहीं है|
टिहरी बाँध के कारण इन पौराणिक परम्पराओं मे थोडा परिवर्तन अवश्य हुआ है, संगम झील में तब्दील हो गया तो श्री नागदेवता को स्नान के लिए कोई उचित स्थान नहीं बचा है, बाँध प्रबंधन ने भी डिबनू गाँव को विस्थापित करते समय इस पौराणिक परंपरा के ऊपर कोई ध्यान नहीं दिया, यह भी दुखद है कि वर्षों से श्री नागदेवता की विधिवत स्थापना व पूजा अर्चना करने वाले स्व० श्री रूपराम अमोला के पुजारी वंशजों के लिए कोई जगह नहीं दी गई है, टिहरी बांध प्रबंधन ने रूपराम अमोला के वंशजों की इस जमीन को बाँध निर्माण हेतु अधिग्रहित किया था, क्योंकि बाँध का काम लगभग पूर्ण हो चूका है, अब इस बची हुई जमीन पर टिहरी बाँध को संबद्ध करते हुए बेजा अन्य संस्थान खोले जाने लगे हैं, ताकि अधिग्रहित की गई जमीन को उपयोग में दिखाया जा सके, जोकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के विरुद्ध है, इसके अलावा जबकि मंदिर परिसर के आस-पास की खाली पडी बची हुई जमीन पर अन्य कई अन्य स्थानीय ठेकेदार, प्रॉपर्टी डीलर भी गिद्ध दृष्टि लगाये बैठे हैं, जो कि अमोला वंशजों के लिए काफी पीड़ा और दुःखदायी है|
(लेखक स्व० श्री रूप राम अमोला “डिबनू” के पड़पोते हैं )