पता नहीं क्यों पर ज्यादातर स्थितियों में हम मूल अभिलेख का संज्ञान लेने की जगह सुनी-सुनायी व अन्य स्रोतों से उपलब्ध जानकारियों को उपयोग में लाते हैं और ऐसा करने में हम प्राय: ज्यादा सहज भी होते हैं। विधीय पक्षों में ऐसा ज्यादा होता है ओर ऐसा शायद इन अभिलेखों में कठिन या जटिल भाषा का उपयोग होने के साथ-साथ इसका आसानी से उपलब्ध न होने के कारण होता है। तभी तो हम में से ज्यादादार लोग संसद द्वारा पारित किसी अभिलेख को पढऩे की जगह समाचार पत्रों में उक्त की व्याख्या पढ़ कर उस अधिनियम से होने वाले फायदों या नुकसान के बारे में अपनी धारणा बना लेते हैं, पर समाचार पत्रों में छपी व्याख्या मूल अभिलेख से भिन्न भी तो हो सकती है।
यहां आपदा प्रबन्धन के संदर्भ में हम में से ज्यादातर इसी प्रकार की भ्रांति से ग्रसित प्रतीत होते हैं। 2005 में प्राख्यापित अधिनियम के अंतर्गत की गयी व्यवस्थाओं के अनुसार हमें पता है कि राष्ट्र, राज्य व जनपद स्तर पर आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों की व्यवस्था है पर अधिनियम को ध्यान से न पढऩे के कारण हम में से कम ही लोगों को पता है कि जनपद प्राधिकरण के अलावा किसी अन्य प्राधिकरण को अधिनियम के द्वारा कोई भी कार्यकारी शक्तियां नहीं दी गयी है। अत: राष्ट्रीय व राज्य प्राधिकरण मूलत: निति निर्धारक संस्थायें हैं, जबकि उक्तानुसार बनायी गयी नीतियों के क्रियान्वयन का समस्त उत्तरदायित्व राष्ट्रीय व राज्य कार्यकारी समितियों को दिये गये हंै।
जैसा कि पहले कहा गया है मूल अभिलेख का अध्ययन न करने के कारण अधिनियम के द्वारा किये गये कार्यो व उत्तरदायित्वों के विभाजन को ज्यादातर राज्यों के आपदा प्रबन्धन के कर्ता-धर्ता ठीक से नही समझ पाये हैं, जिसके कारण इन राज्यों के द्वारा स्थापित राज्य प्राधिकरणों ने कार्यकारी समिति के अधिकारों व शक्तियों पर अतिक्रमण करना आरंभ कर दिया है, जो कि विधि संगत न होने के साथ ही आपदा प्रबंधन अधिनियम के रचनाकारों की मूल भावना के विपरीत है।
इसके अलावा यह भारत के संविधान द्वारा प्रतिपादिन शक्तियों के संतुलन हेतु किये गये कार्यो के विभाजन की भावना का भी आदर नहीं करता है। अत: न्यायालय में चुनौती दिये जाने पर इन प्राधिकरणों द्वारा राज्य कार्यकारी समिति के अधिकारों पर अतिक्रमण करके किये जा रहे कार्यो को कभी भी निरस्त किया जा सकता है। इससे जहां एक ओर आपदा प्रबंधन का कार्य कर रहे कार्मिकों के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, तो वहीं दूसरी ओर आपदा जोखिम न्यूनीकरण संबंधित कार्यो के क्रियान्वयन की लय टूट जायेगी।
यहां इस तथ्य पर गौर किया जाना आवश्यक है कि अधिनियम का भली-भांति अध्ययन कर उक्त के अंतर्गत की गयी व्यवस्थाओं को ठीक से समझने वाले राज्यों ने उनके राज्य प्राधिकरणों के क्रियाकलापों को अधिनियम द्वारा प्रदत्त उत्तरदायित्वों के अनुरूप ही रखा है। उड़ीसा, गुजरात व आसाम ऐसे ही राज्यों की श्रेणी में आते हैं। इन राज्यों ने आपदा प्रबन्धन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण क्षमता विकास जागरूकता, अध्ययन व शोध सम्बन्धित कार्यो के लिये पृथक से आपदा प्रबन्धन संस्थानों की स्थापना की है और इनकी कमान राज्य कार्यकारी समितियों को दी है।
इस लिहाज से देश के आपदा प्रबंधन सम्बन्धित परिदृश्य पर नजर डालने पर उत्तराखंड की स्थिति अधिकांश राज्यों से बेहतर नजर आती है। राज्य गठन से ठीक पहले 1998 व 1999 में ऊखीमठ, मालपा व चमोली की आपदाओं का दंश झेलने के कारण यहां के राजनेता व ब्यूरोक्रेट आपदा प्रबन्धन के महत्व को भली भांति समझ गये थे।
तभी तो राज्य गठन के साथ ही यहां पृथक आपदा प्रबंधन विभाग की स्थापना की गयी और उत्तराखंड ऐसा करने वाला देश का पहला राज्य था, जिसका उदाहरण आज भी दिया जाता है। यहां यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि देश के ज्यादातर राज्यों में आज भी पृथक आपदा प्रबंधन विभाग नहीं है और ज्यादातर में आपदा प्रबंधन राजस्व या भू-राजस्व विभाग का एक भाग है।
आज कोई संज्ञान में ले या न ले, पर उत्तराखंड के द्वारा 2005 में संसद द्वारा पारित आपदा प्रबंधन अधिनियम से पहले अपना स्वयं का उत्तरांचल आपदा न्यूनीकरण, प्रबंधन तथा निवारण अधिनियम भी प्राख्यापित कर लिया था, जो आज भी प्रभावी है।
इसी के साथ आपदाओं के कारण निरंतरता में होने वाले नुकसान को कम या सीमित करने में आपदा पूर्व किये जाने वाले क्षमता विकास, नियोजन, जन-जागरूकता, शोध व अध्ययन के महत्व को समझते हुए उत्तराखण्ड में राज्य गठन के साथ ही आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र की स्थापना की गयी तथा कालांतर में इस केन्द्र की गतिविधियों में निरन्तरता लाने के उद्देश्य से इसे आपदा प्रबन्धन विभाग के अन्तर्गत स्वायत्तशासी संस्थान का स्वरूप प्रदान किया गया। वर्तमान व्यवस्थाओं के अनुरूप राज्य कार्यकारी समिति के अध्यक्ष इस केन्द्र के शासी निकाय (Governing Body) के अध्यक्ष हंै। अत: यह केन्द्र आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 द्वारा राज्य कार्यकारी समिति को दिये गये उत्तरदायित्वों के निर्वहन का विधि संगत व सशक्त माध्यम है।
आपदा प्रबन्धन के क्षेत्र में हमारे देश में स्थित शोध, शैक्षणिक व तकनीकी संस्थानों के कार्यो पर सरसरी निगाह डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबन्धन केन्द्र द्वारा किये गये कार्य अन्य किसी से कही ज्यादा स्तरीय व गुणवत्ता पूर्ण रहे हैं। आपदा प्रबन्धन के क्षेत्र में अध्ययन व शोध के साथ-साथ जन जागरूकता व जन शिक्षा के क्षेत्र में इस केन्द्र द्वारा किये गये कार्यो की आज भी देश-विदेश में मिसाल दी जाती है।
यहां उल्लेख करना उचित होगा कि इस केन्द्र के द्वारा व्यावसायिक रूप से प्रदर्शित The Silent Heroes के अलावा कई अन्य मनोरंजक व शिक्षाप्रद फिल्मों का निर्माण किया है जो अपने आप में किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है। शायद ही देश का कोई अन्य सरकारी संस्थान ने इस प्रकार का कोई भी कार्य किया हो। ज्यादातर के खाते में उनके द्वारा किये गये कामों का ढोल पीटने वाली डाक्युमेन्टरी ही आएगी।
हमने अपनी बात मूल अभिलेख को न पढऩे की अपनी कमजोरी से शुरू की थी। पता नहीं क्यों पर मूल अभिलेख के सहजता से उपलब्ध होने पर भी हम उसमें निहित तथ्यों की व्याख्या अपने हिसाब से, अपनी स्वंय की समझ से करने लगते हैं। अब यह सब अखबारों व समाचार चैनलों तक तो ठीक है, पर प्रशासनिक कार्यो के लिये तो उपलब्ध विधिक अभिलेखों को ज्यों का त्यों उद्यरत किया ही जाना चाहिए।
होना तो चाहिये पर प्राय: ऐसा होता नहीं है। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से सहज ही हो जाती है कि हाल उत्तराखण्ड शासन के आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास विभाग द्वारा दिनांक 11 मई, 2018 को सचिव के हस्ताक्षरों से निर्गत शासनादेश संख्या-1355 /XVIII -(2)/2018-03(2)/2016 तथा संख्या-1356/XVIII-(2)/2018-03(2)/2016 के अनुसार ”भारत सरकार द्वारा आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 के अंतर्गत राज्य में आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबन्धन के क्षेत्र में नीति-निर्धारण, कार्यो के सम्पादन व इस सम्बन्ध में उपायों को प्राकृतिक आपदा से प्रभावित भागों में प्रभावी रूप से क्रियान्वयन हेतु उत्तराखण्ड राज्य आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण का गठन किया गया है।”
आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के प्रावधानों को जानने वाले तथा विधि का ज्ञान रखने वाले व्यक्ति मानेंगे कि उपरोक्त शासनादेश द्वारा की गयी राज्य प्राधिकरण के कार्यों की व्याख्या विधि सम्मत नहीं है और स्थापित विधीय व्यवस्था के अनुसार संसद द्वारा प्राख्यापित उभिलेखों में संशोधन या परिवर्तन करने का अधिकार संसद के अलावा किसी अन्य को भी नहीं है। ऐसे में पता नहीं कैसे और किस अधिकार से हमारे विभाग से राज्य प्राधिकरण के कार्यो को इस तरह परिभाषित कर दिया। किया जैसे भी हो, पर कर तो दिया है और जो किया है, वह सही भी नहीं है। ऐसे में इस शासनादेश को विधिसम्मत मानना व इसके अनुरूप इस शासनादेश में इंगित अन्य कार्यो को करना कितना औचित्यपूर्ण होगा, इसका निर्णय तो न्यायपालिका द्वारा ही किया जा सकता है।
इससे पहले हम बात आपदा प्रबंधन हेतु संस्थागत व्यवस्था की कर रहे थे। आप मानेंगे कि कोई भी संस्था उसके द्वारा किये गये कार्यो व उसमें कार्यरत कार्मिकों के ज्ञान व अनुभव के आधार पर संबन्धित क्षेत्र में पहचानी जाती है और समय बीतने के साथ व्यक्तिगत अनुभवों की अपेक्षा संस्थागत अनुभव, संस्मरण व ज्ञान ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। यही कारण है कि किसी भी संस्था को अपनी पहचान बनाने में समय लगता है। वैसे तो किसी भी संस्था के जीवन में 15-20 वर्षो की कोई अहमियत नहीं होती है पर आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबन्धन केन्द्र में कार्यरत कार्मिकों ने अपने परिश्रम व कर्तव्य निष्ठा से इस अल्प अवधि में केन्द्र को जिस मुकाम पर पहुॅचाया है वह निश्चित ही औरों के लिये एक मिसाल है।
ऐसे में सामान्य स्थितियों में होना तो यह चाहिये था कि इस केन्द्र के कार्यो में व्यापकता लाने के लिये इसका सुदृढ़ीकरण किया जाये, इसे अधिक संसाधन उपलब्ध करावये जाये ताकि यह आपदा प्रबन्धन के क्षेत्र के अग्रणी संस्थान के रूप में देश-दुनिया में स्थापित हो सके। जब मात्र 07-08 व्यक्तियों व 02-04 करोड़ रुपये के सालाना बजट में केन्द्र इतना सब कर सकता है तो ठीक-ठाक मानव संसाधन की व्यवस्था होने पर इसके कार्यो की प्रभाविकता निश्चित ही बढ़ सकती है। फिर इसके लिए अलग से पदों के सृजन की भी आवश्यकता नहीं है। वर्तमान में केंद्र के अंतर्गत सृजित पदों में से 08 पद खाली हैं। केन्द्र के सुदृढ़ीकरण का आरंभ इनको भरनेे भर से किया जा सकता है, पर यहां जो सहजता से किया जा सकता है, वह किया नहीं जाता है और हम सरल समस्या को जटिल बनाकर उसका समाधान करने या ढूंढने के आदी हो गये हैं। इसके लिए हम किसी भी हद तक जाने को तैयार नजर आते हैं। यदि ऐसा न होता तो यहां उत्तराखण्ड शासन द्वारा 11 मई, 2018 को निर्गत शासनादेश में राज्य प्राधिकरण के कार्यो को आपदा प्रबन्धन अधिनियम में उल्लेखित कार्यो के अनुरूप ही दर्शाया जाता, न कि इस तरह से तोड़-मरोड़ कर।
अब हर कार्य का एक उद्देश्य होता है, शासनादेश में प्राधिकरण के उत्तरदायित्वों को ठीक से प्रस्तुत नहीं किया गया तो क्यों आखिर इससे किसको और क्या फायदा पहुंचता है।
खैर फायदा चाहे जिसे पहुंचे, प्राधिकरण के कार्यो को अपने हिसाब से प्रस्तुत करके उक्त शासनादेश के द्वारा प्राधिकरण के अंतर्गत कुछ पदों का सृजन करते हुये यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि प्राधिकरण के अस्तित्व में आ जाने के बाद वर्ष 2000 से निरन्तरता में कार्य कर रहे आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबन्धन केन्द्र का कोई औचित्य नहीं रह गया है और इसके अंर्तगत रिक्त पदों को समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
राज्य प्राधिकरण एक नयी संस्था, कब-बनेगी, नहीं बनेगी, कैसे काम करेगी, कैसा स्वरूप लेगी, कितनी कारगर होगी, इन यक्ष प्रश्नों के उत्तर आज किसी के पास नहीं हैं, पर इन महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर ढूंढने के बजाय यहां हर कोई आश्वस्त नजर आता है कि आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र की अब आवश्यकता नहीं रही।
नई संस्थाओं के अस्तित्व में आने में कोई बुराई नहीं है, पर इससे पहले से चली आ रही संस्था को औचित्यहीन बता देना हास्यास्पद ही नहीं, मानसिक दीवालियेपन का सबूत भी है। साथ ही यह कि उत्तराखंड में रेशम विकास व मछली पालन के नाम पर चल रहे विभागों पर किसी का ध्यान नहीं जाता और औचित्यहीन नजर आता है तो यह केन्द्र जिसने अपने कार्यो से हमेशा राज्य का मान बढ़ाया है।
फिर शायद इन सब लोगों में किसी संस्था के विकास क्रम की समझ भी नहीं हैं। इनके लिए न तो संस्थागत यादाश्त का कोई महत्व है और न ही संस्थागत अनुभव का। ऐसे में बनाये जा रहे राज्य प्राधिकरण के भविष्य का आंकलन आप स्वयं ही कर सकते हैं।
अब इसे विडम्बना नहीं तो और क्या कहेंगे कि एक ओर देश का प्रधानमंत्री आपदा जोखिम न्यूनीकरण को विकास से जुड़ा विषय बताते हुए विकास को गति देने के लिए इससे जुड़ी संस्थाओं के सुदृढ़ीकरण करने तथा उनके अनुभवों का लाभ लेने की बात करता है तो वहीं उसी पार्टी द्वारा शासित राज्य में आपदा प्रबंधन के क्षेत्र के देश के अग्रणी संस्थान को बंद कर देने की बात होती है और विरोध में कहीं से कोई आवाज नहीं उठती।
राजनेताओं व ब्यूरोक्रेटों को किसी संस्थान के खुलने-बंद होने से अवश्य ही कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ता, पर आम जनता का क्या, उसे भी तो किसी न किसी को आज नहीं तो कल जवाब देना ही होगा।