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उत्तराखंड  आंदोलनकारी का यूँ चले जाना

June 13, 2017
in पर्वतजन
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जगमोहन रौतेला

एक गरीब आदमी को कभी अपना सब कुछ दाँव  पर लगाकर सामाजिक और राजनैतिक आन्दोलनों में भागीदारी नहीं करनी चाहिए . जीवन के परेशानी व कष्ट भरे दिनों में यह समाज उसे अकेला छोड़ देता है . कोई उसकी सुध तक नहीं लेता और न कोई समाज व लोगों के प्रति किए गए उसके योगदान को याद ही करता है . आप आर्थिक रुप से सक्षम हैं तो यह समाज हमेशा आपको पूजेगा और यशोगान भी करेगा , नहीं तो आपको बेकार समझ कर किनारे कर देगा ” . गहरी पीड़ा व अवसाद में डूबे ये शब्द हैं गुर्दे की बीमारी से ग्रसित व एक कमरे में नितान्त एकाकी जीवन बिताने को विवश रहे उत्तराखण्ड आन्दोलन के एक बड़े नेता रणजीत विश्वकर्मा के थे . जब उनके दोनों गुर्दे खराब हो चुके थे और उनका शेष जीवन हल्द्वानी के बेस अस्पताल में हफ्ते में तीन दिन हो रहे डायलिसिस के सहारे चल रहा था . उक्रान्द के सैकड़ों कार्यकर्ताओं के वे रणजीत दा आज 13 जून 2017 को बीमारी से ग्रसित अपने कृश्काय देह से मुक्त हो गये . हल्द्वानी के बेस अस्पताल में डायलिसिस के दौरान उनकी मौत हो गई .
कभी उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के तेज – तर्रार नेताओं में गिने जाने वाले रणजीत विश्वकर्मा को बीमारी के दौरान ” अपनों ” ने ही भुला दिया था . इसका उनको बहुत मलाल था , पर वे अपने मुँह से इस बारे में एक शब्द नहीं बोलते थे . क्या आपकी पार्टी के बड़े नेता आपसे मिलने आते रहते हैं ? इस सवाल का वे कोई जवाब नहीं देते थे , लेकिन सवाल के जवाब में डबडबाई उनकी ऑखें बिना कहे ही सब कुछ कह देती थी . पार्टी के बड़े नेताओं के इशारे पर उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान कहीं भी जाने व कुछ भी करने को तैयार रहने वाले रणजीत दा ने कभी अपनी गृहस्थी के बारे में सोचा तक नहीं . शादी नहीं करने के सवाल पर वे कहते  कि राज्य बनाने का जुनून सिर पर ऐसा सवार था कि न कभी इस ओर ध्यान गया और न ही घर – परिवार वालों ने कभी इस बारे में दबाव ही डाला .
वह मॉ- बाप की अकेली संतान थे और अब मॉ- पिता जी भी नहीं थे . सो घर छोड़कर अकेले ही डायलिसिस करवाने के लिए हल्द्वानी में किराये के कमरे में रह रहे थे . यह कमरा उन्हें उक्रान्द के महानगर अध्यक्ष प्रताप सिंह चौहान ने दिया था . वे इसका किराया नहीं लेते थे . रणजीत दा चौहान दम्पत्ति का बहुत आभार मानते हुए कहते थे कि दोनों ही बहुत भले हैं . मेरा पूरा ख्याल रखते हैं . दूसरे के लिए इतना कौन करता है इस स्वार्थी हो चुके जमाने में . चौहान के साथ ही वे दो अन्य लोगों श्यामसिंह नेगी व दिनेश भट्ट का भी आभार जताना नहीं भूलते थे जो उनकी हर तरह से मदद करने को हमेशा तैयार रहते थे . भट्ट भी उक्रान्द के नैनीताल जिलाध्यक्ष हैं . पर पार्टी के वरिष्ठ व पुराने साथियों द्वारा गम्भीर बीमारी के दिनों में उन्हें एक तरह से भूला देने की पीड़ा व कसक उनके मन में हमेशा रही .
रणजीत दा उक्रान्द के गठन की प्रक्रिया के समय से ही काशीसिंह ऐरी के साथ हमेशा जुड़े रहे . जब 25 जुलाई 1979 को मसूरी में अलग उत्तराखण्ड राज्य की मॉग को लेकर उक्रान्द का विधिवत गठन किया गया था तो उससे पहले पार्टी के राजनैतिक प्रारुप को लेकर डॉ. डीडी पंत के निर्देश पर वह ऐरी के साथ पंत जी के निवास में नैनीताल में घंटों चर्चा व विचार विमर्श किया करते थे . कई महीनों तक इस पर गहन चिंतन करने के बाद ही राज्य की मॉग को लेकर एक क्षेत्रीय राजनैतिक दल बनाने पर सहमति बनी थी . ऐरी व विश्वकर्मा दोनों ही उन दिनों नैनीताल में कुमाऊँ विश्वविद्यालय के छात्र थे .
डॉ. पंत जी ऐरी व विश्वकर्मा से कहते थे तुम लोग युवा व ऊर्जावान हो तो राज्य आन्दोलन से जुड़ो . यही कारण था कि उनकी प्रेरणा से ये दोनों राज्य आन्देलन से जुड़े . दोनों ही पिथौरागढ़ जिले के सीमान्त के निवासी होने के कारण स्वाभाविक मित्र बन गए थे . पर दुर्भाग्य से जब 24 व 25 जुलाई 1979 को उक्रान्द के गठन को लेकर मसूरी में दो दिवसीय सम्मेलन हुआ तो दोनों ही उसमें हिस्सेदारी नहीं कर पाए .
उन दिनों वनों की नीलामी  के खिलाफ उत्तराखण्ड में आन्दोलन चल रहा था और उसी लीलामी का विरोध करते हुए आन्दोलनकारियों ने कथिततौर पर नैनीताल क्लब में आग लगा दी . तब कुमाऊँ विश्वविद्यालय के कुलपति वीसी सिंघल थे , जो काशी सिंह ऐरी से बहुत नाराज थे क्योंकि ऐरी उनकी कार्य प्रणाली के विरोध में एक छात्र नेता के रुप में हमेशा आगे रहते थे . तब एक साजिश के तहत प्रशासन से मिलीभगत कर के सिंघल ने ऐरी को नैनीताल क्लब ” अग्नि काण्ड ” में गिरफ्तार करवा दिया . बकौल विश्वकर्मा उस मामले से ऐरी का कोई लेना – देना नहीं था . वे उस समय घटना स्थल पर भी मौजूद नहीं थे . ऐरी की गिरफ्तारी के बाद उन्हें जमानत पर छुड़वाने के लिए ही अपने स्तर से विश्वकर्मा दौड़-भाग में लगे रहे और इस तरह दोनों ही मसूरी नहीं जा पाए . पर वे इस बात पर फक्र महसूस करते थे कि वे उक्रान्द के संसदीय बोर्ड के संस्थापक सदस्य थे और ऐरी संस्थापक महामन्त्री .
पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी ब्लाक के ग्राम – जौसा ( गॉधीनगर ) में स्वतंत्रता सेनानी नरीराम विश्वकर्मा और आनन्दी देवी के यहॉ 15 अगस्त  1955 को एक बेटे ने जन्म लिया . जिसका नाम रणजीत रखा गया . ग्राम जौसा से तब नरीराम के अलावा दो और लोग भीमसिंह कुँवर व दलीप सिंह भण्डारी भी स्वतंत्रता आन्दोलन के सेनानी थी . जो सीमान्त क्षेत्र के लिए एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी . इसी वजह से जौसा गॉव का नाम गॉधीनगर भी रखा गया . स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नरीमन जी को डेढ़ साल की जेल की सजा भी हुई और घर की कुर्की तक अंग्रेजों ने की .
आजादी के बाद कई स्वतंत्रता सेनानियों को तराई और दूसरी जगहों पर 15 एकड़ तक जमीनें दी गई , लेकिन काफी दौड़ – भाग के बाद भी उन्हें कहीं जमीन नहीं मिली . एक बार जमीन आवंटित किए जाने की सूचना देकर उन्हें गुलरभोज ( ऊधमसिंह नगर ) बुलाया गया . जब वे तय दिन वहॉ पहुँचे तो कोई नहीं मिला . जमीन आवंटन की आस में नरीमन जी तीन दिन तक वहां  जाते रहे . पर न जमीन मिलनी थी और न ही उन्हें मिली . स्वतंत्रता सेनानी के रुप में उन्हें 265 रुपए पेंशन मिलती थी . उससे ही बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चलता था . उनकी मृत्यु 8 अप्रैल 1981 को हुई .
उत्तराखण्ड आंदोलन के दिनों को याद करते हुए विश्वकर्मा कहते थे ,”   उक्रान्द के गठन के बाद आंदोलन के लिए पार्टी झंडे के लिए रुपए तक नहीं होते थे . लोगों से चंदा माँग  कर पूरा करते थे . लोग थोड़ा बहुत चंदा दे तो देते थे , लेकिन राज्य की मॉग करने पर मजाक भी बहुत उड़ाते थे . डीडी पंत ने जब 1980 में अल्मोड़ा सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा तो प्रचार के लिए पिथौरागढ़ में एक कमरा किराए पर लिया . जिसका किराया तब चुका पाये जब ऐरी 1985 में पहली बार डीडीहाट से विधायक बने . विधायक बनने के बाद जो पहला वेतन- भत्ता मिला उसी से पॉच साल बाद किराया दिया “.
भाबर – तराई में आन्दोलन व पार्टी को मजबूत करने लिए विश्वकर्मा 1983 में हल्द्वानी आ गये . जहॉ वे 1991 तक रहे . इस दौरान वह लगातार पार्टी के नैनीताल जिलाध्यक्ष रहे . राज्य की मॉग को तेज करने के लिए 1991 में पार्टी ने उत्तराखण्ड में 72 घंटे के बंद और चक्का जाम की घोषणा की . उस दौरान विश्वकर्मा को खड़क सिंह बगडवाल और सूरज कुकरेती ( कोटद्वार वाले ) के साथ 24 फरवरी 1991 को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और 18 मार्च 1991 को इन लोगों को बिना शर्त रिहा किया गया . जेल से रिहा होते ही विश्वकर्मा को गॉव वापस लौटना पड़ा , क्योंकि इनकी मॉ का स्वास्थ्य बहुत ज्यादा खराब था . बीमारी से लड़ते हुए ही 27 नवम्बर 1994 को मॉ आनन्दी देवी की मौत हो गई . मॉ के वार्षिक श्राद्ध के बाद विश्वकर्मा उक्रान्द के पिथौरागढ़ जिलाध्यक्ष रहे .
उक्रान्द व उत्तराखण्ड संयुक्त संघर्ष समिति ने जब 1996 में लोकसभा व पंचायत चुनावों का बहिष्कार किया तो विश्वकर्मा भी पार्टी के कुछ नेताओं के साथ गिरफ्तार किए गए और 6 दिन तक जेल में बंद रहे . उसके बाद 1997 में हुए त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में इन्होंने भाजपा के नेता व ब्लाक प्रमुख रुद्रसिंह पंडा को मतकोट जिला पंचायत सीट से हराया . तब मयूख महर जिला पंचायत पिथौरागढ़ के अध्यक्ष बने थे . इस दौरान शेराघाट में बाढ़ में बहे पुल निर्माण की मॉग को लेकर 2001 में 14 दिन तक आमरण अनशन भी किया . जिसके बाद सरकार ने पुल निर्माण करवाया . किडनी खराब होने का कारण विश्वकर्मा उस समय किए गये आमरण अनशन को ही मानते थे . पार्टी को जिंदा रखने व उसकी साख बचाए रखने के लिए विश्वकर्मा को 2009 का लोकसभा चुनाव अल्मोड़ा से लड़ना पड़ा था .
राज्य आन्दोलन और राज्य बनने के बाद उक्रान्द की भूमिका कैसी रही ? जैसे सवाल के जवाब में विश्वकर्मा बड़े उदास भरे शब्दों में कहते थे ,” जब आन्दोलन के दौरान 1989 में उक्रान्द उत्तराखण्ड में एक बड़ी राजनैतिक ताकत बनकर सामने आ रहा था तो कॉग्रेस के स्थानीय क्षत्रपों ( जो आज राज्य की राजनीति में निर्णायक भूमिका में हैं ) में खलबली मच गई . उन्हें अपना अस्तित्व खतरे में दिखाई देने लगा . तब उन्होंने उक्रान्द में अपने ऐजेन्टों की घुसपैंठ करवाई . जब 1994 में राज्य आन्दोलन बड़ी तेजी के साथ फैला तो यह खतरा भाजपा के क्षत्रपों को भी लगा . तब उस दौर में भाजपा के ऐजेन्ट भी पार्टी में घुसे . इन लोगों ने ही बड़े सुनियोजित राजनैतिक षडयंत्र के तहत हमारे शीर्ष नेताओं को 1996 में ” राज्य नहीं तो चुनाव नहीं ” जैसा नारा लगवा कर चुनाव बहिष्कार के लिए तैयार किया और पार्टी के बड़े नेता इन्द्रमणि बडोनी और काशीसिंह ऐरी उस झॉसे में आराम से आ गए . उसका नतीजा यह हुआ कि तब उत्तराखण्ड की चार लोकसभा सीटों में से टिहरी और अल्मोड़ा में भाजपा ने कब्जा किया तो गढ़वाल ( पौड़ी ) व नैनीताल सीट पर तिवारी कॉग्रेस विजयी रही . अगर पार्टी ने तब चुनाव बहिष्कार जैसा आत्मघाती राजनैतिक निर्णय न लिया होता तो चार में से तीन सीटों गढ़वाल ( पौड़ी ) , टिहरी और अल्मोड़ा सीटें निश्चित तौर पर उक्रान्द के कब्जे में होती और राज्य की राजनीति ने एक निर्णायक मोड़ की ओर कदम बढ़ाए होते . पर हमारे नेताओं की राजनैतिक नासमझी ने पार्टी को अंधेरे कोने की ओर धकेल दिया . तब के गलत राजनैतिक निर्णय का नुकसान पार्टी को आज भी हो रहा है . लोकसभा और पंचायत चुनावों के बहिष्कार के बाद एक बाद फिर से गलत राजनैतिक निर्णय हुआ , वह था विधानसभा चुनाव लड़ने का “.
गम्भीर रुप से बीमार होने के बाद भी रणजीत विश्वकर्मा राज्य के हालातों पर अपनी नजर बनाए रखते थे . राज्य के हालात आपको कैसे लगते हैं ? इस पर वे कहते  ,” मुझे हालात बहुत अच्छे नहीं लगते हैं . सत्ता में बैठे नेताओं ने राज्य की स्थितियॉ ऐसी बना दी हैं कि उसकी नीतियों को लकवा सा मार गया है . जिन उद्देश्यों को लेकर राज्य आन्दोलन की लगभग साढ़े चार दशक तक एक लम्बी लड़ाई लड़ी गई वह बहुत पीछे धकेल दी गई हैं . दूसरे शब्दों में कहूँ तो राज्य की हर नीति का अंग – भंग कर दिया गया है . राज्य बनने के बाद पलायन की स्थिति और गम्भीर हो गई है . पर कोई भी इस पर गम्भीरता से विचार करने को तैयार नहीं है .सत्ता में बैठे लोग इस बारे में बयानों में चिंता व्यक्त करने के अलावा और कुछ नहीं कर रहे हैं . इन सालों में परिसीमन , राजधानी , धारा – 371 , मूल निवास जैसे ज्वलंत मुद्दों व स्वास्थ्य , शिक्षा , रोजगार जैसे सवाल हॉशिए पर डाल दिए गए हैं .
राज्य में 2026 में विधानसभा सीटों का परिसीमन होगा तब आज के हिसाब से एक बार फिर से पहाड़ की कई विधानसभा सीटें कम होंगी . उसके बाद राज्य का औचित्य ही क्या रह जाएगा ? जब राज्य में परिसीमन हो रहा था , तब परिसीन समिति में राज्य स्तर पर कॉग्रेस , भाजपा के ही सांसद व विधायक थे . पर कोई भी परिसीमन को लेकर गम्भीर नहीं रहा , यदि उन लोगों ने गम्भीरता दिखाई होती तो पहाड़ से छह विधानसभा सीटें कम नहीं होती . इन स्थितियों में राज्य का सांस्कतिक स्वरुप भी पूरी तरह से संकट के घेरे में है “.

*** वे एक पर्वतारोही भी थे ***
रणजीत विश्वकर्मा उत्तर प्रदेश के समय 1977 में एनसीसी की 75वीं बटालियन के छात्र थे . उस समय देश में 21 राज्य थे . हर राज्य से एक – एक एनसीसी छात्र का चयन पर्वतारोहण के प्रशिक्षण के लिए हुआ था . तब इसका एक कैम्प ” हिमालयन माउंटरिंग इस्टूट्यूट “, दारजिलिंग में लगा था . यह इस्टिट्यूट शेरपा तेनजिंग नोर्के ने स्थापित किया था . जिसमें  सेना के जवानों व एनसीसी के छात्रों की संयुक्त ट्रेनिंग हुई थी . ट्रेनिंग में  40-42 छात्र व सेना के जवान शामिल थे . वहॉ के निदेशक दो बार एवरेस्ट फतह कर चुके नवाम गाम्बो थे . विश्वकर्मा के अनुसार ,” कोर्स के दौरान वे टीम के मॉनीटर भी रहे . जिसके तहत उन्हें सवेरे प्रार्थना व ड्रिल आदि करानी होती थी . ट्रेनिंग के बाद उन्हें सबसे बेहतर पर्वतारोही का प्रथम पुरस्कार मिला . जिसे लेफ्टिनेंट जनरल बलराम चौधरी ने उन्हें प्रदान किया था .” ट्रेनिंग के दौरान ही विश्वकर्मा और उनके साथियों ने बेहद कठिन माने जाने वाली ” फै पीक ” पर सफलता पूर्वक चढ़ाई की थी . जो सिक्किम के पश्चिम में स्थित है .
पर्वतारोहण को इसके बाद भी क्यों छोड़ दिया ? के सवाल पर विश्वकर्मा कहते थे कि ट्रेनिंग पाए हम लोगों की विशेष भर्ती सीडीएस के जरिए सेना में होने वाली थी और विश्वकर्मा आदि दूसरे एनसीसी के छात्रों को बताया गया कि इसके लिए अखबारों के माध्यम से विज्ञप्ति निकलेगी और आवेदन करने के बाद ही सीडीएस के माध्यम से भर्ती होगी . पर वह विज्ञप्ति कभी नहीं निकली . बाद में पता चला कि सेना के उच्चाधिकारियों ने ” अपने लोगों ” की भर्ती उस कोटे में करवा दी . जिसके बाद मन में खटास सी पैदा हो गई और पर्वतारोहण को अलविदा ही कह दिया .”  ट्रेनिंग के दौरान विश्वकर्मा की मुलाकात शेरपा तेनजिंग नोर्के से भी हुई .


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