कुसुम रावत//
हां एक और गौरा। लाल माटे वाली अपने पुरानी टिहरी की गौरा…। पुरानी टिहरी और नई टिहरी में लावारिस कुत्तों और बिल्लियों की हमदर्द गौरा। लोग उसे गौरा बुड्ढी भी बोलते थे। कोई उसे गौरा बडी याने ताई बोलता, तो कोई उसे पागल समझ चिढ़ाता भी। वैसे वो बड़ी शांत थी, एक साधु के माफिक। पर जब कोई उससे उलझता तो उसके नॉन स्टाप तीखे शब्द बंदूक से छूटी गोली की तरह किसी को भी ठिकाने लगा ही चैन लेते। पुरानी टिहरी भी एक अजीब नगरी थी। जब टिहरी जिंदा थी तो वो राजा के जुल्मों, चिपको, टिहरी बांध और अनेक आंदोलनों के ढ़ोल दमाऊ और रणसिंघों की आवाज से गूंजती थी और डूबने के बाद भी वह अलग-अलग कारणों से लोगों की यादों में हिलोरें लेती रहती है। उसी कटोरानुमा टिहरी की यादों में से एक तरंग यह लाल माटे वाली गौरा भी है।
कुछ तो खासियत रही होगी अपनी गौरा में, जो टिहरी के मशहूर वकील, विधायक और साहित्यकार कामरेड विद्यासागर नौटियाल ने बरसों पहले गौरा की कहानी लिखी-माटी वाली! जो उत्तराखंड में कक्षा 9 की हिन्दी की पाठ््य पुस्तक ‘कृृतिका’ में पेज संख्या 49 से 55 पर अंकित है। इस संस्मरणात्मक स्मृृति कथा की नायिका एक नाटे कद की अनुसूचित जाति की औरत है। यह एक ऐसी अनोखी औरत के संघर्ष की दास्तान है। पुरानी टिहरी में लाल मिट््टी बेच वह अपना गुजारा करती है। बीमार और बूढ़े पति की देखभाल करती है। यही लाल मिट््टी उसकी आजीविका है। यही उसका धर्म और यही उसका पहचान है। लेखक ने माटी वाली की पीड़ा को टिहरी में बनने वाले बांध से उपजी पुर्नवास की समस्या से जोड़ा। लेकिन कहानी के अंत को इस प्रश्न के साथ छोड़ा कि- टिहरी डूबने पर आखिर लाल माटी वाली कहां जायेगी? उसके पास न तो घर है और न जमीन? ना कोई वैध पात्रता या कोई खसरा खतौनी? जो यह तय करे कि माटी वाली को उसके वाजिब हक के बदले विस्थापन की शर्तों के मुताबिक नई टिहरी में मकान-दुकान-जमीन मिले? इस कहानी के माध्यम से श्री नौटियाल ने दरअसल टिहरी के उन हजारों लोगों के विस्थापन का मुद््दा उठाने की कोशिश की होगी जो टिहरी में पुर्नवास की किसी वैध पात्रता की लकीरों को नहीं छू पाये थे? जिनकी कोई राजनैतिक पहुंच नहीं थी। और ना ही उन लोगों को टिहरी में पुर्नवास के खेल में सक्रिय कोई दलाल मदद को तैयार था? श्री नौटियाल लाल माटी के बाद की कहानी मैं सालों बाद पूरा कर रही हूं- अपने संस्मरण एक और गौरा में! श्री नौटियाल की लाल माटे वाली गुमनाम नायिका दरअसल गौरा की कहानी है।
तो सुनिए लीविंग लीजेंड गौरा को,- गौरा यूं तो हर टिहरी वाले की यादों में रची बसी है- लाल मट््टी हर घर तक पहुंचाने के कारण, पर मेरे मन में उसकी कुछ खास यादें हैं, जिन्होंने मुझे जिंदगी के गहरे अर्थों को समझने में मदद की। मैं आपको उन इंद्रधनुषी रंगों से वाकिफ कराऊं। फिर आप खुद ही तय करें कि आप गौरा को कहां रखेंगे? गौरा मेरे लिए भी एक दिलचस्प स्मृृति है। जिसने मुझे विस्थापन व पुनर्वास की राष्ट्रीय समस्या को मानवीय चश्मे व संवेदना से देखने की दृृष्टि व संवेदना दी। गौरा को देख मैंने उस दौर के आखरी आदमी और हाशिए पर जीने वालों के पुनर्वास की पीड़ा और प्रक्रिया को बड़े नजदीक से देखा और समझा और सालों बाद 2014 में उसे लिखा, क्योंकि विस्थापन ऐसी प्रक्रिया है जो बड़े से बड़े विशाल दरख्तों को हिला देती है। फिर वहां छोटी-मोटी झाडिय़ों और घास-पात की क्या बिसात? मेरी सोच है कि विस्थापन और पुनर्वास सामाजिक से ज्यादा एक मानवीय समस्या है, जिसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती? मेरा तो टिहरी में घर-बार या बाप-दादा की जागीर नहीं थी। हम ताउम्र किराये में रहे, पर टिहरी मेरा शहर था। मेरी पहचान थी। मेरा भावनात्मक सहारा था। टिहरी मेरी धरोहर थी। टिहरी मेरी विरासत थी। वहां के लोग मेरे अपने हैं। वहां मेरे नाते-रिश्ते हैं। वहां के पत्थर, पेड़, गली मोहल्ले, लोग-बाग, इमारतें और गंगाजी मुझे सुरक्षा का अहसास दिलाते थे कि हां कुसुम हम तेरे अपने हैं। आज देहरादून में क्या पहचान है मेरी? मैं तो पंख कतरे एक पंछी की तरह हूं। या फिर उस गुमनाम लिफाफे की तरह जिस पर पता भी लिखा है और डाक टिकट भी चस्पा है, पर वह डाक टिकट किसी रियासती फरमान के चलते अब खोटा हो गया है। उस लिफाफे को अब कभी डिलीवर ही नहीं होना है। हां यह मेरी पीड़ा है जिसका कुछ भी टिहरी में नहीं था पर मेरी जड़ें आज भी टिहरी में बसती हैं- झील के गहरे पानी में। तो कदाचित सोचिए टिहरी के उन मूल वांशिदों और गौरा सरीखे लोगों के बारे में जिन्होंने पूरी जिंदगी टिहरी में बिताई और जिनको डूबते वक्त की आपाधापी में कहा गया हो कि- गौरा तुम्हारी क्या पहचान है? कोई तो लेखा जोखा लाओ गौरा! तो तुमको भी कुछ मुआवजा दें? दरअसल गौरा एक सशक्त प्रतीक है पूरे देश में होने वाले विस्थापन के दौरान उजडऩे वालों की पहचान का?
गौरा टिहरी की जीवंत यादों में एक अनकहा, अनगढ़ा और दिलचस्प पन्ना है- अपने टिहरी की आन-बान-शान! उसकी कहानी सुन आप अवाक हो जाएंगे, क्योंकि आज ”लाल माटे वाली गौरा” मानवीय मूल्यों की कसौटी पर उस ऊंचाई पर खड़ी है, जहां पहुंचने को बड़ा लम्बा सफर करना होता है। या यूं कहो मानव जीवन की जन्म जन्मांतर की लंबी यात्रा में प्राणी मात्र हेतु ”बेशर्त प्यार और करुणा के जज्बे की चाहना ही” वह उच्चतम कसौटी है, जिसे पा सिद्धार्थ गौतम लंबी अंर्तयात्रा के बाद ”बुद्ध” बने। बेशर्त और निस्वार्थ प्यार की ऊंचाईयों पर पहुंच ही जीसस सूली पर चढ़कर कह सके थे कि- ”हे प्रभु उनको माफ करना जो यह नहीं जानते कि वो क्या कर रहे हैं?” गौरा को सालों साल देख मुझे कभी-कभी रश्क होता था कि कहां से परम प्रभु ने इस गौरा को इतना निस्वार्थ और बेशर्त प्रेम दिया है, जो टिहरी के लावारिस निरीह कुत्ते-बिल्लियों पर ओवरफ्लो होता है- हर वक्त उधार, नगद थोक के भाव! सच पूछो तो गौरा एक जीवंत किवदंती है टिहरी के इतिहास की। मैंने अपने किसी कबीरपंथी गुरू-श्री श्री पाठी जी को ही गौरा के माफिक एक कुत्ते को यूं चुपड़ी रोटियां खिलाते देखा था। वह उसे कृष्णानंद बोलते थे। एक टुकड़ा खुद खाते और एक कृृश्णानंद को खिलाते। पर स्वामी जी तो देश की महान गुरू परंपरा से हैं। वह महाराजा पटियाला, महाराजा सोलन समेत कई राजघरानों की गुरू परंपरा से हैं। वह अवधूत हैं, पर गौरा तो एक लाल माटा बेचने वाली बंजारन है। वह क्यों और कैसे इस ऊंची ब्रहममयी अवस्था पर आ खड़ी हुई- जहां सृृष्टि का हर प्राणी उस परमात्मा की सुंदर अभिव्यक्ति जान पड़ती है। स्वामी जी का तो कृृष्णानंद था पर गौरा की तो कुत्ते- बिल्लियों की पूरी फौज फटाका है। मैंने बहुत नजदीक से विचित्र यति-तपस्वी, योगी, महात्माओं और फकीरों को देखा है। मैंने उन गुणी बेशर्त प्यार में डूबी ब्रह्ममयी निगाहों में जिस नूर के दर्शन किये, मुझे कहीं से भी उन निगाहों से फरक नहीं लगी- गौरा की निस्वार्थ आंखें। सच कहूं तो गौरा मुझे ऊंची ही जान पड़ी। क्यों? तो सुनिए-
ये बात उस जमाने की है जब टिहरी में गैस नहीं थी। हर कोई अमीर-गरीब चूल्हे या अंगीठियों पर खाना बनाता था। चूल्हे चौके की सफाई लाल चोपड़ी मिट्टी से होती थी। शहर के लोगों तक लाल मिट्टी कुछ खास लोग पहुंचाते थे। फिर चाहे वो टिहरी के होटलों की भट्टियां हों या घरों के चूल्हे-सब का स्रोत एक ही था। आस पास के गांवों की कुछ अकेली औरतें। अठूर, कोटी या दोबाटा से सर पर लाल मिट्टी के कट्टे और कुदाल रखी इन औरतों को हर कोई पहचानता था। वह रोज सुबह घर से निकलतीं। पूरा दिन ‘माटाखान’ में मिट्टी खोदती। दिनभर उसे बेचती। रात घिरने से पहले घर आ जातीं। उनमें दो खास औरतों से मेरी बचपन से बातचीत होती थी। एक अपनी गौरा और दूसरी कुंती देवी। गौरा की टिहरी में एक भरी पूरी जागीर थी- इस लाल माटे के कारण। क्या गरीब-क्या अमीर। टिहरी का हर घर और दुकानदार गौरा की मिट््टी का ग्राहक था। हर कोई गौरा के इंतजार में रहता। रहता भी क्यों न, लाल मिट्टी सबको जो चाहिए थी। गौरा भी पूरे नियम-कानून और ईमानदारी से शहरभर की जरूरत पूरी करती। गौरा का टिहरी शहर या आस पास के गांव में अपना कोई घर या खेत नहीं था। न ही जमीन का कोई टुकड़ा ही। उसकी झोपड़ी किसी भले आदमी के खेत पर थी। जिसे वह बदले में मिट्टी दे बेगार करती।
बोलते हैं कभी गौरा का भी परिवार था, पर ज्यादा किसी को कुछ मालूम नहीं। हां टिहरी वालों ने उसे सेमल तप्पड़ मोहल्ले की ओर बने आखिरी घर की खोली में देखा है। गौरा के साथ उसका बूढ़ा बीमार पति भी रहता था। जवानी के दिनों में गौरा के सिर पर मिट्टी का कंटर होता। जो उसके शालनुमा साफे के डिल्ले पर टिका होता। यही डिल्ला उसकी घरों से मिली रोटी या कोई छोटी मोटी समूण बांधने के काम आता। और यही डिल्ला उसका पसीना भी पोंछता। यह डिल्ला उसका हमसफर और सहारा था। बाद में कंटर टाट के कट्टे में बदल गया। कंटर बिना ढ़क्कन का था। ढ़क्कन न होने से मिट्टी भरने और निकालने में सहूलियत होती। टिहरी में कोई ऐसा न था जिसे गौरा न जानती हो और जो उसे न जानता हो। टिहरी की रेतीली मिट््टी चूल्हे चौके के काम की ना थी। सो मिट्टी की चाहत में गौरा हर घर का हिस्सा बन गई। टिहरी वाले गौरा ही नहीं उसके कंटर को भी पहचानते थे। उसका पति बीमार रहने लगा था। एक रोज वह मिट्टी बेचकर घर गई। उस दिन उसे किसी घर से चाय के साथ दो बासी रोटियां मिलीं। उसने खुद खाने के बजाय अपने बुढ़े के लिए छुपा दिया, बिना किसी लोकलाज और शर्म के। पर विधि की विडम्बना वही जाने। सोचा तो था आज वह पति को सिर्फ बासी रोटियां नहीं खिलाएगी। वह उसे प्याज की सब्जी भी खिलाएगी। उसने प्याज खरीदा। वह रोटी और प्याज की कशोमकश में घर पहुंची, पर रोज की तरह बुढ़े ने आहट पर कोई हुंगारा नहीं दिया। न कोई प्रतिक्रिया की। गौरा घबरा गई। गौरा ने उसे छुआ तो वह मरा पड़ा था। वह गौरा को लाल माटी की दुनिया में अकेला छोड़ चांद तारों की दुनिया में जा चुका था। कदाचित सोचिए उन पलों में गौरा के अंदर बैठी अकेली औरत के संघर्ष और पीड़ा के वे क्षण। खैर, उसके बाद गौरा अकेली हो गई। मैंने उसे हमेशा अकेला ही देखा। मुझे इससे क्या फर्क पड़ता कि वह कहां से है? कैसी है? और उसकी क्या पृृष्ठभूमि है? मैं उसे जिस वजह से जानती हूं मेरे लिए वही काफी है। मैंने 5-6 साल की उम्र में पहली बार पुराना दरबार में अपने घर मिट््टी लाते देखा। कामरेड नौटियाल मेरे पड़ोसी थे। वो आती मिट्टी लाती। चाय पीती। बासी रोटी खाती। कुछ देर बैठ सुस्ताती। फिर मां से गपशप कर चली जाती। यही नाता उसका हर टिहरी के घर से था। उसकी आवाज ऐ दीदी…ऐ दीदी! या फिर ऐ ठाकुरू, ये ठाकुरू! जरा उतारा, जरा जल्दी उतारा गरू ह्वैगी, यानि जल्दी उतारो इस थैले को मेरे सिर ये भारी हो रहा है! फिर वो धम से बैठ जाती। हिसाब में वो बिलकुल खरी खोटी थी। न एक पैसा ज्यादा न एक पैसा कम! बरसों से गौरा की जिंदगी बस ऐसे ही चल रही थी।
गौरा का मिट्टी का व्यवसाय टिहरी में गैस आने के बाद कम होता गया। पर वो जो भी कमाती उससे उसका नया काम शुरू हो गया था। पति के जाने के बाद गौरा के दिल में टिहरी बाजार के लावारिस कुत्ते और बिल्लियों ने जगह बना ली। अब लाल माटे वाली गौरा लावारिस कुत्ते और बिल्लियों को पालने के कारण मशहूर हो गई थी। पूरा टिहरी जानता था कि गौरा कहीं से सस्ते में मांस की दुकानों से हड्डियां और बकरी की आंतें और मांस के लोथड़े जमा करती। कहीं से वह दूध लाती। कहीं से पाव बंद खरीदती और अपने इन बच्चों को बड़े प्रेम से खिलाती और पिलाती। टिहरी बाजार के गली मुहल्ले के लावारिस बेजुबान जानवरों की फौज शाम को आजाद मैदान और संगम वाली सड़क पर परेड करने की मुद्रा में खड़ी होकर अपनी गौरा देवी का इंतजार करते। एक नियत समय में गौरा आती तो वहां अचानक ढ़ेरों कुत्ते बिल्लियां गौरा को सलामी देने को खड़े हो जाते। वह सबको बारी बारी से कुछ ना कुछ देती। मजाल है कि कोई कुत्ता दूसरे के खाने पर झपटे। सब धैर्य से अपनी बारी की इंतजार में होता। गौरा के पास खुद खाने को हो ना हो। पहनने और ओढऩे के लिए हो न हो पर उसके इस राजधर्म में कोई कमी ना आती। वह खुद भूखी रह सकती थी पर यह फौज कभी भूखी ना रही। इसके अलावा गौरा की की कुत्ते बिल्लियों की अपनी एक पालतू फौज थी जो उसके ही घर में रहती। उसके साथ खाती और सोती। मजाल है ये कुत्ते और बिल्लियां कभी आपस में लड़ें। तो यह था अपनी गौरा का भरा पूरा परिवार!
गौरा जब मिट्टी बेचने जाती तो लोग पूछते गौरा अब डाम बनने वाला है। तू टिहरी डूबने पर कहां जायेगी रे? तेरा क्या सहारा है? यहां तो डाम की रौल-धौल पड़ी है। सब अपने मकानों और जमीनों के मुआवजों के फेर में हैं। तेरा क्या होगा गौरा? लोग करुणा में पूछते? गौरा र्निविकार भाव से बोलती कि ठाकुरू जिसकी जमीन जायजाद यहां होगी। वह तो कहीं ना कहीं जाएगा। पर मेरा क्या होगा? मेरा तो कोई भी ठिकाना नहीं है। मेरी तरफ कौन देखेगा? यही सवाल गौरा से टिहरी बांध के अधिकारियों का होता? वो पूछते- तुम कहां रहती हो? अपने कुछ कागज पत्तर हों तो ले आना। गौरा का जवाब होता- साहब मेरी जिंदगी तो टिहरी में माटाखान से माटा लाकर बेचते निकल गई। बांध वाले चिढ़कर बोलते- क्या माटाखान तेरे नाम पर चढ़ी है? तो हम उसे ही तेरे नाम पर चढ़ा तुझे मुआवजा दे देते हैं। सीधी गौरा बोलती- साब माटाखान मेरी रोजी है। बांध वालों का जवाब होता कि-बुढिय़ा हमें रोजी का नहीं जमीन का कागज चाहिए। सवाल जवाबों से परेशान गौरा का सवाल होता- साब मैं डाम बनकर कहां जाऊंगी? माटाखान डूबने के बाद क्या खाऊंगी? वह और चिढ़ते और बोलते- यह हमारी जिम्मेदारी नहीं है। बेचारी गौरा जिसकी जिंदगी का हिसाब किताब लाल माटे, रोटी प्याज और कुत्ते-बिल्लियों की गणित में उलझा था वह इन अटपटे सवालों की बौछार के सामने चुप हो जाती। उसके पास कहां विस्थापन और पुनर्वास की जटिल गणितों और तिकड़मों को समझने और जूझने का वक्त था? गरीबी एक ऐसा कठोर श्राप है जो आदमी को न जीने देता है और न ही मरने। वह इन सवालों पर चुपचाप अपना कंटर उठा चल देती। आखिर गौरा विस्थापन के इस कड़वे सवाल से कब तक मुंह मोड़ती? क्योंकि एक दिन टिहरी बांध को बनना ही था और टिहरी को भी डूबना ही था। सो लाल माटे वाली गौरा को हर हाल में नया आषियाना तलाशना ही था। पर कैसे और कहां और किसकी मदद से? मैं भी वक्त के साथ गौरा को भूल गई। सन् 1991 में कुछ ऐसा हुआ कि गौरा फिर से प्रकट हुई। उस वक्त मैं टिहरी बांध में पुनर्वास और पर्यावरण विंग में काम कर रही थी। बांध प्रशासन की प्रैस एडवाइजर सुश्री मनुहरि पाठक टिहरी आईं। चैयरमैन श्री एस.पी.सिंह ने उनको विस्थापन प्रक्रिया की कुछ खास जानकारियां लेने भेजा था। मनुहरि पाठक देश की मशहूर पत्रकार रही हैं। वह प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी के मित्रों में थी। मैंने सुना है कि वह पहली महिला पत्रकार थीं, जिन्होंने पार्लियामेंट की खबरों को कवर किया थ। मैं चैयरमैन से पहले मिल चुकी थी। वह मुझे बांध परियोजना के जन सम्पर्क विभाग में दिल्ली शिफ्ट करना चाहते थे। यह प्रस्ताव इस मुलाकात में मनुहरि पाठक ने दिया। मेरा मन नहीं था टिहरी छोडऩे का। सो बात आई गई हो गई। यह कोई जून की चिलचिलाती गर्मी होगी। मनुहरि पाठक ने मुझे भागीरथीपुरम बुलाया। वह बोलीं तुमको मुझे टिहरी में तीन चार दिन गाइड करना है। मैं किसी खास काम से आई हूं। मुझे इतनी अक्ल नहीं थी कि मनुहरि पाठक कितनी बड़ी शख्सियत हैं। मैंने बोला ठीक है। हमने पूरे टिहरी कोना-कोना घूमा। मुझे नहीं मालूम इस भ्रमण का असली उद्देश्य क्या था? पर वह बड़ी सहृदय और विदूशी महिला थीं। वह बड़ी संजीदगी से लोगों को मिलती और बातचीत करतीं। टिहरी का चप्पा-चप्पा घूमना एक रोमांच था। हम जब संगम रोड़ पहुंचे तो वह बोलीं मुझे हनूुमान मंदिर के पास कुत्ते और बिल्ली पालने वाली औरत से मिलना है। अब हैरान होने की बारी मेरी थी कि आखिर इनको कहां से गौरा के बारे में पता चला? और ये क्यों मिलना चाहती हैं? खैर पूछते-पाछते हम गौरा तक पहुंचे। वह हनुमान मंदिर के पीछे एक मिट्टी का टूटा घर था। वहां कभी टिहरी का कोई परिवार रहा होगा जो अब जा चुका था। उसमें एक कमरा नीचे और एक कमरा ऊपर था। वह लाल मिट्टी से लीपा पुता था। मैं थोड़ा हिचक रही थी कि कहीं गौरा नाराज न हो जाये। हमने ऊपर और नीचे दोनों कमरों में लगभग 100 कुत्ते और बिल्लियों की फौज को एक साथ आराम फरमाते देखा। बड़ी हैरानी थी कि कोई आपस में लड़-झगड़ नहीं रहा था। सब ऐसे चुपचाप पड़े थे, जैसे अपने घर में ढ़ेरों भाई बहन होते हैं। कोई शोर गुल नहीं। इतने सारे कुत्ते और बिल्लियों को इस तरह से शांत पड़े देखना तब भी मेरे लिए बड़ी हैरानी की बात थी और आज भी है। इससे मजेदार बात मैंने देखी कि गौरा ने हर कुत्ते बिल्ली को कोई ना कोई नाम दे रखा था। वह उस वक्त उनको बंद-पाव के टुकड़े कर बांट रही थी। सब चुपचाप अपनी बारी के इंतजार में थे। कोई पंगा नहीं। यदि कोई चूं-चां करता भी तो वह ऐसे नाम लेकर बोलती कि अगला प्राणी चुप्प! ळम सीढिय़ों पर कई देर खड़े-खड़े यह नजारा देखते रहे। मनुहरि पाठक एक आध्यात्मिक महिला थीं। वह गौरा के बारे में मुझसे कई देर तक बात करती रहीं।
मुझे आज भी उनकी यह बात याद है कि कुसुम गौरा कोई साधारण औरत नहीं है। यह मानवीय ऊंचाई के उस मुकाम पर खड़ी है, जहां पहुंचने को जन्म-जन्म तपस्या करनी पड़ती है। तुम्हारे टिहरी वाले उसे पागल कहते हैं पर यह पागल नहीं है। तुम देखो न कैसे इसने गली के लावारिस हिंसक जानवरों को अपने बस में कर रखा है? यह प्रेम और अंहिसा की पराकाष्ठा है। मैंने इसके बारे में जो सुना इसको वैसा ही पाया है। थोड़ी देर बाद गौरा की तंद्रा टूटी। मेरे को एक अजनबी के साथ अपने घर की देहरी पर खड़े देख उसने जरा भी प्रतिरोध नहीं किया। हमको देखकर ऐसे उपेक्षा के भाव से देखा कि-हू केयरस कि तुम कौन हो? कितने बड़े हो? मुझे तो अपने अपने काम से ही मतलब है। थोड़ी देर बाद मैंने ही उसको बोला दीदी ये तुमको मिलने आई हैं। वह चुपचाप बैठ गई। मनुहरि पाठक ने उससे काफी कुछ पूछा और वह खामोशी से जवाब देती गई। कहीं कुछ ऐसा था मनुहरि पाठक के व्यवहार में कि मैं भी नहीं समझ पाई कि इनका गौरा के पास आने का मकसद क्या है? वह दोनों बड़ी शांति से एक दूसरे के साथ का चुपचाप आनंद उठा रहे थे।
बहुत सालों बाद मैंने सुना कि मनुहरि पाठक हरिद्वार में साधु का जीवन बिता रहीं हैं। मैं उनसे मिलने गई। उस दिन वह बाहर गई थीं सो मिल नहीं पाई। पर मेरी समझ में सन्1991 की उस मुलाकात का राज समझ में आ गया था कि वह गौरा के अंदर की अच्छाइयों की खुशबू और उसके बेशर्त प्यार के वशीभूत उस सत्य को जानने की चाहत में गौरा तक पहुंची थी, जहां पहुंचकर जैव जगत में विविधता की तमाम सीमाएं खत्म हो जाती हैं और प्राणी अपनी भेद दृृष्टि को खत्म कर अभेद दृृष्टि के सर्वोच्च मुकाम पर पहुंच हर प्राणी मात्र में उसी परम सत्ता के दर्शन करता है, जिसका कि वह अंश है। मुझे अभी भी याद है कि जब गौरा अपने बच्चों से बात कर रही थी तो वे सिर हिला रहे थे। तो मनुहरि पाठक बोलीं कि कुसुम मुझे लगता है गौरा जानवरों की भाशा समझती है, तभी तो उसने इन सबकी हिंसा की वृृत्ति को अपने प्रेम से काबू कर इनको अपना बना लिया है। उनके इन गहरे शब्दों के अर्थ को उस वक्त तो मैं समझ नहीं पाई, पर मैंने सालों बाद गौरा को सन् 2001 से 2006 के बीच बौराड़ी बाजार में अपनी इसी कुत्ते बिल्लियों की फौज से संवाद करते बार-बार देखा। बार-बार मैंने इस फौज को गौरा के इंतजार में बैठे देखा। ऐसा नहीं कि वह सिर्फ उसके बंद-मांस के लोथड़ों या दूध की प्रतीक्षा करते? मैंने वह वक्त भी देखा है जब लोग इस फौज को भोजन देते पर वो ऐसे मुंह फेरते कि पूछो मत। यदि कहीं से गौरा देवी पहुंच जाती तो वे उसके सूखे बंदों और मांस के लोथड़ों पर टूट पड़ते। तब सालों बाद मेरी समझ में आया कि यह भूख से कहीं आगे उसका बेशर्त प्रेम है जो इनके बीच की कड़ी है। खैर मनुहरि पाठक चली गई। ईश्वर जाने उनका मकसद पूरा हुआ भी या नहीं? पर वह शांत भाव से नीचे उतर बोलीं- थैंक्यू कुसुम थैंक्यू वैरी मच! आई एम ग्रेटफुल टू यू फॉर सच अ गुड टाईम विद हर। मुझे जैसा बताया गया था गौरा उससे भी कहीं आगे की दौड़ में है। इसका क्या अर्थ था यह तो मैं नहीं जानती पर गौरा मेरे लिए खास बन गई कि आखिर क्या मनुहरि पाठक ने गौरा के बारे में सुना? और क्यों वह आई?
खैर एक दिन टिहरी के इतिहास में वो दिन भी आया जब टिहरी में डूबने की अफरा-तफरी मची। बांध की दो सुरंगे बंद हो चुकी थीं। यह कोई 2001 की बात होगी। शहर में पानी भरने लगा था। हर कोई आशियाने की तलाश में दौड़ रहा था। शहर वाले आशियाना पाकर या तो जा चुके थे या जाने की कतार में थे। शहर के श्मशान और घाट डूब गये थे। जो लोग मकान, दुकान और जमीन पा गये वो किस्मत वाले थे। पर इन लोगों के बीच कुछ ऐसे भी अभागे थे जो सरकारी पात्रताओं के बीच पुनर्वास की दौड़ में पीछे छूट गये थे। उन अभागे लोगों में एक अपनी लाल माटे वाली गौरा भी थी। पुनर्वास की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष चुनौतियों के बीच गौरा ही नहीं समाज का एक बड़ा वंचित, शोषित, कमजोर वर्ग, विकलांग, महिलाएं और निराश्रित भी थे। इनकी पहुंच ना पुनर्वास निदेशालय तक थी और न वह पुनर्वास की जटिल नीतियों व कानूनों की जानकारियां रखते थे। इसके अलावा कुछ ऐसे भी थे, जो पुनर्वास पात्रताओं में नहीं आते थे, पर सालों से टिहरी में रहने के कारण मानवीय पुनर्वास के हकदार थे। रेहड़ी, फड़, पटरी के व्यापारी, नेपाली मजदूर और गौरा की तरह एकल औरतें इनकी अपनी ही समस्याएं थीं कि आखिर ये जायें तो कहां जायें? उस वक्त प्रशासन के सामने आखिरी दौर के पुनर्वास व भुगतान प्रक्रिया के अलावा परिवारों के व्यक्तिगत झगड़ों, भूमि एवं मुआवजे के बंटवारे एवं फर्जीवाड़े की घटनाओं को रोकना और गौरा जैसे जरूरी लोगों का पुनर्वास करना अपने आप में एक बड़ी चुनौती थी, जिनके बारे में कामरेड नौटियाल ने एक बड़ा सवाल लाल माटी वाली कहानी में छोड़ा था? अफरा-तफरी के उस दौर में जब शहर में पानी बढ़ रहा था तो गौरा सबसे कहती- गरीबों का घाट और श्मशान नहीं डूबना चाहिए। कितनी बड़ी बात उसने कही कि-गरीब के पास ना जीने के हालात हैं और न ही अब मरने की ही जगह बची है? गरीब न तो चैन से जी सकता है और न मर ही सकता है। अब लाख टके का सवाल था कि गौरा कहां जाये? और उसके जैसे हजारों लोगों का क्या होगा? गौरा के पास न कोई एप्रोच थी। न कोई उसका ऐसा ठिकाना और न कोई भावनात्मक सहारा, जहां वो टिहरी डूबने पर जाती? उसकी दुनिया तो अपने इन्हीं कुत्ते बिल्लियों की फौज पर टिकी थी। बड़ी बात ये थी कि अपने आप वो जहां भी जाए पर इस फौज को कहां लेकर जाये? इस रौल-पौल में टिहरी में हर वर्ग की यूनियनें, ग्रामीण व शहरी संगठन पुनर्वास की मांग हेतु मुखर थे। गौरा की तो कोई यूनियन भी नहीं थी। कुत्ते बिल्लियों की इस बेजुबान ‘गौरा यूनियन’ के बूते में गौरा के पुनर्वास की लड़ाई लडऩा आसान नहीं था। सिर्फ गौरा ही नहीं पुनर्वास के लिए सही लोगों की पात्रताएं भी तो वहां लोगों की शक्ल और उनका रुतबा देखकर तय हो रही थीं। मुआवजे व पुनर्वास में स्थानीय दबाव, प्रभावशाली लोगों का रुतबा, हस्तक्षेप की स्थानीय राजनीति और जमकर भ्रष्टाचार टिहरी की आम खबरें थीं। सरकार हर हाल में दिसम्बर 2001 में जे.पी. की टनल को बंद करने पर उतारू थी। उस वक्त वहां राधा रतूड़ी जिलाधिकारी थीं। मैंने उस दौर में चुपचाप इस आखिरी पंक्ति के पुनर्वास का श्रेय राधा रतूड़ी को दोनों हाथों से लूटते देखा। साथ ही समझा कि कैसे पुनर्वास और विस्थापन को मानवीय चेहरा दिया जा सकता है?
राधा रतूड़ी के समय आखिरी पंक्ति के हजारों लोगों का पुनर्वास हुआ। पर मेरी नजरों में सबसे सुन्दर और यादगार विस्थापन टिहरी की लाल मिट्टी बेचने वाली अपनी गौरा देवी का था। गौरा के पास न तो कोई सिफारिश थी और न विस्थापन की वैध पात्रता? न कोई गौरा के प्रति चिंतित था? ऐसे में जब चुपचाप राधा रतूड़ी ने मानवीय मूल्यों से भरी अनमोल धरोहर गौरा को नई टिहरी में एक कमरे के ‘निर्बल आवास’ में विस्थापित किया तो टिहरी के अच्छे-अच्छे लोग चकरा गये? क्योंकि निर्बल आवास के लिए भी जैसी लूटमार मची थी, उसका लम्बा चौड़ा इतिहास है। गौरा की जिंदगी इस बीच कैसे चली मुझे नहीं मालूम, पर 2003 में एक दिन गौरा मुझे मिली। उसने मुझे जीप रोकने को इशारा किया। एक कोने में ले जाकर उसने बताया कि कोई उसके ढुंगीधार निर्बल आवास पर कब्जा करना चाहता है। कुछ लोग काफी समय से मुझे तंग कर रहे हैं। कोई रात को रोज पत्थर फेंकता है। वह डरी हुई थी कि क्या कोई उसे मार तो नहीं देगा? मैं सुनकर सन्न रह गई। मैंने गौरा के कान में कहा कि- जाओ सब जगह फैला दो कि ये घर राधा रतूड़ी ने दिया था। मैं उनकी दोस्त कुसुम रावत से मिलकर आ रही हूं। वह मेरा रैबार डी.एम. तक देहरादून पहुंचा देगी। राधा रतूड़ी मेरी मदद करेंगी। साथ ही मैंने अपने ड्राइवर से कहा कि तुम रोज एक चक्कर सुबह और शाम निर्बल आवास के मारो। वहां सड़क पर खड़े हो जोर से पुकारना- ऐ गौरा बडी-गौरा बडी तेरे को कुसुम रावत ने महिला समाख्या आफिस में बुलाया है। चलो मैं तुमको लेने आया हूं। कोई आवाज सुने या नहीं, तुम बस 10-15 मिनट रुककर हार्न बजाते रहना। यह सिलसिला 3 दिन चला। मेरी तरकीब काम आई। उस दिन के बाद रात को गौरा के कमरे में होने वाली पत्थरों की बारिश हमेशा के लिए रुक गई। एक-आध चक्कर मैंने भी लगाए। कई महीने बाद गौरा मुझे बौराड़ी बाजार में अपनी फौज फटाका के साथ फौजी जरनल की तरह घूमती मिली। वो बड़ी खुश थी कि अब उसे कोई तंग नहीं करता। जब भी गौरा मिलती मैं जीप रोक उसका हाल चाल पूछती।
मुझे एक दिन की याद है दिसंबर का ठंडा वक्त था। वह बिना स्वेटर और जूतों के अपनी फौज को दौड़ दौड़ कर बंद खिला रही थी। कुत्ते उसे तंग कर रहे थे। तो वह नाम लेकर बोल रही थी कि तूने दो दिन से कुछ नहीं खाया, चल खा। वह ठंड से कांप रह थी। मैंने पूछा तो गुस्से में बोली ऐ दीदी- मैं इनका पेट भरूं कि अपने लिए कपड़े खरीदूं? मैंने पूछा रजाई है तो बडी बोली हां एक कंबल है। मेरा तो उसे देख ही कांपना छूट रहा था। मैंने उसे जीप में बिठाया जूते जुराब, रजाई और स्वेटर ली। तो मालूम वह मेरे हाथ ही जोड़ती रही कि बस तेरे बहुत पैसे खर्च हो गये। मैं कहां से तेरा कर्जा चुकाऊंगी? कभी एक ही पर सारा बोझ नहीं डालना चाहिए। फिर उसने मुझे कंबल नहीं लेने दिया। वह जीप से कूदने लगी। मैंने कहा चलो माईबाड़ा की माई जी से मांग कर लाते हैं। इस पर वो तैयार हो गई। जब हम माई जी के यहां गये तो माई जी ने मना कर दिया कि यहां नहीं हैं। माई जी से मेरा अपना ही एक रिश्ता है। मैंने उनके कंबलों के ढेर में से एक कंबल गौरा को दिया। माईजी मुझ पर मजाक में बिगडऩे लगी। उसको वो समझ नहीं आया कि ये मजाक कर रही हैं। मुझे वह वक्त याद है जब गौरा ने चुपचाप हाथ जोड़े कि ऐ माई कंबल तू ही रख। ऐ कुसुम दीदी मेरे को जबरदस्ती लाई है। मेरे को नहीं चाहिए तुम्हारा कंबल। इसने मुझे रजाई दे दी है। मेरा तो गुजारा चल जाएगा। माई तू बुरा मत मान। उसने बड़ी शांति से हाथ जोड़े और निर्विकार भाव से चली गई। मै अवाक रह गई। मैं सोच रही थी कि इन दोनों में असली साधु कौन है? मेरे माईबाड़ा की जोगन माई जो सालों से धूनी रमा रही है या अपनी गौरा माई जो दुनिया और जोगियों के प्रंपचों से भी ऊपर उठकर हर प्राणी में उसी परमात्मा के दर्शन कर आत्मानंद में डूबी है? मैंने भी चुपचाप कंबल उठाया और सड़क में जाकर गौरा को दे दिया। पर उसे समझाना मुश्किल था कि वो मजाक कर रही थी। गौरा की एक ही जुबान थी कि दूसरों को नाराज करके कोई चीज कभी मत नहीं लेना दीदी। ऐसी मूल्यपरक थी गौरा!
2006 के बाद मुझे गौरा कभी नहीं मिली। पिछले महीने से गौरा न जाने क्यूं फिर से मेरी स्मृृतियों में तैरने लगी। मैं यूं ही प्रसंगवश गौरा के बारे में बता रही थी। गौरा की तस्वीर दिखाने हेतु मैंने अपने स्कूल के साथी हेमू की मदद ली। हेमु ने ही दिनेश रतूड़ी की खींची यह तस्वीर भेजी। मैंने दिनेश का नंबर पता किया। दिनेश ढं़ुगीधार नई टिहरी में गौरा का पड़ोसी है। दिनेश से पता चला कि 16 जून 2016 को लाल माटी वाली गौरा अपनी मिट््टी के कंटर और कुत्ते-बिल्लियों की पलटन हमेशा के लिए छोड़ चुकी है। दिनेश गौरा को सन् 2002 से जानता है। दिनेश ने गौरा की यह तस्वीर लगभग 1 साल पहले ली। उन दिनों वह बीमार थी। उसे तेज बुखार था। गौरा ने पास के रावत टी स्टाल पर अपने लिए चाय बनवाई। तब तक कुत्ते वहां आ गये। तो बजाय खुद चाय पीने के वह अपने कुत्तों को गिलास से चाय पिलाने लगी। दिनेश ने उसी वक्त यह तस्वीर ली थी। तेज बुखार में भी लाल माटे वाली गौरा अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटी। मुझे बड़ा अफसोस हुआ कि आखिरी के दिनों में देहरादून आने के बाद पिछले 8-9 सालों से गौरा कभी नहीं दिखी। नहीं तो बौराड़ी बाजार में वो मिल ही जाती थी। अचानक गौरा के बारे में ये सब पता चला। पिछले एक साल से गौरा बीमार थी। निर्बल आवास में पड़ोस की एक अनुसूचित जाति की विधवा महिला छंछरी देवी ने गौरा की बड़ी सेवा की। वही सालभर से उसको खाना पीना देती। वही उसकी देखभाल करती थीं। छंछरी देवी चम्बा के किसी अस्पताल में नर्स हैं। मौत के दिन जब वह सुबह 8 बजे नाश्ता देने गई तो पता चला गौरा जिंदा नहीं है। गौरा ने ताउम्र जो मानवता दिखाई थी, ईश्वर ने छंछरी के तौर पर एक देवदूत गौरा के पास भेजा। छंछरी ने ही नगरपालिका के वार्ड सदस्य मानवेंद्र रावत को उसकी मौत की खबर दी। साथ ही पुनर्वास में कार्यरत प्रेम सिंह कुमांई को फोन किया। मानवेंद्र और प्रेम सिंह कुमांई सहित कुछ लोगों ने गौरा के दाह संस्कार की तैयारी की। लकड़ी और कोटी घाट तक जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था की गई। छंछरी ने अपने चारों दामादों और भाईयों को बुलाया। कुछ और पड़ोस के लोग भी आए। छंछरी ने ही गौरा को नहलाया और उसके शरीर पर घी मला। छंछरी देवी ने ही नए कपड़े पहना उसे एक दोस्त या पड़ोसन के नाते अंतिम यात्रा पर विदाई दी। मानवेंद्र रावत बता रहा था कि दीदी गौरा बडी को अंतिम विदाई देने पूरे पड़ोस और आस पास के लोग आये। कोटी घाट पर हम 15-16 लोग थे। हमने ही मिलकर उसकी चिता को आग दी। 13 दिन बांद छंछरी देवी ने गौरा का तेरहवीं संस्कार किया। हलवा पूरी बना हवन आदि कराया। धन्य हैं छंछरी देवी जैसे लोग जो खामोशी से मानवता की लॉ जगाए हैं। एक विचित्र बात दिनेश ने बताई कि मुझे दिन में अपनी मां से पता चला कि गौरा नहीं रही। मुझे सुनकर धक्का लगा। तो मुझे उसके कुत्ते और बिल्लियों का ख्याल आया। मैं उसके घर की ओर गया।
दिनेश के ही शब्दों में, जब मैं वहां पहुंचा तो वहां वो 12-13 कुत्ते और 3 बिल्लियां थीं जो हमेशा उसके साथ रहती थीं। उसके साथ ही खाते पीते। और साथ ही बिस्तर पर सोते। बड़ी हैरानी की बात है कि ये कुत्ते बिल्लियां कभी आपस में झगड़ते नहीं थे। मैंने कभी साधुओं की कहानियों में पढ़ा था कि आश्रम के वातावरण में इतना प्रेम था कि शेर, बिल्लियां, सांप एक घाट में पानी पीते थे। हिंसा नामकी वृृत्ति साधु के तप से आश्रम में नहीं टिकती थी। दीदी वही अद्भुत प्रेम गौरा के घर में हमने सालों देखा। उसके ये पारिवारिक दोस्त घर के अंदर चुपचाप ऐसे रहते जैसे गोया गौरा ने कोई वशीकरण मंत्र चलाया हो। न तो वो वहां भौंकते न ही झगड़ते। दिनेश ने आगे बताया कि मैं कमरे का नजारा देखकर सन्न रह गया। ये सब कुत्ते बिल्लियां घर के अंदर ही गौरा के बिस्तर पर चुपचाप पड़े थे। किसी की कोई आवाज नहीं निकल रही थी। दीदी वहां का नजारा शब्दों में बयान करने लायक नहीं था। वो सब रो रहे थे। पर कोई भी भौंक नहीं रहा था। उन निरीह जानवरों के आंखों में मोटे मोटे आंसू थे। दीदी वहां का नजारा इतना कारुणिक था कि मैं अंदर से हिल गया। सब जानवरों के आंखों में आंसू थे। इतना रोते हुए तो मैंने इंसानों को भी नहीं देखा। एक अजीब शांति वहां थी। यह एक अद््भुत कारुणिक दृृश्य था। मैंने जानवरों को इस तरह रोते पहले कभी नहीं देखा था। जानवर इतने मोटे मोटे आंसू लेकर रोते हैं, ऐसा मैंने पहली बार देखा। मैं शाम को फिर गया तो वे बेजुबान जानवर वैसे ही खामोशी से मोटे आंसुओं से रो रहे थे। तीन दिन तक दीदी वे कुत्ते बिल्ली न ही भौंके और न ही कोई आवाज उन्होंने की। वे चुपचाप घर के अंदर-बाहर गौरा को खोजते रहे। मजाल है कि तीन दिन तक कोई कुत्ता भौंका होगा। सालों एक परिवार की तरह रहने वाले वह सब कुत्ते बिल्लियां तीन दिन बाद कहां चले गए कोई नहीं जानता? उसके बाद किसी ने उनको बौराड़ी या ढुंगीधार बाजार में नहीं देखा। दीदी इन निरीह प्राणियों और गौरा का ये अमर प्रेम एक किवदंती बन चुका है। मैं इसे शब्दों में नहीं बता सकता। पर गौरा के जाने के बाद इन जानवरों को तीन दिन तक बिना कुछ खाये पिए रोते देखना दुनिया का अनोखा आश्चर्य था। कहते हैं कि जानवर बेजुबान होते हैं पर गौरा की इस फौज ने गौरा को उतनी ही शान और शिद््दत से अंतिम विदाई दी, जितनी शान से वह गौरा के पीछे पुरानी टिहरी और बाद में बौराड़ी की सड़कों पर चलते थे।
दिनेश और मानवेंद्र ने मुझे बताया कि गौरा की इस अद््भुत जिंदगी से टिहरी में विशेष न्यायाधीश पुनर्वास के पद पर 2014 में कार्यरत जस्टिस इंद्रजीत मल्होत्रा बड़े प्रभावित थे। उन्होंने गौरा की बहुत मदद की। वह बड़े आध्यात्मिक व्यक्ति थे और गौरा को बहुत मानते थे। उनके जाने के बाद भी आखिरी दिन तक उनका स्टाफ प्रेम सिंह कुमांई गौरा की देखरेख करता था। अब चौंकने की बारी मेरी थी कि ये सब क्या है? मुझे सन्1991 में मनुहरि पाठक के कहे शब्द याद आ गये। मैं हैरान थी कि और मेरी ये धारण पुख्ता हो गई कि गौरा असाधारण औरत है। मैंने प्रेम सिंह कुमांई को फोन किया। उन्होंने ही मुझे इन उदारमना जज साहब की कहानी बताई कि कैसे एक दिन जज साहब कहीं जा रहे थे तो अचानक सड़क पर उनकी नजर गौरा और उसकी ”एनिमल आर्मी” पर पड़ी। जज साहब अध्यात्मिक रुझान के व्यक्ति हैं। पहली नजर में न जाने क्या सड़क पर चलती गौरा में उनको नजर आया? जज साहब रुके। उन्होंने गौरा को अपनी गाड़ी में बिठाया। उससे बातचीत की। गौरा का पूरा हालचाल जाना। जस्टिस महोदय गौरा के निर्बल आवास में गये। वहां का मुआयना किया। वहां का हाल देख वह बड़े दुखी हुए। गौरा के बारे में सब कुछ जानने के बाद तो गौरा उनके लिए एक देवी स्वरूप बन चुकी थी। जिस गौरा को सब बरसों पागल समझते रहे, वह उनके आकर्षण का केंद्र बन गई। 2001 से अब तक गौरा के कमरे में लाइट का कनेक्शन नहीं था। उसका घर जानवरों के रहने से गंदगी का ढ़ेर था। जज साहब ने घर को रहने लायक बनवाया। तुरंत वहां लाइट का कनेक्शन लगवाया। कमरे की लगभग 15 साल बाद पुताई करवाई। वहां सफाई करवाई। गौरा का बी.पी.एल. कार्ड बनवाया और तो और उन्होंने बड़े धूमधाम से गौरा का जन्मदिन भी मनाया। उन्होंने यह भी इंतजाम किया कि वहां हर 10 दिन में कोई सफाई करने जाता था। जब तक जस्टिस मल्होत्रा टिहरी में रहे, वह नियमित गौरा की देख रेख करते रहे। वह वहां जाते। उसके लिए राशन पानी रखवा देते। कपड़े-बिस्तर-बर्तन दे आते। उसे पैसा देते। वह पता नहीं क्यों गौरा से बड़ा प्रभावित थे। अपने जाने के बाद भी उन्होंने मुझे वहां नियमित जाने और उसकी देखभाल को कहा। मैंने वहां की सफाई के लिए एक सफाईकर्मी को रखा था। हम उसे 500 रुपया महीना देते। गौरा के मरने से तीन दिन पहले ही मैं वहां गया था। वह ठीक थी। थोड़ा कमजोर हो गई थी। उसकी उम्र का कोई पता नहीं पर वह 90 से तो ज्यादा ही होगी। दीदी! गौरा को बड़ी भाग्यवान मौत मिली। जब वह मरी तो उसके प्यारे कुत्ते और बिल्लियां उसी के शव के पास उसके बिस्तर में लेटे चुपचाप रो रहे थे। पर वह भौंके नहीं। मानो किसी सिद्ध जोगी की तरह उनको मालूम हो कि जीवन और मरण तो एक शाश्वत प्रक्रिया है इसमें भी क्या रोना धोना? आत्मा तो अमर है वह कहां मरती है? न उन बेजुबान जानवरों में कोई बौखलाहट मची। मुझे पड़ोसी छंछरी देवी ने फोन किया। हम आये। मैंने जज साहब को सूचना दी तो उन्होंने कहा- कुमांई तुम नहीं समझोगे गौरा तो देवी है। तुम उसका शरीर लेकर ऋषिकेश आ जाओ। मैं भी वहीं आ जाऊंगा। पर दीदी कुछ व्यावहारिक दिक्कतों के कारण हमने गौरा का संस्कार टिहरी में ही किया। हमने उसकी अर्थी सजाई। एक बड़ा विचित्र व्यवहार हमने देखा दीदी कि जब हमने अर्थी वहां से उठा दी, उसके बाद कुत्ते और बिल्लियां जोर से रोने लगीं। हमने पूरी मानवीय गरिमा के साथ गौरा का संस्कार कोटी में किया। सबने आपस में पैसा जमा किया। कुमांई ने मुझे बताया कि दीदी आखिरी के साल में गौरा की आंखों की रोशनी कम हो गई थी। उसे कम दिखाई देेने लगा था। वह खाना भी नहीं बना पाती थी। मैंने जज साहब को फोन किया। मैंने उनके कहे अनुसार डाक्टर को दिखा आने वाली सर्दियों में गौरा के आंखों के आपरेशन की तैयारी कर ली थी, पर गौरा ने वो मौका नहीं दिया। वह जून 2016 में ही चल बसी। गौरा के अंतिम दिनों की पूरी कहानी सुन मेरे तो रोंगटे खड़े हो गये कि जिस बात का ख्याल कभी किसी स्थानीय व्यक्ति को न आया, वह एक परदेशी वो भी जस्टिस मल्होत्रा जी ने किया। वह गौरा के अद््भुत चरित्र और व्यक्तित्व के कायल थे।
मेरा मन भर आया। मैंने सोचा क्यों न जज साहब से बात करूं। मैंने किसी तरह नंबर जुटाया। उनको डरते-डरते फोन किया। जज साहब तो मेरी सोच से भी कहीं बहुत आगे के निकले। वह मुझ पर बड़े नाराज हुए कि कुसुम आप टिहरी वालों ने उस देवी की कद्र नहीं की। न टिहरी की जनता ने, न ही प्रशासन ने और न ही राजनैतिज्ञों ने। अरे आप लोग क्या जान पाओगे कि कि वह कौन थी? वह तो साक्षात देवी थी। आप तो कन्या पूजने को अपना रस्मोरिवाज और धर्म मानते हो। जिंदा लोगों को निभाना आप क्या जानो? और वो भी परोपकारी गौरा देवी सरीखी साक्षात देवियों को? वो न जाने क्या-क्या गौरा के उजले पक्ष के बारे में बताते गए। वो सब कुछ जो मैंने तपस्वी गौरा में बार- बार महसूस किया था। मैं चुपचाप उनकी उलाहना भरी डांट सुनती रही। मेरी जिंदगी में यह दूसरा झटका था, जब मनुहरि पाठक के बाद किसी विशिष्ट व्यक्ति ने गौरा के प्रति यह शब्द कहे थे। मैं गौरा को बचपन से एक अलग निगाह से देखती थी, पर 2006 के बाद कुछ परिस्थितिवश सच में गौरा ही नहीं, टिहरी में किसी का भी ख्याल न रख सकी। जज साहब इतना गुस्से में थे कि मैं चुपचाप 15-20 मिनट तक पूरी टिहरी की ओर से किये अपराध के बदले में उनकी डांट सुनती रही। मुझे इतना अच्छा लग रहा था जज साहब की डांट खाकर कि कुसुम चलो कोई और तो है दुनिया में जो मेरी सोच से सहमत है कि गौरा असाधारण औरत थी। मेरा सर जज साहब के लिए श्रद्धा में झुकता गया।
जज साहब आखिरी में बोले कि तुम टिहरी के लोगों ने गौरा के साथ जो व्यवहार किया है, मैंने उस पर एक पूरी रिपोर्ट बनाकर 2014 में सरकार और राज्यपाल को सौंपी है। कुसुम तुम जाकर वो रिपोर्ट पढ़ो। तब तुमको समझ आएगा कि 2006 और 2014 के बीच गौरा के साथ क्या हुआ? उसके साथ कैसा व्यवहार किया गया? मैं सन्न और स्तब्ध थी। मैंने धीमे स्वर में बात करने की कोशिश भी की, पर वह वास्तव में बड़े नाराज थे। उनकी नाराजगी वाजिब थी। और मैं उस टिहरी की प्रतिनिधि थी, जिसने गौरा की देखभाल नहीं की थी। मुझे सर की एक बात ने बड़ा प्रभावित किया कि जिस गौरा ने अपनी जवानी के दिन आपकी टिहरी के लिए लाल माटी ढ़ोते-ढ़ोते निकाल दी हो और बाद के दिनों में आपके शहर के लावारिस बेजुबान कुत्ते बिल्लियों को पालने में निकाले हों, आप लोगों ने उसका जरा भी ख्याल नहीं रखा। अरे आप लोग बड़े ही उन चूल्हों की रोटियां खाकर हुए हो, जिसको आपके मां ने उसी लाल मिटटी से पोता है- जो बरसों गौरा लाया करती थी। अरे गौरा आप लोगों की अन्नदाता है। जिस औरत ने सारे शहर के चूल्हों में आग जलाई हो, क्या सारा शहर उसके एक चूल्हे की आग को नहीं जला सका? हां सर आपने सही कहा। सर बोले कुसुम वो देवी थी। आप उसके असली रूप को न पहचान सके? वो टिहरी का इतिहास थी और चुपचाप इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चली गई। वह तपस्वी थी। ऐसे लोग बार-बार पैदा नहीं होते। कुसुम गौरा क्या थी आप कभी न जान पाओगे? सालों गौरा की दुर्दशा देख उनका गुस्सा मुझ पर ही निकला, पर मुझे अच्छा लगा।
वो कहने लगे अगर तुम कुछ कर सकती हो तो एक काम करो मेरी उस रिपोर्ट की स्टडी करो और देखो टिहरी के पुनर्वास का असली चेहरा क्या है? गौरा को पुनर्वास निदेशालय से 60 हजार रुपए मिले थे। न मालूम किसने वह पैसे निकलवाए? मुझे पता चल जाता तो मैं उस पर कार्यवाही करता। गौरा के पास कुछ जेवर थे, वह कहां गये? क्या तुमने कभी जानने की कोशिश की? तुम गौरा के बारे में सारे तथ्य जानो उस रिपोर्ट से। मैंने उनसे वादा किया है कि मैं उस रिपोर्ट को पढ़ूंगी। अंत में शांत भाव से बोले कि तुम कुछ कर सको तो जरूर कभी न कभी गौरा की कोई स्टेचू नई टिहरी में लगवाओ। मैं पैसा दूंगा, ताकि लोगों को गौरा की करुणा और परोपकार की स्मृृति बनी रहे। वह तो अमर हो गई है। सच में जज साहब से ये सब सुनकर मैं बहुत शर्मिदां हूं। बड़ा ही अजीब संयोग है कि कई दिन पहले किसी उनियाल ने मुझे फेसबुक पर गौरा के फोटो पर तीखा कमेंट किया कि क्या तू गौरा की मूर्ति बनाएगी या उसकी फोटो की पूजा करेगी? और देखो क्या संजोग हुआ कि 18.1.2018 को माननीय जस्टिस मल्होत्रा ने मुझे गौरा की मूर्ति बनाने की बात कही। न जाने ईश्वर क्या करवाना चाहता है? उसके खेल वही जाने? कहते हैं न कि न जाने किस रूप में नारायण मिल जाए?
गौरा के बारे में एक और बात मुझे दिनेश ने बताई कि दीदी वो बड़ी विचित्र दयालु औरत थी। वह अपनी इस नियमित फौज फटाका के अलावा लावारिस प्राणियों की भी देखभाल करती थी। पर यदि गौरा को कहीं से कोई मादा कुत्ता मिल जाती तो उसे जरूर वह अपने साथ धर ले आती। हम लोग उसे अक्सर अपनी गड़वाली बोली में बड़बड़ाते सुनते कि अरे इसको तो सहारा देना ही होगा। कल जब इसके बच्चे होंगे तो कौन इस मादा और उसके बच्चों की देखभाल करेगा और जबरदस्ती उस मादा कुत्ते को अपने राजमहल में ले आती। गोया वहां कोई और होगा जो गौरा के इस पके हुए दिल से छलछलाती भावनाओं की कद्र करने को तैयार बैठा हो…। धन्य हो गौरा दीदी तुझको और तेरे हिमालय जैसे ऊंचे जज्बातों और गंगा जैसे निश्चल निर्मल भावों को। मैंने महिला सषक्तीकरण की इस बाढ़ में ब्रह्मा जी की इस सृृष्टि में क्या-क्या नहीं देखा पर गौरा जैसा अनोखा कोई ना देखा। फकीरी में राजाओं जैसा दिल और जज्बात और वैसा ही आचरण! अब सोचती हूं कि 1991 में मनुहरि पाठक की खोजी आंखों में मैंने गौरा के लिए जो आदर, श्रद्धा के भाव और होंठो में कुछ बुदबुदाहट देखी थी वो यूं ही ही नहीं थी। उस सच को मैं आज समझ पाई हूं दिनेश रतूड़ी से गौरा के बारे में यह अंतिम सत्य जानकर…। लोग सड़कों और बैठकों में महिला सशक्तीकरण और मानवता की बात करते हैं पर गौरा दीदी तू तो सबको चुपचाप पिछाड़ कर अगड़ी लाइन में उस ऊंचाई पर खड़ी हो गई, जहां कोई विरला साधु ही पहुंचता होगा। कोई समाज सुधारक तो वहां पहुंचने का सामाजिक पाखंड भी नहीं कर सकता? किसी युवक के मुंह से गौरा के बारे में यह संवेदनशीन सत्य जान मैं अवाक और स्तब्ध हूं। क्या लाजवाब और उत्कृृष्ट सोच रही होगी गौरा की? और कैसा खरे सोने जैसा आचरण था इस मूक तपस्वी का!
गौरा दीदी! तुझको मेरा आखिरी सलाम! तेरी मौत के डेढ़ साल भर बाद ही सही। माफ करना मैंने भी टिहरी छोडऩे के बाद तेरी कोई खोजखबर नहीं ली, पर टिहरी वालों की यादों से न कभी तू दूर जाएगी न तेरे लाल माटे का तेरा बिना ढक्कन का कंटर और न ही तेरे कुत्ते-बिल्लियों की रॉयल आर्मी और ना तेरी बेशर्त खामोश परोपकार की अमर कहानियां। इस कहानी के आखिरी में गौरा दीदी तेरी ही ओर से उन सहृदय लोगों यथा 2014 में टिहरी के नेक न्यायाधीश पुनर्वास जस्टिस इंद्रजीत मल्होत्रा जी, तबकी संवेदनशील जिलाधिकारी राधा रतूड़ी और छंछरी देवी का टिहरी वालों की ओर से आभार प्रकट करती हूं, जिन्होंने तेरी नेकनीयति को सही समय पर पहचान तेरे यज्ञ में अपने-अपने हिस्से की आहुतियां डालीं। जो काम हम स्थानीय लोग नहीं कर सके, वह बाहर से आकर ये लोग कर गए।
शुक्रिया जस्टिस मल्होत्रा साहिब, दैन कलक्टर साहिबा राधा रतूड़ी जी एवं छंछरी दीदी जी हम टिहरी वालों की ओर से! हम सब आपकी इस नेकनियति हेतु हमेशा हमेशा आपके कृृतज्ञ हैं और जो हम न कर सके उसके लिए शर्मिंदा भी हैं।