मामचन्द शाह
बुधवार सुबह प्रदेश में लिंगानुपात को लेकर सचिवालय में एक समीक्षा बैठक थी। बैठक में सबसे बड़ा आश्चर्यजनक तथ्य यह निकलकर आया कि प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को यह तो नहीं पता है कि प्रदेश में लिंगानुपात क्या है, किंतु उससे भी बड़ा अचरज बैठक में शामिल दर्जनों नौकरशाहों को तब हुआ, जब यह पता चला कि मुख्यमंत्री को तो यह भी नहीं पता कि लिंगानुपात होना कितना चाहिए।
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समीक्षा बैठक के दौरान जब अपर मुख्य सचिव बाल विकास राधा रतूड़ी लिंगानुपात के विश्वसनीय आंकड़ों को जुटाए जाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए यह आवश्यकता जता रही थी कि लिंगानुपात के लिए स्वास्थ्य विभाग को भी हर महीने आंकड़े एकत्र करके सौंपने चाहिए, ताकि और भी अधिक विश्वसनीय लिंगानुपात की स्थिति मॉनिटर हो सके।
इस दौरान मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत पूछ बैठे कि लिंगानुपात होना कितना चाहिए। पहले तो सीएम के मुंह से यह सवाल सुनकर बगल में बैठी राधा रतूड़ी सहित अन्य अफसर अचकचा गए, किंतु जब सीएम ने दोबारा पूछा कि लिंगानुपात होना कितना चाहिए, तब तक अपने को सहज करते हुए राधा रतूड़ी ने बता दिया कि सर होना तो बराबर ही चाहिए।
गौरतलब है कि इससे पहले तीन बार लिंगानुपात को लेकर तीन विभिन्न कार्यक्रमों में मुख्यमंत्री मंच से बोल चुके हैं कि उत्तराखंड लिंगानुपात में पहले नंबर पर है और लिंगानुपात लगातार सुधर रहा है। बिना सोचे समझे मुख्यमंत्री को मंच से बोलते देखकर इससे पहले भी राधा रतूड़ी सार्वजनिक रूप से अपने संबोधन के दौरान मुख्यमंत्री की बात को सीधे न काटते हुए घटते लिंगानुपात की स्थिति पर चिंता जताते हुए बताती रही हैं कि हालिया आंकड़ों के आधार पर उत्तराखंड लिंगानुपात के मामले में अन्य राज्यों से काफी नीचे खिसक चुका है। बीच में मुख्यमंत्री की देखादेखी बाल विकास मंत्री ने भी अपने संबोधनों में उत्तराखंड में लिंगानुपात को बेहतर बताया तो उन्हें उनके विभागीय अफसरों ने बिठाकर कागज-पत्रों सहित समझाया तो अब वह ऐसी बात नहीं कहती, किंतु मुख्यमंत्री को समझाना तो बिल्ली के गले में घंटी बांधने जैसा है। यही कारण है कि आज जब सीएम दो बार पूछ ही बैठे तो बैठक में अफसरों की स्थिति काफी असहज हो गई।
जिन्हें जिम्मेदारी दी, वही खलनायक !नीतियां भी जिम्मेदार
सबसे चिंताजनक बात यह है कि पर्वतजन के पास उपलब्ध सूचना के अनुसार गांवों में जिन एएनएम या आशा वर्कर के पास स्वस्थ बच्चे के प्रसव कराने की जिम्मेदारी दी हुई है, उनमें से कुछ एएनएम शहरों के अल्ट्रासाउंड केंद्रों से मिली हुई हैं और कमीशन के चक्कर में वे कन्या भ्रूण का गर्भपात करवाने के लिए एजेंट का काम कर रही हैं। इसके लिए अल्ट्रासाउंड केंद्रों को यह पता रहता है कि भ्रूण के विषय में सटीक जानकारी एएनएम को ही रहती है, इसलिए वे उन्हें ही अपना एजेंट बना लेते हैं और जब भी एएनएम को ऐसा कोई सॉफ्ट टारगेट दिखाई देता है, जिसके घर में उसकी सास या अन्य कोई परिजन गर्भवती को अगली संतान लड़की होने पर उत्पीडि़त कर रहा हो तो वह उसे बहला-फुसलाकर गर्भपात के लिए तैयार करवा देती हैं। हालत यह हो गई है कि पिछले पांच नवरात्रों से लोगों को कन्या जिमाने के लिए लड़कियां ढूंढनी मुश्किल हो गई है। यह बहुत बड़ी खतरे की घंटी है। यहां हालात हरियाणा से भी बदतर होने जा रहे हैं। एक सरसरी निगाह पर एक आम आदमी भी अपने आसपास देख सकता है कि अधिकांश शहरी और कस्बाई एकल परिवारों में अगर पहली संतान लड़की है तो उस घर में दूसरी संतान भी लड़की नहीं होगी और यदि पहली संतान लड़का होगा तो उसकी दूसरी संतान लड़की नहीं होगी। कन्या भ्रूण हत्या के केस यदि कभी पकडे भी जाते है तो अल्ट्रासाउंड केंद्रों की आपसी लड़ाई से। या फिर दूसरे राज्य की पुलिस द्वारा।
कुछ महीने पहले धर्मपुर स्थित त्यागी अल्ट्रासाउंड केंद्र में हरियाणा की पुलिस ने भ्रूण हत्या के एक मामले को लेकर छापेमारी की थी। यहां पर हरियाणा से आया एक जोड़ा भ्रूण हत्या करा रहा था। अब आप समझ सकते हो कि भ्रूण हत्या के मामले में देश में उत्तराखंड की पहचान एक सुरक्षित अड्डे के रूप में बन रही है। क्या आप इसकी गंभीरता समझ रहे हैं ना ! आखिर यहां पर क्या पीसीपीएनडीटी की टीम सिर्फ दलाली करने के लिए बनी है!
हमारे नीति नियंताओं को यदि यही पता नहीं होगा कि लिंगानुपात होना कितना चाहिए तो फिर कन्या जन्म की उम्मीद करना बेकार ही है।
हमारे राज्य को हरियाणा जैसे राज्यों से यह सीखना चाहिए कि उन्होंने कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए अपने यहां कितना बेहतरीन सिस्टम डेवलप किया है ! वहां गर्भधारण के बाद से गर्भ का प्रॉपर ट्रैक रिकॉर्ड रखा जाता है और प्रेगनेंसी के बाद यदि कन्या का जन्म नहीं हुआ तो आशा वर्कर पर जिम्मेदारी फिक्स की जाती है। जबकि उत्तराखंड में सभी योजनाएं कन्या के जन्म के बाद प्रोत्साहन स्वरूप शुरू की जाती हैं।
सीधा सा प्रश्न है कि प्रोत्साहन तभी तो दोगे जब कन्या पैदा होगी। जाहिर है कि कन्या पैदा हो इसके लिए प्रोत्साहन होना चाहिए।
जन्म मृत्यु पंजीकरण करने वाले ही कर दिए सरकार ने पैदल
यह बात लिंगानुपात का ट्रेक रिकार्ड रखने के लिए बहुत जरूरी है कि जन्म-मृत्यु का पंजीकरण बिल्कुल सही ढंग से कराया जाना जरूरी है, तभी लिंगानुपात पता लग सकता है, लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जन्म मृत्यु पंजीकरण के लिए संविदा पर तैनात 15 कर्मचारी उत्तराखंड में भाजपा की सरकार बनने के बाद से पिछले एक साल से बेरोजगार हैं। उन्होंने सत्ता और शासन के हर दरवाजे पर जा-जाकर संविदा विस्तार की फरियाद करते हुए अपने जूते ही नहीं, एडिय़ां तक घिस दी हैं। इनके संविदा विस्तार की जरूरत स्वास्थ्य महानिदेशालय भी कई बार जता चुका है, किंतु जब नीति नियंताओं को ही इस बात से मतलब नहीं है कि लिंगानुपात होना कितना चाहिए तो फिर उन्हें जन्म मृत्यु पंजीकरण करने वाले कर्मचारियों के सेवा विस्तार से ही क्या सहानुभूति हो सकती है। जागिए सरकार, इससे पहले कि हमारे युवाओं की शादी के लिए बिहार और हरियाणा से लड़कियां लानी पड़े। अभी भी वक्त है, थोड़ा संवेदना दिखाइए।
यह है उत्तराखंड मे लिंगानुपात की हकीकत
पाठकों की जानकारी के लिए यहां यह उल्लेख करना गलत नहीं होगा कि शिक्षा के क्षेत्र में केरल के बाद उत्तराखंड दूसरे नंबर पर आने से वाहवाही लूटता है, लेकिन शिक्षित व सभ्य समाज के बीच जब बात लिंगानुपात की आती है तो उत्तराखंड देश में 13 स्थान पर खड़ा है। इससे भी मजेदार बात यह है कि बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की देशभर में बात करने वाली भाजपा शासित राज्यों में ही लिंगानुपात में भारी गिरावट आई है।
नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार गुजरात में प्रति 1000 पुरुषों पर 907 महिलाओं से अब यह गिरकर 854 पर आ गया है। यहां चार वर्षों में सर्वाधिक 53 प्वाइंट्स की गिरावट दर्ज की गई। इसके बाद हरियाणा में 35 प्वाइंट नीचे, राजस्थान में 32, उत्तराखंड में लिंगानुपात की दर में 27 प्वाइंट्स की गिरावट आई है।
उत्तराखंड में जन्म के समय लिंगानुपात एक हजार लड़कों पर 844 लड़कियों का है, जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार यहां प्रति हजार लड़कों पर 963 बालिकाएं जन्म लेती थी। लड़कियों के जन्म में आई यह गिरावट वाकई उत्तराखंड के लिए बेहद चिंताजनक हैं।