मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत के सामने एक ओर चुनाव में किए वायदों के अनुसार भ्रष्टाचार के खिलाफ धर्मयुद्ध छेडऩे की चुनौती है तो दूसरी ओर उन्हें अपने घोषणा पत्र में गिनाए गए वायदों को पूरा करते हुए वर्ष 2019 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी के प्रति जनता के विश्वास को बनाए रखना है।
योगेश भट्ट
सोलह साल से राजनीतिक अस्थिरता झेल रहे उत्तराखंड ने इस बार सियासत की नई इबारत लिखी है। विधानसभा चुनाव में ऐसा जनादेश दिया कि इतिहास ही रच दिया। एक मजबूत सरकार बनाने के लिए इससे बड़ा जनादेश हो भी नहीं सकता है। इस प्रचंड जनादेश के बाद प्रदेश को त्रिवेंद्र सिंह रावत के रूप में नवां मुख्यमंत्री मिला है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि त्रिवेंद्र प्रदेश भाजपा की प्रथम पंक्ति का चेहरा नहीं थे, बावजूद इसके भाजपा हाईकमान यानी प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने उन पर भरोसा जताया है। जाहिर है, पार्टी के भीतर और बाहर बहुत से लोगों को उनकी ताजपोशी गले न उतर रही हो, लेकिन हकीकत यह है कि वे पार्टी के प्रति विश्वसनीयता, निष्ठा और समर्पण के मानकों पर पूरी तरह मुफीद बैठते हैं। यही एक बड़ा कारण भी है कि कई बड़े चेहरों और योग्य उम्मीदवारों के बावजूद उन्हें कमान सौंपी गई है। त्रिवेंद्र की इस ताजपोशी में सबसे अहम बात यह है कि वे पसंद भले ही हाईकमान की हों, मगर डेढ दशक के इतिहास में पहली बार एक विधायक मुख्यमंत्री चुना गया गया है। अन्यथा अभी तक तो परंपरा पहले मुख्यमंत्री बनने और फिर उपचुनाव के जरिए विधायक बनने की रही है। बहरहाल त्रिवेंद्र के लिए यह बड़ा अवसर है। यहां से उनकी एक नई राजनीतिक यात्रा शुरू होती है। निश्चित तौर पर संघ की पृष्ठभूमि, पार्टी के लिए दिन रात की मेहनत, वरिष्ठ नेताओं के प्रति सम्मान और मौजूदा नेतृत्व से उनकी नजदीकियों ने उन्हें राज्य का नेतृत्व करने का अवसर दिया है। एक राजनेता के तौर पर वे प्रदेश की जरूरतों से बखूबी वाकिफ हैं। उनके लिए कुछ भी नया नहीं है, क्योंकि भाजपा की पिछली सरकार में वे कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं। संगठन का लंबा अनुभव तो उनके पास है ही। इतना ही नहीं, एक मुख्यमंत्री के लिए बेहद जरूरी, मजबूत बहुमत और केंद्र का साथ उनके पक्ष में है। इस लिहाज से देखें तो त्रिवेंद्र बेहद भाग्यशाली सीएम हैं। जिस निष्ठा और समर्पण ने उन्हें इस शिखर पर पहुंचाया है, अब उनसे उसी निष्ठा और समर्पण की दरकार प्रदेश को है। उनसे उम्मीद की जा रही है कि वे अब तक के मुख्यमंत्रियों के काम करने के परंपरागत पैटर्न से अलग हट कर पहले दिन से ही ‘एक्शनÓ लेने लगेंगे। लेकिन अभी तक की उनकी कार्यशैली को देख कर तो इसके संकेत नहीं नजर आ रहे।
नेशनल हाइवे नंबर ७४ के घोटाले पर सीबीआई जांच से लेकर तमाम विवादित अफसरों के तबादले कर त्रिवेंद्र रावत ने संदेश देने की कोशिश की है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पारदर्शी शासन के डंडे से ही उत्तराखंड चलेगा। त्रिवेंद्र रावत के इन तात्कालिक निर्णयों से यह भी संदेश है कि नरेंद्र मोदी उत्तराखंड को दिए जाने वाले एक-एक रुपए का हिसाब लेंगे।
उत्तर प्रदेश की नई सरकार के फैसलों की खबरें उड़कर उत्तराखंड पहुंचती हैं तो यहां की सरकार की कार्यशैली को लेकर आमजन के मन में एक निराशा का भाव उठने लगता है।
यह पहला अवसर है जब उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में दोनों सरकारों न सिर्फ पूर्ण बहुमत मिला है, बल्कि अभूतपूर्व बहुमत के बल पर दोनों प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने-अपने प्रदेशों के लिए सजग होकर यह संदेश देने का प्रयास भी कर रहे हैं कि भाजपा हाईकमान ने मुख्यमंत्री बनाकर उन्हें जो जिम्मेदारियां सौंपी हैं, उन्हें उन पर खरा उतरना ही होगा।
उत्तर प्रदेश में नई कार्य संस्कृति के आगाज का संकेत मुख्यमंत्री के उन एक्शनों में साफ दिखने लगा है, जो उन्होंने पिछले पखवाड़े में लिए हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने अपना एजेंडा साफ कर दिया है कि भ्रष्टाचार मुक्त शासन और कानून व्यवस्था में सुधार उनकी प्राथमिकता है। इसके लिए उन्होंने अधिकारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग का दौर शुरू नहीं किया, बल्कि सभी अधिकारियों को ईमानदारी, स्वच्छता एवं स्पष्टता की शपथ दिलाते हुए काम करने के आदेश जारी कर दिए। सभी जिलाधिकारियों को संपर्क में लेकर उन्हें साफ निर्देश दे दिए कि जनता की समस्याओं को नजरअंदाज न किया जाए। कानून व्यवस्था बिगडऩे की सूरत में उन्होंने बड़े अधिकारियों की जिम्मेदारी भी तय कर दी है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उन्होंने सभी मंत्रियों और अफसरों को पंद्रह दिन के भीतर अपनी संपत्ति एवं आय के स्रोत सार्वजनिक करने को कहा है।
दूसरे राज्य पंजाब की बात करें तो वहां भी मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह एक्शन में आ चुके हैं। उन्होंने प्रदेश में वीवीआईपी कल्चर खत्म करने की शुरुआत करते हुए मंत्रियों और अफसरों द्वारा लाल बत्ती लगे वाहनों का इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी है। इसके अलावा उन्होंने अपने चुनावी वायदे के मुताबिक नशे का व्यापार करने वाले अपराधियों की धरपकड़ के लिए टास्क फोर्स भी गठित की है।
इस भारी जनादेश में छिपे हुए कई सवाल सरकार के सामने हैं। मसलन आपदा से अक्सर दो-चार होने वाले इस प्रदेश में आपदा राहत में होने वाली बंदरबांट बंद होगी या नहीं? अस्पतालों को डाक्टर और दवाइयां मिलेंगी या नहीं? बेरोजगारों को रोजगार के समान अवसर मिलेंगे या नहीं? विधानसभा से लेकर सचिवालय तक चोर दरवाजे से होने वाली भर्तियां रुकेंगी या नहीं? ट्रांसफर पोस्टिंग और नौकरियों में वसूली बंद होगी या नहीं? स्वास्थ्य और शिक्षा की हालत सुधरेगी या नहीं? जमीन, शराब, खनन और शिक्षा के क्षेत्र में माफियाराज खत्म होगा या नहीं? सरकारी सिस्टम जिम्मेदार व जवाबदेह होगा या नहीं? सत्ता चंद नौकरशाहों के इशारों पर चलेगी या इसका विकेंद्रीकरण होगा? शपथग्रहण की तारीख से आज तक की बात करें तो इस अवधि में त्रिवेंद्र सरकार इन सवालों को लेकर कोई बड़ा संदेश जनता के बीच पहुंचाने में नाकाम ही रही है।
प्रचंड बहुमत की सरकार का नेतृत्व करने वाले त्रिवेंद्र रावत आज चुन-चुन कर जिन स्थानों पर नए जिलाधिकारी व पुलिस कप्तान तैनात कर रहे हैं, यदि ये अफसर आशानुरूप परिणाम नहीं देते तो इसकी जिम्मेदारी इन अफसरों पर नहीं, बल्कि स्वयं मुख्यमंत्री पर होगी। तब त्रिवेंद्र रावत ये नहीं कह सकते कि ये अफसर तो पहले से ही अपनी उन तथाकथित प्रवृत्तियों के लिए जाने जाते रहे हैं। त्रिवेंद्र रावत द्वारा दी जाने वाली तैनात और उसके परिणाम के लिए सिर्फ और सिर्फ वही जिम्मेदार होंगे।
उत्तराखंड में सारंगी से लेकर रंजीत रावत तक सत्ता के पावर सेंटर लोगों ने बखूबी देखे और उसके परिणाम भी उन सरकारों ने झेले, जिन्होंने इन लोगों को पावर सेंटर के रूप में तैनात किया था।
दूसरे फैसले में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र ने कुछ अफसरों की जिम्मेदारियां बदली हैं, जिनमें शासन स्तर के सचिव, जिलाधिकारी तथा एसएसपी शामिल हैं। लेकिन यह भी कार्य संस्कृति में सुधार लाने के मकसद से लिया गया फैसला कम और पूर्ववर्ती सरकार के चहेते अफसरों को बड़ी जिम्मेदारियों से हटाना ज्यादा लगता है। मंत्रियों का दफ्तर और आवास के लिए आपस में उलझना यहां बड़ा मुद्दा बना हुआ है। सरकार की धीमी कार्यशैली को देख कर तो यही लग रहा है कि मानो वह अपने से पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों के असफल होने के कारणों की तसल्ली से अध्ययन करना चाहते हों, ताकि जल्दीबाजी में कोई ऐसा निर्णय उनसे न हो कि अपने से पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों की भांति उन पर भी रोलबैक मुख्यमंत्री होने का ठप्पा लगे।
मुख्यमंत्री समेत उनके मंत्रिमंडल के सभी सदस्यों की व्यक्तिगत ईमानदारी भी आम जनता की कसौटी पर है। त्रिवेंद्र सरकार में जनता मोदी की उस छवि की उम्मीद कर रही है, जिसका चुनाव प्रचार के दौरान जम कर प्रचार किया गया। ऐसे में त्रिवेंद्र के लिए यह चुनौती भी है। किसी भी प्रकार की लापरवाही के लिए इस प्रचंड बहुमत की सरकार को चला रहे मुख्यमंत्री ही जिम्मेदार होंगे।
जनता ने भाजपा को जो प्रचंड बहुमत दिया है, वह निश्चित तौर पर बदलाव के लिए दिया है। दरअसल जिस बदलाव की हम बात कर रहे हैं, उससे तात्पर्य सत्ता के बदलाव से नहीं, बल्कि कार्य संस्कृति और व्यवस्था में बदलाव से है। कार्य संस्कृति में होने वाले बदलाव सरकार की नेतृत्व क्षमता पर निर्भर करते हैं, और पहले दिन से ही इनके संकेत नजर आने लगते हैं। उम्मीद है मुख्यमंत्री इस संदेश को समझ पाएंगे और जल्द एक्शन में आएंगे।
परिसंपत्तियों के मसले के समाधान का सु-अवसर
राज्य बनने के बाद यह पहली बार है जब न केवल उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बल्कि केंद्र में भी भाजपा की सरकार है। इस लिहाज से देखें तो सोलह सालों से लटके परिसंपत्तियों के बंटवारे के मसले का अब समाधान हो ही जाना चाहिए। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र के लिए इससे सुखद बात और क्या हो सकती है कि जिस उत्तर प्रदेश के साथ परिसंपत्तियों के मसले का समाधान होना है, उसकी कमान योगी आदित्यनाथ के हाथों में है। योगी न केवल उत्तराखंड से बल्कि उसी पौड़ी जिले से आते हैं जहां त्रिवेंद्र का पुश्तैनी घर भी है। योगी के उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तराखंड की उम्मीदों का दायरा स्वाभाविक रूप से बढ़ कर उत्तर प्रदेश तक पहुंच गया है। योगी भी भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार का ही नेतृत्व कर रहे हैं। ऐसे में प्रदेश की जनता उम्मीद कर रही है कि ‘बड़े भाईÓ उत्तर प्रदेश के साथ अब तमाम अनसुलझे मु्द्दे सुलझ जाएंगे। दोनों राज्यों के बीच जो सवाल खड़े हैं उन्हें हल मिल जाएगा। राज्य गठन के सोलह साल बीतने के बाद भी दोनों राज्यों के बीच परिसंपत्तियों के बंटवारे समेत तमाम मु्द्दे अनसुलझे पड़े हैं। जमीन से लेकर नहरों, झीलों, सरकारी एवं रिहायशी भवनों तथा कई विभागों की हजारों करोड़ रुपये मूल्य की परिसंपत्तियां हैं, जो उत्तराखंड में होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के नियंत्रण में हैं। सुखद बाद है कि सिंचाई विभाग के अधीन आने वाली दो दर्जन के करीब नहरें उत्तर प्रदेश ने उत्तराखंड को सौंप दी हैं। बहरहाल, परिवहन विभाग से जुड़ी करोड़ों रुपये मूल्य की परिसंपत्तियों को लेकर भी दोनों के बीच विवाद है। और तो और कार्मिकों के बंटवारे और पेंशन का मसला भी अभी तक अनसुलझा ही है। इतने सालों तक भी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड इन मसलों का हल नहीं तलाश पाए हैं, तो इसके पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति न होना सबसे बड़ा कारण रहा है। बहरहाल दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार बन जाने के बाद सभी को यह उम्मीद है कि ‘त्रिवेंद्र राजÓ और ‘योगी युगÓ में सभी मसलों का समाधान निकल जाएगा।
बहाने बनाकर बच नहीं सकते
प्रदेश का अब तक का सियासी अनुभव बेहद बुरा रहा है। अंतरिम सरकार के कार्यकाल के बाद प्रदेश में तीन निर्वाचित सरकारें आ चुकी हैं, लेकिन हर बार राजनीतिक अस्थिरता हावी रही। हर सरकार का मुखिया प्रदेश चलाने के बजाय अपनी कुर्सी बचाने में ही लगा रहा। कुर्सी के लिए सत्ताधारी दल के भीतर सत्ता संघर्ष चलता रहा। कोई कुर्सी बचाने में लगा रहा तो कोई कुर्सी हथियाने की जुगत में लगा रहा। नतीजा, सोलह साल में आठ मुख्यमंत्री। इस दौरान हर सरकार दबाव में ही काम करती रही। कभी कर्मचारियों के दबाव में, तो कभी नौकरशाहों के दबाव में, कभी मंत्रियों के दबाव में तो कभी मंत्री पद चाहने वाले विधायकों के दबाव में, सरकारें अपनी भूमिका के साथ अन्याय करती रहीं। दबाव का आलम यह रहा कि एक मुख्यमंत्री ने साफ तौर पर यह बात कबूली कि, सरकार बचाने के लिए उन्हें अपने मंत्री, विधायकों के कारनामों पर आंखें मूंदनी पड़ी। आश्चर्य ये है कि जब-जब सरकार की इस बेचारगी का मुद्दा उठा तो गेंद हर बार यह कह कर जनता के पाले में डाल दी गई कि उसने सरकार को कमजोर जनमत दिया है। लेकिन इस बार ‘कटघरेÓ में खड़ी जनता ने भाजपा को प्रचंड बहुमत देकर इस बहाने का मौका ही खत्म कर दिया है। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत अब खराब परफारमेंस के लिए कोई बहाना नहीं बना सकते हैं। यहां तक कि वे केंद्र से होने वाले भेदभाव का बहाना भी नहीं बना सकते क्योंकि वहां भी भाजपा की ही सरकार है। जिस तरह जनता ने भाजपा को बंपर बहुमत देकर नई इबारत लिखी है, उसी तरह अब मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र और उनकी सरकार को भी नई इबारत लिखने में पीछे नहीं रहना चाहिए। सरकार से अब सिर्फ मजबूत इच्छाशक्ति की दरकार है। उन फैसलों को लेने की दरकार है, जिन्हें लेने की बात तो पिछली सरकारें भी करती थीं, लेकिन हर बार कमजोर बहुमत का रोना रोकर चुप हो जाती थीं। कुल मिलाकर जनादेश के लिहाज से देखें तो प्रदेश की तकदीर बदलने का वक्त आ गया है। अब उम्मीद की जाती है कि सरकार खनन, शराब और जमीन से आगे की बात करेगी। उम्मीद की जाती है कि अब प्रदेश में रीति-नीति की बात होगी और सरकार आम जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप काम करेगी।
सर्वमत से सरकार चलाना त्रिवेंद्र की सबसे बड़ी चुनौती
मतगणना के नतीजे आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रतिक्रिया देते हुए एक तारीफेकाबिल बात कही थी कि, सरकारें बनती भले ही बहुमत से हों, लेकिन चलती सर्वमत से हैं। प्रधानमंत्री की यह बात सौ आना सत्य है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए भी यही जरूरी है कि सरकार सर्वमत से चले। उत्तराखंड को भी आज सर्वमत से चलने वाली सरकार की दरकार है। यह उत्तराखंड का दुर्भाग्य ही है कि राज्य बनने के बाद से आज तक एक भी मुख्यमंत्री ऐसा नहीं हुआ जो सर्वमत से सरकार चला पाया हो। पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी से लेकर हरीश रावत तक, सभी मुख्यमंत्री अंदरूनी मतभेदों से ही जूझते रहे। सर्वमत बनाना उनके लिए हमेशा चुनौती बना रहा, जिस पर वे खरे नहीं उतर पाए। अब मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के पास इस धारणा को तोड़ कर सर्वमत से सरकार चलाने का बड़ा अवसर है।
एनएच-74 घोटाला: सीबीआई जांच की संस्तुति से दिया संदेश
नेशनल हाइवे-74 के चौड़ीकरण में जो घोटाला सामने आया है, वह अभी तक का सबसे बड़ा जमीन घोटाला बनने जा रहा है।
पहला ऐसा मौका है, जब छह पीसीएस अधिकारी एक साथ निलंबित हुए हैं। राज्य के इतिहास में किसी भी घोटाले पर यह अभी तक का सबसे बड़ा ‘एक्शनÓ है। अब ‘गेंदÓ केंद्रीय जांच एजेंसी, सीबीआई के पाले में है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि घोटाला कितना बड़ा होगा, जबकि अभी इसमें आईएएस अफसरों, जन प्रतिनिधियों और सरकार में जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों के नाम सामने आने बाकी हैं। अब आगे देखना यह होगा कि ऐसा हो पाता है या नहीं। यूं तो प्रदेश में हुए घोटालों की फेहरिस्त बड़ी लंबी है, लेकिन इस घोटाले में खास यह है कि सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये डकारे जा चुके हैं। प्राथमिक आंकड़ा ढाई सौ करोड़ के करीब है, जबकि अंदेशा तीन सौ करोड़ से ऊपर का माना जा रहा है। चौंकाने वाला पहलू यह है कि इस घोटाले में अभी बड़े ‘मगरमच्छोंÓ के नाम सामने नहीं आ रहे हैं। जो जांच निचले स्तर पर हुई हैं, उनमें घोटाले का दायरा तो लगातार बढ़ रहा है, लेकिन जांच की जद में अभी तक छुटभैय्ये ही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि जिस तरह से बैकडेट में भू-उपयोग परिवर्तन किया गया, राजस्व अभिलेखों के साथ छेड़छाड़ की गई, पत्रावलियां गायब की गई, मुआवजे के रूप में बीस-बीस गुना अधिक भुगतान कराया गया, इतना दुस्साहसिक कारनामा बिना बड़े संरक्षण के संभव ही नहीं। जिस तरह से इस घोटाले में हर दिन परत दर परत नए तथ्य सामने आ रहे हैं, उसके बावजूद अभी तक प्रदेश में जांच की आंच ‘बड़ोंÓ तक नहीं पहुंची है। बहरहाल मुख्यमंत्री
ने घोटाले की गंभीरता व उसके दूरगामी प्रभावों को भांपते हुए पूरा मामला सीबीआई के हवाले कर दिया है। अपने स्तर पर प्राथमिक जांच में जिन अधिकारियों की संलिप्तता नजर आई है, उन्हें निलंबित करने का फैसला भी उन्होंने लिया है। मुख्यमंत्री का यह फैसला बेहद गंभीर फैसला है। सीबीआई को जांच का जिम्मा देकर उन्होंने एक तो यह साफ कर दिया है कि इसमें आगे की जांच पर कम से कम राज्य सरकार का किसी तरीके का कोई दखल नहीं होगा और जांच में निष्पक्षता भी बनी रहेगी। इस फैसले से सरकार की ओर से भ्रष्टाचार पर गंभीर ‘एक्शनÓ लेने का संदेश भी गया है।
दूसरा पहलू बेहद दिलचस्प है। जिस तरह की चर्चाएं व तथ्य सामने आ रहे हैं, उससे यह साफ है कि आने वाले दिनों में यह घोटाला प्रदेश की सियासत में खासा अहम रोल अदा करने वाला है। जब जांच की आंच सफेदपोशों तक पहुंचेगी तो निश्चिततौर पर कांग्रेस और भाजपा दोनों खेमों में खलबली मचेगी। कम से कम कांग्रेस को लेकर तो शुरू में ही यह साफ हो भी गया है। मुआवजे के लाभार्थियों की ओर से पार्टी के खाते में जमा कराई गई मोटी रकम अपने आप में काफी कुछ बयान कर रही है।
भाजपा के लिए असहज स्थितियां इसलिए होना निश्चित है, क्योंकि उनके कुछ नेताओं व कैबिनेट में एक मंत्री का नाम इस घोटाले को लेकर प्रमुखता से चर्चाओं में है। वाकई सीबीआई ने गंभीरता से जांच की तो कई राज बेपर्दा होंगे। तब देखना यह होगा कि इस घोटाले में ‘एक्शनÓ सियासत से ऊपर उठ कर लिया जाता है या सियासत की भेंट चढ़ जाता है।
कांग्रेस की ‘बड़ी हार’ मगर जमीन बरकरार
विधानसभा की सीटों के लिहाज से देखें तो कांग्रेस आज भले ही हाशिए पर नजर आ रही है, लेकिन हकीकत इतनी भी खराब नहीं है। जनादेश ने कांग्रेस को भले ही सदमा दिया हो, यह लग रहा हो कि वह पूरी तरह साफ हो गई है, पर यह सच नहीं है। सत्ता से बेदखल होने के बावजूद कांग्रेस की जमीन बरकरार है। आंकड़े बता रहे हैं कि मोदी की सुनामी के बाद भी उसके वोटबैंक पर ज्यादा सेंध नहीं लगी। साल 2012 में जब कांग्रेस सत्ता में आई तो उस वक्त उसे लगभग 34 फीसदी मत मिले थे। तब कांग्रेस ने भाजपा से महज आधा फीसदी ज्यादा वोट हासिल किए थे। इस बार मोदी लहर के चलते भले ही कांग्रेस के विजयी उम्मीदवारों की संख्या 32 से 11 हो गई, लेकिन उसके वोट प्रतिशत में पिछली बार के मुकाबले आधा फीसदी कमी ही आई है। इस लिहाज से देखें तो कांग्रेस की हार इतनी बड़ी नहीं है, जितना बड़ा कि उसे सदमा लगा है। इस करारी हार के लिए कांग्रेस ईवीएम पर सवाल उठा रही है। दरअसल उसे जिस तरह ऐसी अनापेक्षित हार का सामना करना पड़ा है, उस लिहाज से देखें तो उसके नेता इस ‘शंकाÓ को वाजिब ठहरा सकते हैं, मगर यह किसी भी दृष्टि से तार्किक नहीं है। आंकड़ों के लिहाज से भी बात की जाए तो ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप के बाद भी कांग्रेस का वोटबैंक बरकरार नजर आता है। इस बार से पहले के तीनों चुनावों की बात की जाए तो सत्ता हासिल करने वाले किसी भी दल को कभी 35त्न से ज्यादा मत नहीं मिले। लेकिन इस बार भाजपा को इससे कहीं ज्यादा 46त्न मत मिले हैं। दिलचस्प यह है कि भाजपा को इतनी बड़ी बढत कांग्रेस का वोटबैंक डिगा कर या उसकी नींव हिलाकर नहीं हासिल हुई, जबकि इस दौरान कांग्रेस के दर्जनभर कद्दावर नेता भाजपा में शामिल हुए थे। कांग्रेस की हार का मूल्यांकन करते वक्त इसे बड़ा मुद्दा माना जा रहा है, जबकि हकीकत ये है कि इन दिग्गजों के भाजपा में चले जाने के बाद भी कांग्रेस का केवल आधा फीसदी वोट बैंक ही घटा। बागियों के लिहाज से देखा जाए तो उनके भाजपा में चले जाने से कांग्रेस को कोई खास नुकसान नहीं हुआ। दरअसल भाजपा को जो बढत मिली उसका सीधा नुकसान बसपा और उत्तराखंड क्रांति दल को हुआ। प्रदेश में बसपा का वोटबैंक लगभग 12त्न माना जा रहा था, लेकिन इस बार वो घट कर 7त्न पर सिमट गया। इसी तरह क्षेत्रीय दल यूकेडी को मिलने वाला अधिकतर वोट भी इस बार भाजपा की झोली में चला गया। इस बार यूकेडी को मात्र .7त्न मत ही मिले, जबकि राज्य गठन के बाद साल 2002 में हुए पहले चुनाव में उसे 5 फीसदी वोट मिले थे। पिछले चुनाव (2012) में यूकेडी का मत प्रतिशत गिर कर लगभग 2त्न हो गया था। इस बार तो उसका पूरी तरह सफाया ही हो गया है। दरअसल यही वो मत प्रतिशत है जो इस बार भाजपा के हिस्से गया। इसलिए भाजपा को यह गलतफहमी कतई नहीं होनी चाहिए कि कांग्रेस का सफाया हो चुका है। यदि कांग्रेस के भीतर नेतृत्व को लेकर खोया हुआ विश्वास लौट आया, तो भाजपा के लिए बड़ी चुनौती खड़ी हो सकती है।