21वीं सदी का विकासशील भारत, डिजिटल इंडिया और पलायन की चिंताओं के बीच राजनेताओं के कोदे की रोटी, झंगोरे की खीर और तिमले की चटनी खाने के उपाय, उत्तरकाशी की सर-बडियार घाटी इन सब जुमलों की हवा निकाल रही है।
रतन सिंह असवाल
दल के सदस्यों द्वारा आठ माह में दूसरी बार वर्तमान हालातों का जायजा लेने हेतु इन गांवों की यात्रा करने के बाद मौका ए हालात का बयां कुछ ये है कि २१वीं सदी के आजाद भारत के अड़सठ साल और आंदोलनों की परिणिती से बने उत्तराखंड राज्य के सोलह सालों में ढांचागत विकास का आलम ये है कि ये गांव सड़क मार्ग से औसतन ८ से १५ किमी. की पैदल दूरी और वर्षाकाल में पैदल मार्गों के टूटने खिसकने से वर्ष के चार माह पूरी दुनिया से कटे अलग थलग ही नजर आते हैं।
आदिमकाल में जनजीवन
स्वास्थ्य एवं शिक्षा एवं शिक्षणेत्तर सुविधाओं का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि प्राथमिक विद्यालय सर एवं धिंगाडी के भवन की दशा प्राचीनकाल के मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई से मिले अवशेषों से भी बदतर हैं। मजे की बात देखिये कि इन गांवों में प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई संयुक्त रूप से विद्यालय भवन के हालिया अवशेषों में सबसे सुरक्षित स्थान, विद्यालय के बरामदे में संचालित होती हैं।
स्वास्थ्य सुविधाओं पर ‘पलायन एक चिंतनÓ दल के आठ माह पूर्व भ्रमण के बाद आज भी हालात जस के तस हंै, बल्कि और बदतर हुए हैं, जबकि अपने पूर्व के भ्रमण के बाद पलायन एक चिंतन द्वारा स्थानीय नागरिकों का इस बाबत मुख्यमंत्री को प्रेषित पत्र पूर्व सांसद प्रदीप टम्टा के माध्यम से मुख्यमंत्री को उस समय के धरातलीय छायाचित्रों के साथ सौंपा गया था, जिस पर दल के सदस्यों को सुधार का आश्वासन भी मिला था। शासन-प्रशासन की चुस्ती और नौकरशाही पर नियंत्रण का आलम यह है कि नियुक्त की गई एएनएम द्वारा टीकाकरण की कागजी रस्म अदायगी के अलावा दी जाने वाली स्वास्थ्य सेवाएं डिजिटल इंडिया का सशक्त उदाहरण बन पुरोला से ही संचालित की जा रही हैं। हालांकि इन गांवों में आज भी संचार क्रांति के युग का आभास न के बराबर है।
बडियार में बिजली नहीं
ऊर्जा प्रदेश का तकिया कलाम लिए उत्तराखंड के लिए इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है कि राज्य में हर तीसरी नदी पर छोटी-बड़ी अनगिनत जल परियोजनाएं और अक्षय ऊर्जा के कागजी प्रयासों के बीच उसी प्रदेश की सर-बडियार घाटी के लोग आज भी बिना बिजली के जीवनयापन कर रहे हैं।
एक तरफ जहां विद्युत मंत्रालय दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना के तहत गैर रोशन गावों में बिजली पहुंचाने का दावा कर रहा है, वहां उजाले के लिए एक क्षेत्र विशेष का आदमकाल के संसाधनों पर निर्भर होना विकास की परिभाषा बयां करने को काफी है।
आश्चर्यजनक किंतु सत्य है कि प्रदेश के जिस जनपद उत्तरकाशी में यह सर बडियार घाटी स्थित है, उस जनपद में देश के विकास में भागीदारी के लिए जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के नाम पर नदियों का अस्तित्व ही खत्म होने के कगार पर है। शासन-प्रशासन और बड़बोले राजतंत्रीय नुमाइंदों के लिए इससे ज्यादा शर्म की और क्या बात हो सकती है कि यहां आजादी के लगभग सातवें दशक में भी बिजली नहीं पहुंच पाई है।
सड़क की सुध नहीं
विकसित होने की दौड़ में आज वायु मार्ग और बुलेट ट्रेन की बात यहां आकर मुंह चिढ़ा जाती हैं, क्योंकि इस घाटी के लोगों के लिए आज भी पहिये का अविष्कार का कोई लाभ नहीं हो पाया। बड़कोट के बाद ३५ किमी. दूर बड़कोट से राजगढ़ी होते हुए सरनौल नामक स्थान के बाद देवदार, कैल और चीड़ के सघन वन से गुजरती मात्र दो से तीन फीट चौड़ी एक कच्ची, सर्पीली पगडंडी इस घाटी के लगभग 5000 लोगों की जीवन रेखा है, जो कि दम साध लेने वाली खड़ी पहाड़ी के तेज ढलानों से गुजर कर इस क्षेत्र के लोगों के जीवन के संघर्ष को और कठोर बनाती है।
बडियार गाड, केदार गंगा और दो अन्य बरसाती नालों से घिरी, सुरम्य दिखने वाली इस घाटी में बसे आठों गांव बरसात के चौमास में बाकी दुनिया से पूरी तरह से कट जाते हैं और वर्ष पर्यन्त सड़क, बिजली, पेयजल, स्वास्थ्य और शिक्षा की समस्याओं से जूझते इन लोगों के लिए यह चार महीने कोढ़ में खाज जैसे हो जाते हैं। लिहाजा इन चार महीनों में गावों में रहने वाला हर एक मरीज, उसका तीमारदार सब भगवान के ही भरोसे रहते हैं। स्थानीय निवासियों ने विस्तृत चर्चा के दौरान दल के सदस्यों को बताया कि बरसात के इन चार महीनों में कई बार इन बरसाती नालों का उफान मरीज या तीमारदार को बहा ले जाता है।
बदहाल स्वास्थ्य सेवा
ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं हेतु सस्ते डाक्टरी शिक्षण प्रदान करने के दावों के बीच जमीनी हकीकत यह है कि पिछले वर्ष एक गर्भवती महिला को प्रसव हेतु एक दिन के पैदल मार्ग के बाद १५ किमी. मोटरमार्ग की दूरी पर निकटस्थ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बड़कोट ले जाया जा रहा था कि बीच मार्ग में कंडी में शिशु को जन्म देकर मर गई।
सनद रहे कि यह इस घाटी की बदहाल तस्वीरों का अकेला उदाहरण नहीं है। हालांकि इस घाटी की स्वास्थ्य सेवाओं पर हम विस्तार से अगली पोस्ट में बात करेंगे पर आवाम के भरोसे पर सत्ता प्रतिष्ठानों की हालिया तस्वीर से परिचय होना नितांत जरूरी है। शासन प्रशासन की मुस्तैदी इस बात से देखी जा सकती है कि वन विभाग ने केदारगंगा पर एक पक्की पुलिया का निर्माण तो बेशक किया है, लेकिन वन विभाग की नायाब इंजीनियरिंग के इस नमूने में बस इतनी सी कमी रह गयी कि विभाग उस पुल को जमीन से जोडऩे के लिए संपर्क मार्ग बनाना भूल गया।
शिक्षा का उजियारा नहीं
स्त्रियां किसी समाज के सांस्कृतिक चेहरे का दर्पण होती हैं, इसीलिए कहा भी जाता है कि किसी समाज को अगर समझना हो तो सबसे आसान तरीका है कि हम उस समाज में नारी के हालात को समझने की कोशिश करें। पलायन एक चिंतन दल ने पाया कि इस क्षेत्र में महिलाओं की सामाजिक स्थिति तिरस्कृत नहीं है। वे परिवार के पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती है। फिर चाहे वो पारंपरिक कृषि का हो या पशुपालन का, जो कि इस क्षेत्र के वाशिंदों की आर्थिकी का एक जरिया है, लेकिन दल ने यह भी पाया कि इन गांवों में नारी शिक्षा के नाम पूरे देश में प्रचार-प्रसार होने के बावजूद शिक्षा सुविधाओं के अत्यंत निरीह अवस्था में होने के कारण अज्ञान की कालिमा नहीं मिटी है। इस अति पिछड़े क्षेत्र की यह पहल विकसित क्षेत्रों के लिए एक सीख है कि कम संसाधनों के बावजूद यहां के वाशिंदों ने लड़कों के समरूप ही लड़कियों को भी शिक्षित करने में कोई भेद भाव नहीं रखा, लेकिन फिर भी पर्याप्त शिक्षा सुविधाओं के अभाव में यहां की अशिक्षित महिलाओं को अपने अधिकारों की जानकारी न होना और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न हो पाने के कारण अभावों से जूझती और रूढिय़ों में जकड़ी हुई इन महिलाओं को महिला सशक्तिकरण जैसी किसी चिडिय़ा के बारे में कोई जानकारी नहीं है। यहां की महिलाएं गीली लकड़ी के धुएं के बहाने अपने अंदर के दर्द को आंखों से बहा देती हैं। तस्वीरें देखकर आप हालातों का सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं।