रुद्रप्रयाग जिले के जयमंडी ग्राम निवासी मोहन सिंह बिष्ट और विमला देवी के घर १२ मई १९८३ को जन्में राकेश बिष्ट बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। यही कारण है कि बचपन से ही उन्हें अपनी माटी से बेहद लगाव था। देश सेवा करने का जज्बा उनमें कूट-कूट कर भरा था। अपने पिता की तरह ही वे सेना में भर्ती होकर देश सेवा करना चाहते थे, लेकिन कहते हैं कि किस्मत जहां लेकर जाती है आदमी वहीं जाता है। राकेश ने गौचर, श्रीनगर, लैन्सडौन, धुमाकोट, कोटद्वार, रायवाला, उत्तरकाशी, से लेकर रानीखेत सहित अन्य जनपदों में जाकर सेना में भर्ती होने का प्रयास किया। लेकिन सफलता हाथ नहीं लग पाई। बाद में राकेश ने रोजगार के लिए मुंबई का रुख किया। मुंबई में कुछ समय काम कर वह गुजरात चले गए गए। गुजरात में 8 साल काम कर वहां का विकास और अत्मनिर्भर ग्रामों को करीब से देखकर उनके मन में भी स्वरोजगार की अलख जगी। राकेश को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का विकास मॉडल ऐसा भाया कि उन्होंने मोदी को अपना प्रेरणास्रोत मान लिया। वे मोदी के विकास कार्यों से काफी प्रभावित हुए। उन्होंने गुजरात के आत्मनिर्भर गांवों को बेहद करीब से देखा और महसूस किया कि क्यों न अपने गांव जाकर बंजर खेतों में कड़ी मेहनत की जाए और रोजगार के नए आयाम स्थापित करू। इसी संकल्प के साथ राकेश बिष्ट अपने गांव लौट गए। राकेश जब ने यह बात अपने पिताजी को बताई तो उनके पिताजी ने भी उनका खूब उत्साह बढ़ाया। पिताजी से मिले प्रोत्साहन से राकेश की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और फिर राकेश ने अपने बंजर और बिरान में खेतों को कठिन परिश्रम से उपजाऊ बनाया। जिसमे उनके हर कदम पर उनकी पत्नी सरिता हाथ बंटा रही है।
उन्होंने खेती को व्यवसायिक रूप देकर साथ ही मत्स्य पालन को भी बढ़ावा दिया। जिसके लिए उन्होंने अपने खेतों में छोटे-छोटे तालाबों का निर्माण कर मत्स्य पालन का भी प्रयास किया है। आज राकेश गांव में ही स्वरोजगार से जुड़कर अपनी आमदनी बढ़ाने को खेतों में हर प्रकार की सब्जियां उगा रहे हैं। जिसमे राई, पालक, मैथी, लहसुन, अदरक, प्याज, टमाटर, आलू, गोबी, बैंगन, करेला, मटर, तुरई, बिन्स, कददू, आदि शामिल है। संब्जियां उगाने के लिए जैविक खाद और जैविक कीटनाशक खुद ही तैयार कर रहे हैं। ताजी सब्जियों की खरीद के लिए अधिकतर ग्राहक उन्हें अग्रिम भुगतान भी करते हैं। बाकी सब्जियों को वह खुद गांव से बाजार तक ले जाते हैं, जहां उनकी सब्जियां हाथों-हाथ बिक जाती है। जिससे उन्हें अच्छी आमदनी प्राप्त हो रही है। राकेश ने अपने खेतों में 100 से अधिक आम और 50 से अधिक नींबू व पपीते के पेड़ भी लगाए हैं। कुछ साल बाद वह भी फल देने शुरू कर देंगे।
राकेश कहतें हैं कि लोग रोजगार के लिए पहाड़ छोड़ रहें है जो कि बेहद दुखद है। यदि खुद पर विश्वास हो और अपने हाथों पर भरोसा हो तो मेहनत करके अपने बंजर पड़े खेत-खलियानों में रोजगार सृजन कर सकतें हैं। जरुरत है तो थोड़ा धैर्य रखने और विश्वास करने की, मैं भी शुरू शुरू में बेहद चिंतित था। लेकिन अब सब कुछ पटरी पर आ गया है। आज मुझे अपने ही घर में खेती से अच्छी खासी आमदानी हो रही है। साथ ही अपने परिवार के सुख दुःख में सदैव साथ हूँ। एक बात की बहुत निराशा है की सरकारें स्वरोजगार को लेकर बहुत कुछ कहतीं हैं, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। स्वरोजगार करने वाले किसानों को प्रोत्साहन देने के नाम पर विभागों के पास कुछ भी नहीं है। जो कुछ है तो वह महज खानापूर्ति तक ही सिमित है। मैं जब गुजरात में था तो मोदी जी के कार्यों से बहुत प्रभावित हुआ। आज भी उनकी कार्यशैली का मुरीद हूँ..। मैं चाहता हूँ कि पहाड़ के घर गांव से पलायन रुके। किसानों को हर प्रकार के कृषि कार्यों के लिए ब्लाक व जिला स्तर पर समय समय पर प्रोत्साहन मिलता रहे। जिससे वह सरकार द्वारा चलाई जा रही की योजनाओं का लाभ ले सकें। साथ ही किसानों को बेहतर प्रशिक्षण के लिए उच्च सोध संस्थानों के विशेषज्ञों द्वारा समय-समय जानकारी मिलती रहे। इससे किसानों में एक नई ऊर्जा का विकास होगा और कृषि, बागवानी में उनकी मेहनत रंग लाएगी। आज राकेश अपने गांव की बंजर जमीन पर सोना उगा रहें हैं। यही कारण है कि वह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। पहाड़ों से हो रहे बेतहाशा पलायन करने वाले युवाओं के लिए वह रोजगार सृजन का प्रेरणास्रोत बन गए हैं।