रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय…. उर्फ़ आत्ममंथन कथा की व्यथा –
( संदर्भ एवं प्रसंग – कल प्रधानाचार्यों को दिए जा रहे लीडरशिप एवं मैनेजमेंट प्रशिक्षण के दौरान माननीय शिक्षा मंत्री जी ने एक मासूम सी बात कही कि आत्ममंथन किया जाना चाहिए I )
माननीय मंत्री जी,
सादर अभिवादन
जब मैं आत्ममंथन करता हूँ तो सबसे पहले यह पाता हूँ कि विगत कुछ वर्षों से जो हालात चल रहे हैं, उनमें न सिर्फ १००० से ज्यादा सरकारी स्कूल प्रधानाचार्य के बिना ही चल रहे हैं, बल्कि जो प्रधानाचार्य बने हैं उनमें से अधिकांशतः उस उम्र में बने या बन रहे हैं, जब सेवानिवृति की ज्यादा दूर नहीं होती है I प्रधानाचार्य पद एक ऐसा पद है जो सामान्यतः मध्यम स्तर पर न सिर्फ सबसे महत्वपूर्ण पद है, बल्कि ऐसा पद भी जिसके ऊपर उच्च स्तर पर लिए गए नीतिगत फैसलों के क्रियान्वयन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी भी होती है (with active participation )। यह एक ऐसा पद है जिसके लिए ४०-४५ वर्ष का आयुवर्ग सबसे उत्तम समझा जाता है (लीडरशिप एवं मैनेजमेंट गुरुओं द्वारा ) , क्योंकि यह आयु वर्ग अनुभव एवं उर्जा का सबसे बेहतर आयु वर्ग भी माना जाता है। ऐसे विभाग में जहाँ सेवानिवृत होने के बाद पेंशन मिलने में शरीर से बचे खुचे कस -बल भी निकल जाते हैं, सेवानिवृत होने वालों से क्रियात्मक उम्मीद करना बहुत उत्साहित तो करता है, लेकिन सिर्फ प्रशिक्षण के समापन सत्र तक। सत्र समाप्त ..उत्साह फिनिश, पेंशन का टेंशन शुरू।
किसी भी पद के साथ दो बातें समान अनुपात में होनी चाहिए – दायित्व एवं प्राधिकार ( responsibility and authority )। इनमें से कोई भी एक चीज कम या अधिक होगी तो गड़बड़ होगी। मैं जब आत्ममंथन करता हूँ तो यह भी पाता हूँ कि न सिर्फ प्रधानाचार्य बल्कि शिक्षा विभाग के सभी पदों के पास जिम्मेदारियों का भारी बोझ है, किन्तु बात जब प्राधिकार की आती है तो स्थिति दयनीय है। हर बार जब भी निर्णय लेने की बात आती है तो जाने कहाँ से कोई अदृश्य उच्च सूत्र बीच में आ टपकता है। जब सारे निर्णय (जो नियमानुसार अधिकारियों को ही लेने थे ) उच्च सूत्र ही लेंगे तो नीचे का ताना –बाना तो तार तार हो ही जाएगा। शिक्षा विभाग में बहुत से काबिल एवं उर्जावान अधिकारी भी हैं। मैं कई बार अलग अलग संदर्भों में अलग अलग अधिकारियों से मिला भी हूँ और लगभग हर बार मैंने उनकी आँखों में बेबसी की झलक भी देखी है )। भगवान् इन्हें और सहनशक्ति दे मंथन के साथ यह कामना भी करता हूँ।
आत्ममंथन के इस प्रयास में जब मैं सरकारी स्कूलों को देखता हूँ तो पाता हूँ कि जिन्हें हम भवन समझते हैं ,उनमें से अधिकतर पुरातत्व विभाग के द्वारा सहेज कर रखे जाने वाले अवशेष ही हैं। जब भी इनकी बात आती है तो पैसे की कमी की दुहाई दी जाती है, लेकिन हवाईअड्डे –फ्लाईओवर –राजमार्ग आदि के निर्माण के समय पैसे की कमी आड़े नहीं आती , यह अजीब बात है। या तो सरकारी स्कूलों को भी नयी आधुनिक सुविधाओं से लैस कीजिये या इन्हें जंगल-झोपडी वाला गुरुकुल ही बना दीजिये ,,ये आधा तीतर –आधा बटेर वाली बात ठीक नहीं।
मंथन से कोई रत्न मिलने की उम्मीद में जब और आत्ममंथन करता हूँ तो पाता हूँ कि शिक्षक समुदाय के सपनों की तो भ्रूणहत्या हो चुकी है । न तबादला ,न प्रमोशन , न व्यक्तिगत सामाजिक –सामुदायिक भावनाओं को क्रियान्वित करने के कोई सहारा। एक ऐसी मशीन जो सुबह प्रार्थना की घंटी से शाम छुट्टी की घंटी तो गिन सकती है ,किन्तु इस बीच उसका दिल कितना धड़का ,इसकी खबर नहीं । प्राथमिक स्तर के शिक्षक – जिस पर शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद टिकी है – उनकी स्थिति तो और भी नाजुक है।
ऐसा नहीं है कि शिक्षक कुछ करना नहीं चाहते , पर विगत कुछ वर्षों से हर सप्ताह जितने दिवस मनाने होते हैं ( आदेशानुसार ) , उनके चलते जो कर रहे हैं ,वह भी करना मुश्किल हो जाता है। अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है। जब सारे निजी स्कूलों में प्रवेश समाप्त होने को थे ,तो आदेश आया “ प्रवेशोत्सव “ मनाने का। मना भी दिया ,धूमधाम से ही मनाया, लेकिन शायद ही ऐसा कोई सरकारी स्कूल रहा हो जहाँ प्रवेशोत्सव में किसी विधायक /सांसद /मंत्री /बड़े अधिकारी / हर फटे में अपनी टांग अडाने वाले उच्च सूत्र ने भाग लिया I शिक्षा समाज का दर्पण है ,शिक्षक समाज का अंग है , लेकिन विधायक /सांसद /मंत्री /बड़े अधिकारी / उच्च सूत्र शायद दर्पण नहीं देखते I दर्पण से डर लगता है क्या?
मन्थन के क्रम में यह भी पाता हूँ कि प्राथमिक से इंटर तक ,अधिकाँश स्कूल , शिक्षकों एवं अन्य सहायक कार्मिको की कमी से जूझ रहे हैं। शिक्षकों की कमी की भरपाई करने की बजाय बड़ी संख्या में शिक्षकों को ऐसी जगह अटैच किया गया है ,जहाँ वे क्या कर रहे हैं, स्वयं वह शिक्षक ही क्या बेचारा ब्रह्मा भी नहीं जानता ।
आगे आत्ममंथन करता हूँ तो पाता हूँ कि गत दो –ढाई वर्षों में शिक्षा विभाग में शिक्षा से जुड़ा हुआ कोई महत्वपूर्ण मुद्दा सार्वजनिक चर्चा का विषय नहीं बना। बल्कि दो ऐसे मुद्दे चर्चा में छाये रहे जिनका शैक्षणिक गुणवत्ता से शायद वही सम्बन्ध हो सकता है जो बबूल के पेड़ का नाभिकीय रिएक्टर से होता है। पहला मुद्दा जो चर्चा में आया वह था ड्रेस कोड का , इस मुद्दे पर अनावश्यक रूप से जो तलवारें खिंची, वे शायद म्यान में वापिस तो चली गयी है, किन्तु तलवारधारियों के हाथ आज भी तलवार की मूंठ पर ही हैं। दूसरा मुद्दा जो चर्चा में कम –कानाफूसी में ज्यादा रहा ( कई बार ऐसे मुद्दे पर चर्चा करने से बहादुर घबराते जो हैं ), वह था शिकायत प्रकोष्ठ का मामला। सरकारी विभागों में शिकायत निवारण प्रकोष्ठ तो सुने और देखे थे , किन्तु साक्षात शिकायत प्रकोष्ठ मेरे लिए एक अजूबा ही था। इस अजूबे प्रकोष्ठ में नामित कुछ शिक्षकों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता भी हूँ , शिक्षक के रूप में उनकी योग्यता –दक्षता का मैं प्रशंसक भी हूँ , किन्तु जितनी बार भी मैंने ऐसे योग्य शिक्षकों को दरवाजा खोलते –बाद करते ,या फोटो खींचते देखा , हर बार मुझे बहुत दया आई I प्रभु इन्हें भी शक्ति दे।
आत्ममंथन और भी करना चाहता था , किन्तु अब देखता हूँ कि यह दूध तो फट गया ,इसको मथने में मत्था मारने से कोई लाभ नहीं। मक्खन तो दूर, इसकी तो मट्ठा भी होगी। अब लाख मथानी चला लूं , कान्हा को माखन नहीं मिलेगा और इस बार वो सच में रो पड़ेगा -मैय्या मोरी मैं नहीं माखन खायो …।
नयी गाय-भैंस बन्धवाइये हुजुर ,ये गाय भैंस एक तो दूध कम देती हैं ,,कभी कभी देती है ( सींग और लात ज्यादा मारती हैं ) ,उपर से जाने क्या हो गया है कि हांडी पर रखते ही इनका दिया दूध फट भी जाता है।
चलते चलते एक विनम्र अनुरोध भी-
किसी जमाने में राजा विक्रमादित्य, राज भोज अक्सर प्रजा का हाल जानने के लिए राजसी वस्त्र और और दरबारियों को छोड़ वेशभूषा बदल कर जनता के बीच जाते थे ( राजसी वस्त्र और और दरबारियों की पुरानी आदत है सच छुपाने की) । कभी अपना लाव लश्कर छोड़ कर मेरे साथ चलियेगा तो सही , दूर दराज के गाँवों में मरते हुए सपनों का दर्दनाक मंजर दिखा लाऊंगा , यकीन रखिये गाली कोई नहीं देगा , पर तालियों की उम्मीद भी मत ही करियेगा।
शुद्ध और ताजे दूध को मथने की प्रतीक्षा में आस लगाये।
आपका एक विनम्र सेवक
मुकेश प्रसाद बहुगुणा
(निजी स्कूलों में बढती भीड़ के सवाल पर अगली चिट्ठी में )