क्रांति भट्ट ,चमोली
उत्तराखंड में सरकारी नौकरी में 25 वर्षों से ” दुर्गम” स्थान पर ही रखा गया है। इस प्रकरण ने ” चर्चा और सियासत ” में भूकंप मचाया । व्यवस्था का चेहरा बताया। और एक पक्ष की विवशता भी उजागर की। “देहरादून दरबार” का मामला था, इसलिए इस पर देहरादून से लेकर दिल्ली तक चर्चा हुई।अखबार से लेकर टीवी , नुक्कड़ से लेकर हर जगह “इस दुर्गम” ने जगह पायी।
पर इसी उत्तराखंड में जहां नौकरी के लिये “दुर्गम” “सुगम” ” के मानक निर्धारित किये गये हैं, एक इलाका ऐसा भी है, जहां जनता , स्कूली बच्चे हैं पर उनके रोज मर्रे के जीवन में कुछ भी “सुगम” नही है। जिन्दगी को व्यवस्था ने इतना ” दुर्गम ” बना दिया है कि हालात को बयां करने के लिये शब्द बौने पड़ जाते हैं ।
चमोली जिले की “उर्गम” घाटी है। तकरीबन 6 हजार से अधिक आबादी वाला क्षेत्र। तीन दर्जन से अधिक गांवों वाला। कुदरत ने भरपूर सौंदर्य बिखेरा है। पंच केदारों में एक कल्पेश्वर यहीं है । पर ब्यवस्था की अनदेखी ने ” उर्गम ” के नौनिहालों और ग्रामीणों का जीवन “दुर्गम ” बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है ।
2013 की आपदा में कल्प गंगा पर बना पुल बह गया था। जो अभी तक नही बन पाया। नदी पर बल्लियां डालकर बच्चे स्कूल आ जा रहे हैं। ग्रामीण भी रोजमर्रे का जीवन और काम इसी “बल्लियाँ के पुल.” के माध्यम से करने को मजबूर हैं। इलाके के सामाजिक कार्यकर्ता रघुवीर सिंह नेगी बताते हैं कि 2013 की आपदा में बहा पुल अभी तक नही बन पाया । कहने को तो कुछ दिन के लिये ट्राली भी लगाई गई। पर चंद दिनों बाद वह भी ठप्प हो गयी।
बरसात आने वाली है नदी उफनेगी। कल्पना करते ही दिल दिमाग सिहर जाता है कि बल्लियों के सहारे कैसे बच्चे स्कूल जायेंगे! ग्रामीण घास लकड़ी कैसे लायेंगी ! आवागमन किस तरह होगा ! जान जोखिम में डालकर उर्गम के लोगों के जीवन को यह व्यवस्था कितना “दुर्गम” बना रही है! सामाजिक सरोकारों से जुड़े लेखक संजय कुंवर कहते हैं कि उर्गम घाटी के दुर्गम जीवन पर किसकी नजर जायेगी ?