उत्तराखंड में आने वाले चुनाव में चार-चार पूर्व मुख्यमंत्री जैसे दिग्गज विकल्प होने के बावजूद किसी को भी चुनावी चेहरा न बनाने की जिद भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को भारी पड़ सकती है।
राजीव थपलियाल
उत्तराखंड की सियासत में सबसे बड़ा सवाल तैर रहा है कि आने वाले दिनों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में क्या भाजपा अपना परचम लहरा पाएगी! भारतीय जनता पार्टी के जो हालात नजर आ रहे हैं, उससे कोई भी तस्वीर साफ नहीं हो पा रही। हालांकि हाल के कुछ दिनों में मुख्यमंत्री हरीश रावत की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से गिरा है, लेकिन भाजपा उसे कैश नहीं करा पा रही। रटी-रटाई जुमलेबाजी के सहारे भाजपा नेता कांग्रेस पर हमला कर रहे हैं। भाजपा का बेदम विरोध जनता को लुभा नहीं पा रहा। शायद यही कारण रहा कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की रैलियां फ्लॉप के करीब जा रही हैं। भाजपा को इसकी चिंता करनी चाहिए न कि हकीकत बताने वालों पर कार्रवाई के।
विधानसभा चुनावों में उत्तराखंड की 70 सीटों पर जीत हासिल करने का ख्वाब देख रहे भाजपा हाईकमान के लिए सत्ता की राह उतनी आसान नहीं है, जितना कि उसे प्रदेश में जिम्मेदारी संभाल रहे नेता समझा रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट हों या फिर प्रदेश प्रभारी श्याम जाजू समेत समेत अन्य नेता के बहकावे में आए बगैर अमित शाह को वही देखना चाहिए, जो कि वह अपनी आंखों से हरिद्वार और देहरादून में देख चुके हैं।
अमित शाह 26 जून को उत्तराखंड सरकार के खिलाफ पर्दाफाश रैलियों का आगाज करने हरिद्वार पहुंचे थे। यह पार्टी अध्यक्ष का उत्तराखंड का पहला दौरा था, इसलिए तैयारी भी प्रदेश के नेताओं की ओर से जबरदस्त होनी लाजिमी थी। तब प्रदेश नेतृत्व की ओर से रैली में दो लाख लोगों के पहुंचने का दावा किया जा रहा था, लेकिन आयोजकों की हवाइयां तब उड़ गई, जब रैली स्थल पर इज्जत बचाने लायक लोग भी नहीं पहुंचे। हालात यहां तक रहे कि अमित शाह को मौके पर पहुंचने से देरी करवाई गई। इस दौरान खानपुर और हरिद्वार के दो नेताओं ने चार-पांच हजार लोग लाकर अपने नेताओं का सिर अमित शाह के सामने झुकने से बचा लिया। इसके बावजूद महज करीब पंद्रह हजार की भीड़ ही मौके पर जुट पाई थी।
इसके बाद 13 नवंबर को देहरादून के परेड ग्राउंड में उत्तराखंड सरकार के खिलाफ परिवर्तन यात्रा की शुरुआत करने पहुंचे अमित शाह को फिर बगैर भीड़ की सभा को संबोधित करना पड़ा। पिछली बार से सबक सीखे नेताओं ने मात्र ५० हजार लोगों की भीड़ जुटने का दावा किया। इस बार करीब एक चौथाई भीड़ की जुट पाई। मैदान में लगभग चार हजार कुर्सियां लगी थी, जो शाह के आने से पहले तक खाली ही रही। बड़े दिग्गज नेता की पोल अमित शाह के सामने खुल चुकी थी, लेकिन इस बार मोदी की ‘फाइनेंसियल सर्जिकल स्ट्राइकÓ का बहाना कर लाज बचाई गई।
22 नवंबर को अल्मोड़ा में आयोजित परिवर्तन रैली को संबोधित करने एक बार फिर अमित शाह पहुंचे। प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट के गृह जनपद में राष्ट्रीय अध्यक्ष के सामने जरूर करीब सात-आठ हजार की भीड़ ने पार्टी को संबल दिया। इसके बावजूद चुनाव से ठीक पहले रैलियों और जनसभाओं में भीड़ का न जुटना भाजपा के लिए चिंताजनक तो है ही। भाजपा के इस हश्र को पार्टी के निचले स्तर के कार्यकर्ता पार्टी के कर्ता-धर्ताओं को बताते हैं। इन कार्यकर्ताओं का मानना है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष की जनसभाओं में भीड़ का न जुटना पार्टी के लिए साफ संदेश है। अभी प्रदेश का जिम्मा संभालने वाला नेतृत्व न संभला तो आने वाले दिनों में भी जनसभाएं सूनी न रह जाएं।
वरिष्ठ पत्रकार अजय गौतम कहते हैं, ”भाजपा के पास अभी भी संभलने का मौका है। वह अपने कार्यकर्ताओं में भरोसा पैदा कर सकता है अन्यथा एंटी इन्कमबेंसी का फायदा भी भाजपाई नहीं ले पाएंगे।ÓÓ
अमित शाह के चुनाव से पूर्व के इस शक्ति प्रदर्शन का कांग्रेस में खूब मजाक उड़ाया जा रहा है। मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार ने कहा कि अमित शाह छुट्टे रुपये देने या एटीएम खोलने का वादा करते तो ज्यादा भीड़ जुट सकती थी। कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता प्रदीप भट्ट ने अमित शाह की रैली को फ्लॉप शो बताते हुए कहा कि कांग्रेस से 10 विधायकों को ले जाने के बाद भी जब अमित शाह के कार्यक्रम में बमुश्किल पांच हजार लोग भी नहीं जुट सके। इससे उन्हें समझ लेना चाहिए कि भाजपा की चुनाव में क्या हालत होने वाली है। यह अलग बात है कि भाजपा के नेताओं के पास कांग्रेस के सवालों का फिलहाल कोई जवाब नहीं है।
हालांकि भाजपा नेता अपनी कमी को देखने को तैयार नहीं हैं। पार्टी के सदस्यता अभियान से जुड़े युवा नेता नवीन पैन्यूूली आलोचकों को नसीहत देते दिखे कि अमित शाह की रैली को फ्लॉप कहने वाले पहले अपने गिरेबान में झांकें। कांग्रेस ने राज्य की जो हालत कर दी है, उसमें जनता तो छोडि़ए, उनके पास कार्यकर्ता तक नहीं जुटने वाले।
भाजपाई नेता शायद कई मुगालते पाले हुए हैं। उन्हेें लगता है कि ‘मोदी नामÓ के सहारे हम उत्तराखंड में विजय पा लेंगे। इसके अलावा ‘खंडूरी है जरूरीÓ टाइप का कोई नारा इस बार फिर आएगा। जो गांव देखा नहीं, वो भला, पर यहां तो लोग खंडूरी के राज को दो-दो बार देख चुके हैं।
खंडूरी और दूसरे नेताओं के राज में एक ही फर्क रहा कि जहां एनडी तिवारी, रमेश पोखरियाल ‘निशंकÓ और हरीश रावत के राज में कई चोर दरवाजे रहे हैं, वहीं खडूरी के राज में बमुश्किल तीन या चार दरवाजे थे। हर किसी की खंडूरी सरकार के चोर दरवाजों तक एप्रोच नहीं थी, इसलिए उसे ईमानदार माना गया। लेकिन यहां तो सारंगी सरीखे कुछ नाम ही सब पर भारी हो जाते हैं। इसके अलावा भाजपाई छद्म चुनावी सर्वे में अपने को जीता हुआ दिखाकर बरगलाने की कोशिश में भी जुटे हैं।
जानकारों की मानें तो यह राजनीतिक सर्वें कुछ भी कहें, सत्य तो यह है कि फिलहाल हवा न भाजपा के पक्ष में दिखाई दे रही है और न ही कांग्रेस के पक्ष में। राज्य के सियासी इतिहास में इस बार जो होगा, वह शायद जो अब तक हुआ है, उससे भी कहीं ज्यादा आश्चर्यजनक रहेगा।
हालात 2012 से अलग नहीं हैं। पिछली बार पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी, बीसी खंडूरी और डा. रमेश पोखरियाल निशंक के खेमों में बंटी भाजपा में जीत से अधिक जोर इस पर रहा कि कहीं दूसरा गुट न जीत जाये। खुद की हार से ज्यादा डर दूसरे की जीत का था। तब कथित भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे निशंक की पकड़ पार्टी पर कमजोर होने के कारण उनके जिताऊ दावेदारों के टिकट काटकर कोश्यारी-खंडूरी के अनाम समर्थकों को टिकट दे दिए गए। सोचा गया कि खंडूरी नाम के सहारे सबकी नैया पार हो जाएगी, लेकिन, पार्टी यह भूल गई कि खंडूरी की छवि के साथ बदमिजाजी और रूखापन भी जुड़ा है। जो व्यक्ति जनता से दो बोल प्यार के न बोल सके, उसके लिए जनता का प्यार क्योंकर उमड़ता!
इसके अलावा खंडूरी के साथ कुछ नाम ऐसे जुड़े हुए थे, जिनके दाग उन्हें हमेशा पीड़ा देते रहेंगे। तब भाजपा में तीन ही नेता थे, लेकिन बकौल अजय भट्ट पार्टी में अब सीएम की उम्मीदवारी के योग्य दो दर्जन लोग हैं। इससे व्यक्तिगत स्वार्थों में कौन किसको कहां झटका दे जाए, इसका पता चुनाव परिणाम के बाद ही चल पाएगा।
भाजपा के पार्टी मुखिया की रैलियों में जनसमुदाय की मामूली मौजूदगी के बाद शायद पांचों सांसदों को चुनाव के लिए जिम्मेदारी दे दी जाए। ऐसा हुआ तो भाजपा के कई सूरमाओं की हालत पतली होनी तय है। पार्टी में सालों से जुड़े नेताओं के सब्र का बांध टूट चुका है। विधायकी के सपने देखते-देखते कई नेता अपनी उम्र के उस पड़ाव में जा चुके हैं, जहां कुछ शेष नहीं रहता। कई-कई चुनाव लड़वाने का अनुभव वाले ऐसे नेताओं के पास अच्छा खासा जनसंपर्क भी है। ‘सियासी कुंठाÓ का शिकार यह नेता अपना भविष्य देखेंगे अथवा दूसरे के लिए फिर से बेगारी करेंगे, यह विचारणीय है।
कुल मिलाकर यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अमित शाह की टीम में बड़े फेरबदल किए बगैर भाजपा के लिए सत्ता दूर ही है। अमित शाह जाग गए तो ठीक, नहीं जागे तो पार्टी के पास विपक्ष की सीट आरक्षित है ही।
भाजपा हाईकमान के लिए सत्ता की राह उतनी आसान नहीं है, जितना कि उसे प्रदेश में जिम्मेदारी संभाल रहे नेता समझा रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट हों या फिर प्रदेश प्रभारी श्याम जाजू समेत समेत अन्य नेता के बहकावे में आए बगैर अमित शाह को वही देखना चाहिए, जो कि वह अपनी आंखों से हरिद्वार और देहरादून में देख चुके हैं।
यह राजनीतिक सर्वें कुछ भी कहें, सत्य तो यह है कि फिलहाल हवा न भाजपा के पक्ष में दिखाई दे रही है और न ही कांग्रेस के पक्ष में। राज्य के सियासी इतिहास में इस बार जो होगा, वह शायद जो अब तक हुआ है, उससे भी कहीं ज्यादा आश्चर्यजनक रहेगा।
”जो पार्टी अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए थोड़े से भी लोग न जुटा पाए, उसकी हालत का अंदाजा खुद लगाया जा सकता है। मुख्यमंत्री हरीश रावत और प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय दोनों के संयुक्त नेतृत्व में कांग्रेस आगे बढ़ रही है और अगामी विधानसभा चुनाव में सत्ता कांग्रेस के हाथों में ही रहेगी।
– प्रदीप भट्ट, प्रदेश प्रवक्ता कांग्रेस