शंकर सिंह भाटिया
प्रजातंत्र में आम आदमी का वोट सबसे अधिक ताकतवर माना जाता है, क्योंकि इस वोट के बल पर ही कोई सरकार सत्ताच्युत होती है तो दूसरी गद्दीनशी हो जाती है। माना जाता है कि हमारे लोकतंत्र में वोटर अपने मुद्दों पर वोट देता है और उसी आधार पर प्रतिनिधि चुने जाते हैं। प्रतिनिधियों का बहुमत सरकार का गठन करता है। यदि उत्तराखंड की बात करें तो यहां तीन विधानसभाएं पहले ही चुनी जा चुकी हैं, चौथी विधानसभा के लिए किए गए वोट ईवीएम में बंद हैं। 11 मार्च को ईवीएम से नतीजे बाहर आ जाएंगे। नतीजे चाहे जो भी होंगे, लेकिन वोट पाने के लिए नेताओं ने जो कुछ किया है, यह चुनाव उसकी पराकाष्ठा है। आने वाला चुनाव इस मामले में इससे आगे होगा।
इन हालातों ने लोकतंत्र के प्रति बहुत सारे लोगों में वितृष्णा भर दी है। यदि शराब, दावतें, धन का प्रलोभन, जाति, धर्म के आधार पर लोगों को वोट देने के लिए मजबूर किया जाएगा तो उनके मुद्दे स्वाभाविक तौर नैपथ्य में चले जाएंगे। धन बल के आधार पर जीतकर आने वाली सरकारें अपनी जिम्मेदारियों का किस तरह निर्वहन करती हैं, यह हम पिछले डेढ़ दशक से अधिक समय से देख रहे हैं।
सवाल कौन जीतकर आता है, इस बात का नहीं है। यह तय है कि जो भी सरकार आएगी, वह जनता के मुद्दों को दरनिकार कर आने वाली है। यह सीधे तौर पर वोटर को छलने वाली बात होगी। आम आदमी सरकार से अपेक्षा रखता है कि वह बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य समेत तमाम समस्याओं का समाधान करे। उत्तराखंड जैसे राज्य में जहां सरकारें दावा करती हैं कि उसके प्रयास से राज्य देश के सबसे अधिक प्रगति करने वाले छह राज्यों में शामिल है, लेकिन राज्य का 85 प्रतिशत भूभाग अर्थात पूरा पहाड़ बद से बदतर हालात की तरफ बढ़ रहा हो, ऐसे कटु सत्य से सरकारें खुद बचने की कोशिश करती हैं। क्या सच्चाई से मुंह चुराने वाली सरकार इस सच्चाई को स्वीकार करेगी? कतई नहीं।
जब चुनाव जनता के मुद्दों पर लडऩे के बजाय राजनीतिक दलों द्वारा सृजित किए गए हवाई मुद्दों पर लड़ा जाता है तो सत्ता में आने के बाद असल मुद्दों के प्रति सरकारों की जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है। सत्ता के दावेदारों का यही प्रयास भी होता है। पिछली तीन विधानसभा के चुनाव में यही हुआ। इस बार यह पहले से ज्यादा हुआ है। पांच साल बाद हालात और बदतर होंगे, यह तय है, यह वोटर को छला जाना नहीं तो और क्या है?