भारत सरकार द्वारा भेजी गई 15 क्रेन आकार में बड़ी होने के कारण पुलिस विभाग में कबाड़ में तब्दील हो गई और किराये पर निजी ठेकेदारों की क्रेनों का इस्तेमाल करना पड़ा
भूपेंद्र कुमार
वातानुकूलित कमरों में बैठकर योजनाएं बनाकर कार्यान्वित करने का कई उल्टा असर होता है। उत्तराखंड पुलिस ने केंद्र से पहाड़ों में चलने लायक छोटी क्रेनों की मांग की थी, किंतु केंद्र सरकार के राजमार्ग मंत्रालय ने इतनी बड़ी क्रेने थमा दी कि उनका पहाड़ी सड़कों पर चलना ही मुश्किल है। लिहाजा कुछ खड़े-खड़े कबाड़ हो गए रहे हैं।
पर्वतीय क्षेत्रों में आए दिन दैवीय आपदा, भूस्खलन और सड़क दुर्घटनाएं होती रहती हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्रालय इन दुर्घटनाओं में राहत कार्यों के लिए राज्यों को क्रेन सरीखी सुविधाएं आवंटित करता है। वर्ष २००२ से लेकर २०१३ तक भारत सरकार के राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्रालय ने पुलिस विभाग को १५ भारी-भरकम क्रेनें आवंटित की थी। भूस्खलन में मार्ग अवरुद्ध होने के कारण जो वाहन मार्ग में फंस जाते हैं, उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में छोटी क्रेनें काफी उपयोगी साबित होती हैं, क्योंकि उन्हें पहाड़ों और संकरे मार्गों पर आसानी से चलाया जा सकता है।
ये क्रेनें उत्तराखंड के हरिद्वार, देहरादून और ऊधमसिंहनगर छोड़कर शेष पर्वतीय राज्यों के लिए भारत सरकार से मंगाई गई थी। भारत सरकार इन क्रेनों का आवंटन ‘राष्ट्रीय राजमार्ग दुर्घटना राहत सेवा योजनाÓ के अंतर्गत राज्यों को करती है।
वर्ष २००२ से लेकर २०१३ तक भारत सरकार द्वारा उत्तराखंड पुलिस मुख्यालय को १५ क्रेनें आवंटित की गई थी। उदाहरण के तौर पर पुलिस मुख्यालय उत्तराखंड के पुलिस अधीक्षक कार्यालय नई टिहरी को दिसंबर २००८ में २१.२० लाख रुपए की एक हिल रिकवरी क्रेन आवंटित की थी। यह क्रेन इतनी बड़ी थी कि ऑपरेटर न मिलने से यह क्रेन फरवरी २०१५ तक निष्क्रिय पड़ी रही। कैग ने भी क्रेन की लॉग बुक की जांच करके पाया था कि क्रेन का कोई उपयोग नहीं हुआ। इसी तरह १९.६९ लाख रुपए की एक क्रेन दिसंबर २०११ में देहरादून जिले को आवंटित की गई थी, किंतु यह भी बिना उपयोग के कबाड़ में तब्दील होती रही। पूछने पर पुलिस अधीक्षक देहरादून ने बताया कि देहरादून में तो इस क्रेन की जरूरत ही नहीं थी और न ही इसकी मांग की गई थी। टिहरी में छह साल तक इस क्रेन का कोई उपयोग नहीं हो पाया तो तीन साल तक देहरादून की क्रेन भी पड़े-पड़े सड़ती रही।
ऐसा नहीं है कि देहरादून और टिहरी में दुर्घटनाएं न हुई हों। इन दोनों जिलों में इस दौरान विभिन्न दुर्घटना स्थलों से लगभग ६४० दुर्घटनाग्रस्त वाहनों को टिहरी जिले से निकाला गया और ५५ वाहनों को पुलिस अधीक्षक देहरादून के द्वारा क्रेनों से हटाया गया, किंतु जो क्रेनें आवंटित की गई थी, उनका उपयोग नहीं किया गया।
इस तरह से जिस उद्देश्य के लिए इन क्रेनों को भारत सरकार ने आवंटित किया था, वह पूरा नहीं हो पाया। ये सभी क्रेनें खड़े-खड़े कबाड़ में तब्दील हो गई हैं।
ये दोनों उदाहरण तो मात्र देहरादून और टिहरी को आवंटित एक-एक क्रेन के हैं। इसी तरह से वर्ष २००२ में चमोली को एक के्रन आवंटित की गई थी तो अल्मोड़ा को भी वर्ष २०१५ में एक क्रेन आवंटित की गई थी। रुद्रप्रयाग, हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर, नैनीताल, पिथौरागढ़, पौड़ी आदि जिलों में आवंटित अन्य क्रेनों का भी लगभग यही हाल है।
यह सभी को विदित है कि वर्ष २०१२ तथा २०१३ में चमोली तथा रुद्रप्रयाग सहित पिथौरागढ़, बागेश्वर, अल्मोड़ा और उत्तरकाशी जिलों में भयानक आपदाएं आई थीं। इसके बावजूद यह आश्चर्यजनक है कि सर्वाधिक आपदाग्रस्त जिलों से चमोली तथा अल्मोड़ा को मात्र एक-एक के्रन ही आवंटित की गई तो उत्तरकाशी के लिए एक भी क्रेन नहीं दी गई, जबकि देहरादून और टिहरी में क्रेन खड़े-खड़े कबाड़ में तब्दील हो गई।
के्रनों की खरीद के बाद उनके इस तरह निष्प्रयोज्य रहने के पीछे विश्लेषण करने पर एक अधिकारी कहते हैं कि यह क्रेने पहाड़ों में सैकड़ों फीट गहरी खाई में गिरे वाहनों को ऊपर खींचने में सफल नहीं है। इसके लिए दूसरे रिकवरी वाहनों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
यही कारण है कि अकेले टिहरी और देहरादून में ५८५ वाहन पुलिस विभाग द्वारा किराये पर लिए गए के्रनों की मदद से हटाए गए और विभाग की अपनी क्रेनें निष्प्रयोज्य पड़ी रही।