उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने देहरादून में एक मुंबई निवासी व्यक्ति को अपनी ढाई बीघा जमीन बेची थी। जब वह व्यक्ति मौके पर अपनी जमीन पर कब्जा लेने गया तो पता चला कि यह जमीन तो किसी और के कब्जे में है। जिसके पास अपना स्वामित्व दर्शाने के लिए सभी दस्तावेज भी हैं।
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने विधायक रहने के दौरान वर्ष 2007 में यह जमीन बेची थी लेकिन परिणाम यह हुआ कि मुख्यमंत्री से जमीन खरीदने वाले व्यक्ति को तेरह साल बाद भी,आज तक भी कब्जा नहीं मिला है।
खरीददार व्यक्ति ने देहरादून के जिलाधिकारी को इसकी शिकायत की है। अब जिला प्रशासन इस मामले की जांच कर रहा है। दिसंबर माह में खरीददार ने तत्कालीन जिलाधिकारी श्री रविशंकर को इसकी शिकायत की थी। तत्कालीन जिलाधिकारी को मुख्यमंत्री कार्यालय तथा शिकायतकर्ता दोनों की ओर से इस मामले में जांच करने के लिए कहा गया था।
इस मामले में जानकारी रखने वाले एक व्यक्ति ने बताया कि जिला प्रशासन ने जांच में पाया कि वर्तमान में उस जमीन पर जिस व्यक्ति का कब्जा है। रिकॉर्ड और दस्तावेजों में वह सही दस्तावेजों के आधार पर उस जमीन पर काबिज है।
आश्चर्य की बात यह है कि आखिर एक ही जमीन दो व्यक्तियों को किस तरीके से बेच दी गई?
शहर के बाहरी बाहरी छोर मेहूवाला माफी में स्थित यह जमीन मुख्यमंत्री द्वारा भले ही खरीददार को बेची गई हो लेकिन जिस व्यक्ति का इस जमीन पर कब्जा है, वह जमीन उसी व्यक्ति के नाम पर रजिस्टर्ड है।
सबसे अहम सवाल यह है कि एक विधायक के स्वामित्व वाली जमीन कैसे बेची जा सकती है जबकि दूसरा खरीददार के नाम पर भी इसका अधिकार है।
नवंबर में खरीददार इस जमीन पर कब्जा न मिलने के कारण मुख्यमंत्री कार्यालय से संपर्क किया और इस जमीन पर फिर से कब्जा लेने के लिए मुख्यमंत्री कार्यालय से हस्तक्षेप के लिए अनुरोध किया।
मुख्यमंत्री कार्यालय का कहना है कि उन्होंने यह मामला जिला प्रशासन को जांच के लिए सौंप दिया था। उनका कहना है कि जमीन के दस्तावेज जांच में सही पाए गए थे। और इससे पहले कि जिला प्रशासन खरीददार को कब्जा दिला सकता उससे पहले ही इस जमीन पर काबिज व्यक्ति ने कोर्ट से स्टे ले लिया।
इस केस से साफ साफ समझा जा सकता है कि जब मुख्यमंत्री की जमीन को ही देहरादून में कई खरीददारों को बेचा जा सकता है तो फिर देहरादून में जमीनों के मामले आम लोगों के लिए किस तरह से उलझे हुए होंगे।
इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है, जब मुख्यमंत्री की जमीन ही सुरक्षित नहीं है तो फिर आम आदमी के पैरों तले की जमीन खिसकनी स्वभाविक है। इस पूरे प्रकरण से कुछ सवाल खड़े होते हैं।
पहला सवाल यह है कि क्या जब त्रिवेंद्र सिंह रावत यह जमीन बेची थी तब क्या उन्हें पता था कि इस जमीन पर कोई और व्यक्ति काबिज है ?
दूसरा सवाल यह है कि जमीन बेचने के बाद इस जमीन पर 12 साल बाद भी खरीददार को कब्जा क्यों नहीं दिलाया जा सका है ?
तीसरा सवाल यह है कि क्या त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इस जमीन को खरीदने और बेचने का जिक्र अपने चुनाव घोषणा पत्र में किया है ?
चौथा सवाल यह है कि जब मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के पैरों तले ही उनकी जमीन खिसक गई है तो फिर आम आदमी की जमीन कितनी सुरक्षित है?
पांचवा सबसे अहम सवाल यह है कि जो मुख्यमंत्री अपनी ढाई बीघा जमीन नहीं संभाल सकता, वह इस राज्य को भला कैसे संभाल सकता है ?
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