एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड पंचायतों में महिलाओं को देश में पहला स्थान मिला है। मतलब पंचायतों में प्रतिनिधित्व के हिसाब से सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व महिलाओं का उत्तराखंड में है।
गोदी मीडिया को भी सरकार की तारीफ करने का मौका मिल गया है। लेकिन यह कोई नहीं बता रहा है कि उसी सर्वे का एक और पार्ट है जिसमें कहा गया है कि प्रबंधकीय पदों पर उत्तराखंड की महिलाएं देश में सबसे निचले पायदान पर हैं।
यानी उत्तराखंड में आरक्षण के लिहाज से वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए आधी आबादी को पंचायतों में तो आरक्षण दे दिया गया लेकिन उनके कौशल को नहीं बढ़ाया गया। ना उनका क्षमता का विकास हुआ ना उनकी कोई ठीक से ट्रेनिंग हुई।
इसलिए महिलाएं अभी भी रबर स्टैंप बनी हुई है। लोकतंत्र के इस पेड़ पर पत्तियों के नाम पर उत्तराखंड में प्रधान पति, प्रमुख पति, क्षेत्र पंचायत पतियों का ही बोलबाला है।
आंकड़ों के आईने में देखें तो पूरे देश भर में वर्ष 2020 में प्रबंधकीय पदों पर महिलाओं का प्रतिशत 18.7 था। जो कि वर्ष 2021 में मामूली सी गिरावट के साथ मात्र 18% पर अटका। यानि पॉइंट 7 की मामूली सी गिरावट आई।
लेकिन उत्तराखंड में वर्ष 2020 में प्रबंधकीय पदों पर 11.7 प्रतिशत महिलाएं हैं, जोकि वर्ष 2021 में मात्र 3.3 प्रतिशत रह गई। यानी पूरे देश में कामकाजी महिलाओं के लिहाज से उत्तराखंड सबसे निचले पायदान पर है।
यही नहीं आधी आबादी के राज्य में 70 विधानसभा सीटों मे से मात्र आठ सीटों पर ही महिलाएं हैं, जबकि 62 सीटों पर पुरुष विधायक हैं।
उत्तराखंड में 11 न्यायाधीशों के पदों में से एक भी पद पर महिला न्यायधीश तैनात नहीं है।
इसके अलावा “व्हाई शुड बॉयज हैव ऑल द फन” के विज्ञापनों की भरमार के बावजूद मात्र 12% महिलाएं ही पुरुषों के मुकाबले स्कूटी अथवा कार चलाती हैं।
अब किसी को सरकार की चमचागिरी में गुणगान गाने के लिए पैसा मिल रहा हो तो कोई क्या कर सकता है।