उत्तराखंड की बेटी से दिल्ली में दुष्कर्म। नौ साल बाद भी अगली तारीख का इंतजार
दुष्कर्म के बाद आंखों में तेजाब डाला, नाजुक अंगों से शराब की बोतल मिली, नौ साल हो गए, अभी सुप्रीम कोर्ट में ‘अगली तारीख’ का इंतजार है। हाईकोर्ट ने 2014 में ही फांसी की सजा सुना दी थी, लेकिन फिर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और लटक गया, परिवार को तो ये भी नहीं पता कि अगली तारीख कब है, वो अपने वकील का नाम तक सही से नहीं जानते
पिता कहते हैं, ‘मैं जंतर मंतर पर धरने पर बैठा था, बेटी के पोस्टर लगाए थे, वहां केजरीवाल का भाषण चल रहा था, उन्होंने हमारी ओर झांककर नहीं देखा, दूसरे गेट पर राहुल गांधी की बैठक चली, वो भी हमारी तरफ नहीं आए’। किरण की मौत मीडिया की सुर्खियां नहीं बनीं, पिता जब इंसाफ मांगने मुख्यमंत्री के पास गए थे तो ये कहकर टरका दिया गया था कि ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, न्याय के नाम पर अधिकारियों ने एक लाख का चैक पकड़ा दिया। कुंवर सिंह नेगी लड़खड़ाते कदमों से एक छोटे से किराए के घर में दाखिल होते हैं। ये उनके रिटायर हो जाने की उम्र हैं, लेकिन कुछ देर बाद ही उन्हें नाइट ड्यूटी पर जाना है। वो सुरक्षा गार्ड हैं और घर के अकेले कमाने वाले। बड़ी बेटी, जिसने नौकरी करके परिवार की ज़िम्मेदारी थाम ली थी, सामने दीवार पर उसकी तस्वीर टंगी है। कुंवर सिंह नेगी हाथ से इशारा करके कहते हैं, ये थी मेरी बेटी, और मैं उस लड़की को देखती रहती हूं।
सलीके से पहने कुर्ते पर गले में पड़ा सफेद दुपट्टा। चेहरा बिलकुल पिता जैसा। आंखों से झांक रहे सपने। ये तस्वीर उसने अपने दस्तावेजों पर लगाने के लिए खिंचाई थी। अब दीवार पर टंगी हैं। उसकी मौत के साथ सिर्फ उसके सपने ही खत्म नहीं हुए हैं बल्कि परिवार में बाकी रह गए चार लोगों के सपने भी चकनाचूर हो गए हैं।
पिता जो हमेशा ये सोचता था कि अब बेटी कमाने लगी है, मेरे आराम करने के दिन आ रहे हैं। वो मां जो बेटी के टिफिन में रोटियां रखते हुए गर्व से फूली नहीं समाती थी कि मेरी बेटी काम पर जा रही है। वो छोटे भाई-बहन जो अपनी हर जरूरत के लिए दीदी की ओर दौड़ते थे, अब गुमसुम उदास से बैठे हैं। वो घर में एक दूसरे से अपना दर्द छुपाते हैं, अकेले होते हैं तो दिल भर रो लेते हैं, लेकिन गम है कि कम नहीं होता।
वो 9 फरवरी 2012 की शाम थी। किरण नेगी रोजाना की तरह काम से घर लौट रही थी। सूरज डूब चुका था, कुछ धुंधली रोशनी रह गई थी। बस से उतरते ही किरण के कदम तेज हो गए थे, बीस मिनट का ये पैदल रास्ता उसे जल्दी तय करना था। घर पहुंचते ही वो मां से कहती थी, मां मैं आ गई।
लेकिन, उस दिन दरिंदों की उस पर नजर थी। एक लाल रंग की इंडिका कार में उसे अगवा कर लिया गया। हरियाणा ले जाकर तीन दिन तक उसका रेप किया गया। फिर एक सरसों के खेत में उसे मरने के लिए छोड़ दिया गया। पुलिस रिकॉर्ड बताते हैं वो दरिंदों से अपनी जान की भीख मांगती रही, लेकिन हवस मिटाने के बाद भी उनका दिल नहीं पसीजा और उन्होंने उसे ऐसी दर्दनाक मौत दी कि लिखते हुए हाथ कांपने लगते हैं।
9 फरवरी 2012 को किरण नेगी को अगवा करने के बाद दरिंदों ने तीन दिनों तक गैंगरेप किया था।
क्या यहां ये बताना मायने रखता है कि उसकी आंखों में तेजाब डाल दिया गया था। उसके नाजुक अंगों से शराब की बोतल मिली थी। पाना गरम करके उसके शरीर को दाग दिया गया था। अगर ये सब ना भी हुआ होता तो क्या उसकी मौत का गम परिवार के लिए कम होता?
किरण नेगी की मौत पर आक्रोश नहीं फूटा था। वो मीडिया की सुर्खियां नहीं बनीं थी। उसके चले जाने के बाद बहसें नहीं हुई थीं, कानून नहीं बदले गए थे। कोई नेता उसके घर नहीं गया था। उसके पिता जब बेटी के लिए इंसाफ मांगने तत्कालीन मुख्यमंत्री के पास गए थे तो ये कहकर टरका दिया गया था कि ‘ऐसी घटनाएं तो होती ही रहती हैं।’
उस दिन को याद करके वो आज भी फफक पड़ते हैं। वो कहते हैं, मैं उस वक्त की सीएम शीला दीक्षित के पास गया था। कई लोग मेरे साथ थे। जब हमने उनसे घटना के बारे में बताया तो उन्होंने कहा ऐसे अपराध तो होते ही रहते हैं। नेगी बताते हैं कि वहां अधिकारियों ने उन्हें एक लाख रुपए का चैक दिया। इसके अलावा किसी भी तरह की कोई मदद या मुआवजा उन्हें नहीं दिया गया।
इस घटना को नौ साल होने को आए हैं, लेकिन परिवार अभी भी इंसाफ का इंतजार कर रहा है। किरण नेगी का गैंगरेप करने वाले तीनों दरिंदों को हाई कोर्ट ने साल 2014 में ही फांसी की सजा सुना दी थी। लेकिन, फिर ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और लटक गया। परिवार को तो अब ये भी नहीं पता कि अगली तारीख कब है। वो अपने वकील का नाम तक सही से नहीं जानते। बस इस उम्मीद में रहते हैं कि उनके जीते-जी दरिंदों को फांसी हो जाए।
किरण नेगी एक गरीब परिवार में पैदा हुए मेहनती बेटी थी, जिसे पता था कि घर की पूरी जिम्मेदारी उसे उठानी है। उसकी मां माहेश्वरी नेगी कहती हैं, ‘वो बहुत सपने देखती थी, कहती थी जल्द से जल्द अपना घर खरीदना है। वो उड़ना चाहती थी। हमने भी कभी उस पर कोई पाबंदी नहीं लगाई। काम से वापस लौटती थी तो तेजी से पास आकर कहती थी मां मैं आ गई।’
इंसाफ की उम्मीद, देरी पर रोष
किरण के पिता कहते हैं, ‘आठ साल कोर्ट कचहरी का चक्कर लगाते लगाते बीत गए। पांव में छाले पड़ जाते हैं। हम न्याय के लिए ही दौड़ रहे हैं, लेकिन न्याय मिल नहीं रहा है। हमारी कानून व्यवस्था अपराधियों को पनाह देती है और पीड़ितों से चक्कर कटवाती है। अगर हमारी बेटी हाथरस की होती तो न्याय मिलता, हमारी बेटी देश की निर्भया होती तो न्याय मिलता। ये निर्भया से पहले का केस है, निर्भया के मुलजिमों को फांसी हो गई, हम अभी भी लाइन में ही लगे हैं। हमें नहीं पता कि कब फांसी होगी।’
परिवार कहता है, ‘सरकार अंधी तो है नहीं, सब देखती है। मां-बाप कब तक अपनी बेटियों के पीछे-पीछे जाएंगे और कहां-कहां तक जाएंगे। सुरक्षा की जिम्मेदारी तो सरकार की ही है। बेटियों को घर में कैद नहीं रखा जा सकता। आजकल एक की कमाई से घर नहीं चलता है। बेटियों को नौकरी करने के लिए बाहर निकलना ही है।’
दुष्कर्म के बाद आंखों में तेजाब डाला, नाजुक अंगों से शराब की बोतल मिली, नौ साल हो गए, अभी सुप्रीम कोर्ट में ‘अगली तारीख’ का इंतजार है। हाईकोर्ट ने 2014 में ही फांसी की सजा सुना दी थी, लेकिन फिर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और लटक गया, परिवार को तो ये भी नहीं पता कि अगली तारीख कब है, वो अपने वकील का नाम तक सही से नहीं जानते
पिता कहते हैं, ‘मैं जंतर मंतर पर धरने पर बैठा था, बेटी के पोस्टर लगाए थे, वहां केजरीवाल का भाषण चल रहा था, उन्होंने हमारी ओर झांककर नहीं देखा, दूसरे गेट पर राहुल गांधी की बैठक चली, वो भी हमारी तरफ नहीं आए’। किरण की मौत मीडिया की सुर्खियां नहीं बनीं, पिता जब इंसाफ मांगने मुख्यमंत्री के पास गए थे तो ये कहकर टरका दिया गया था कि ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, न्याय के नाम पर अधिकारियों ने एक लाख का चैक पकड़ा दिया। कुंवर सिंह नेगी लड़खड़ाते कदमों से एक छोटे से किराए के घर में दाखिल होते हैं। ये उनके रिटायर हो जाने की उम्र हैं, लेकिन कुछ देर बाद ही उन्हें नाइट ड्यूटी पर जाना है। वो सुरक्षा गार्ड हैं और घर के अकेले कमाने वाले। बड़ी बेटी, जिसने नौकरी करके परिवार की ज़िम्मेदारी थाम ली थी, सामने दीवार पर उसकी तस्वीर टंगी है। कुंवर सिंह नेगी हाथ से इशारा करके कहते हैं, ये थी मेरी बेटी, और मैं उस लड़की को देखती रहती हूं।
सलीके से पहने कुर्ते पर गले में पड़ा सफेद दुपट्टा। चेहरा बिलकुल पिता जैसा। आंखों से झांक रहे सपने। ये तस्वीर उसने अपने दस्तावेजों पर लगाने के लिए खिंचाई थी। अब दीवार पर टंगी हैं। उसकी मौत के साथ सिर्फ उसके सपने ही खत्म नहीं हुए हैं बल्कि परिवार में बाकी रह गए चार लोगों के सपने भी चकनाचूर हो गए हैं।
पिता जो हमेशा ये सोचता था कि अब बेटी कमाने लगी है, मेरे आराम करने के दिन आ रहे हैं। वो मां जो बेटी के टिफिन में रोटियां रखते हुए गर्व से फूली नहीं समाती थी कि मेरी बेटी काम पर जा रही है। वो छोटे भाई-बहन जो अपनी हर जरूरत के लिए दीदी की ओर दौड़ते थे, अब गुमसुम उदास से बैठे हैं। वो घर में एक दूसरे से अपना दर्द छुपाते हैं, अकेले होते हैं तो दिल भर रो लेते हैं, लेकिन गम है कि कम नहीं होता।
वो 9 फरवरी 2012 की शाम थी। किरण नेगी रोजाना की तरह काम से घर लौट रही थी। सूरज डूब चुका था, कुछ धुंधली रोशनी रह गई थी। बस से उतरते ही किरण के कदम तेज हो गए थे, बीस मिनट का ये पैदल रास्ता उसे जल्दी तय करना था। घर पहुंचते ही वो मां से कहती थी, मां मैं आ गई।
लेकिन, उस दिन दरिंदों की उस पर नजर थी। एक लाल रंग की इंडिका कार में उसे अगवा कर लिया गया। हरियाणा ले जाकर तीन दिन तक उसका रेप किया गया। फिर एक सरसों के खेत में उसे मरने के लिए छोड़ दिया गया। पुलिस रिकॉर्ड बताते हैं वो दरिंदों से अपनी जान की भीख मांगती रही, लेकिन हवस मिटाने के बाद भी उनका दिल नहीं पसीजा और उन्होंने उसे ऐसी दर्दनाक मौत दी कि लिखते हुए हाथ कांपने लगते हैं।
9 फरवरी 2012 को किरण नेगी को अगवा करने के बाद दरिंदों ने तीन दिनों तक गैंगरेप किया था।
क्या यहां ये बताना मायने रखता है कि उसकी आंखों में तेजाब डाल दिया गया था। उसके नाजुक अंगों से शराब की बोतल मिली थी। पाना गरम करके उसके शरीर को दाग दिया गया था। अगर ये सब ना भी हुआ होता तो क्या उसकी मौत का गम परिवार के लिए कम होता?
किरण नेगी की मौत पर आक्रोश नहीं फूटा था। वो मीडिया की सुर्खियां नहीं बनीं थी। उसके चले जाने के बाद बहसें नहीं हुई थीं, कानून नहीं बदले गए थे। कोई नेता उसके घर नहीं गया था। उसके पिता जब बेटी के लिए इंसाफ मांगने तत्कालीन मुख्यमंत्री के पास गए थे तो ये कहकर टरका दिया गया था कि ‘ऐसी घटनाएं तो होती ही रहती हैं।’
उस दिन को याद करके वो आज भी फफक पड़ते हैं। वो कहते हैं, मैं उस वक्त की सीएम शीला दीक्षित के पास गया था। कई लोग मेरे साथ थे। जब हमने उनसे घटना के बारे में बताया तो उन्होंने कहा ऐसे अपराध तो होते ही रहते हैं। नेगी बताते हैं कि वहां अधिकारियों ने उन्हें एक लाख रुपए का चैक दिया। इसके अलावा किसी भी तरह की कोई मदद या मुआवजा उन्हें नहीं दिया गया।
इस घटना को नौ साल होने को आए हैं, लेकिन परिवार अभी भी इंसाफ का इंतजार कर रहा है। किरण नेगी का गैंगरेप करने वाले तीनों दरिंदों को हाई कोर्ट ने साल 2014 में ही फांसी की सजा सुना दी थी। लेकिन, फिर ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और लटक गया। परिवार को तो अब ये भी नहीं पता कि अगली तारीख कब है। वो अपने वकील का नाम तक सही से नहीं जानते। बस इस उम्मीद में रहते हैं कि उनके जीते-जी दरिंदों को फांसी हो जाए।
किरण नेगी एक गरीब परिवार में पैदा हुए मेहनती बेटी थी, जिसे पता था कि घर की पूरी जिम्मेदारी उसे उठानी है। उसकी मां माहेश्वरी नेगी कहती हैं, ‘वो बहुत सपने देखती थी, कहती थी जल्द से जल्द अपना घर खरीदना है। वो उड़ना चाहती थी। हमने भी कभी उस पर कोई पाबंदी नहीं लगाई। काम से वापस लौटती थी तो तेजी से पास आकर कहती थी मां मैं आ गई।’
इंसाफ की उम्मीद, देरी पर रोष
किरण के पिता कहते हैं, ‘आठ साल कोर्ट कचहरी का चक्कर लगाते लगाते बीत गए। पांव में छाले पड़ जाते हैं। हम न्याय के लिए ही दौड़ रहे हैं, लेकिन न्याय मिल नहीं रहा है। हमारी कानून व्यवस्था अपराधियों को पनाह देती है और पीड़ितों से चक्कर कटवाती है। अगर हमारी बेटी हाथरस की होती तो न्याय मिलता, हमारी बेटी देश की निर्भया होती तो न्याय मिलता। ये निर्भया से पहले का केस है, निर्भया के मुलजिमों को फांसी हो गई, हम अभी भी लाइन में ही लगे हैं। हमें नहीं पता कि कब फांसी होगी।’
परिवार कहता है, ‘सरकार अंधी तो है नहीं, सब देखती है। मां-बाप कब तक अपनी बेटियों के पीछे-पीछे जाएंगे और कहां-कहां तक जाएंगे। सुरक्षा की जिम्मेदारी तो सरकार की ही है। बेटियों को घर में कैद नहीं रखा जा सकता। आजकल एक की कमाई से घर नहीं चलता है। बेटियों को नौकरी करने के लिए बाहर निकलना ही है।’
पीड़िता के माता और पिता। घटना के लगभग नौ साल बाद भी ये परिवार उबर नहीं सका है। आर्थिक मदद के लिए ना समाज आगे आया और न ही सरकार।
पीड़िता के माता और पिता। घटना के लगभग नौ साल बाद भी ये परिवार उबर नहीं सका है। आर्थिक मदद के लिए ना समाज आगे आया और न ही सरकार।
तुरंत फांसी की मांग
कुंवर नेगी का कहना है कि जब तक रेप के मामलों में त्वरित न्याय नहीं होगा कुछ नहीं बदलेगा। वो कहते हैं कि जो डर बेटियां महसूस करती हैं वो डर अपराधियों में होना चाहिए। नेगी कहते हैं, “मेरा मानना है जब तक अपराधियों को फांसी नहीं होगी, रेप नहीं रुकेंगे। इन जैसे अपराधियों को तुरंत फांसी देनी चाहिए। जिन मामलों में पुख्ता सबूत होता है उनमें तीन से छह महीनों के भीतर इन दरिंदों को फांसी होनी चाहिए। ऐसा होगा तब ही ये अपराध रुकेंगे। ये लोग सरकारी राशन खा रहे हैं, इन्हें तिहाड़ में भर रखा है। इन्हें सरकारी खर्चे पर जिंदा रखने की क्या जरूरत है?”
जंतर-मंतर पर दिया धरना, सबने नजरअंदाज किया
अपनी बेटी को इंसाफ दिलाने के लिए कुंवर नेगी जंतर-मंतर पर लंबा धरना भी दे चुके हैं। वो कहते हैं कि कोई भी नेता उनसे मिलने नहीं पहुंचा। नेगी कहते हैं, ‘मैं जंतर-मंतर पर धरने पर बैठा हुआ था। वहां केजरीवाल का पंडाल लगा था, भाषण चल रहा था, उन्होंने हमारी ओर झांककर नहीं देखा। दूसरे गेट पर राहुल गांधी की बैठक चली, वो भी हमारी तरफ नहीं आए। मेरी बेटी को न्याय दिलाने के लिए पोस्टर लगे थे, लेकिन किसी ने उस पर गौर नहीं किया।’
उसकी मौत के बाद परिवार के सामने गंभीर आर्थिक संकट खड़ा हो गया। लेकिन परिवार की आर्थिक मदद के लिए ना समाज आगे आया और न ही सरकार। घटना के लगभग नौ साल बाद भी ये परिवार उबर नहीं सका है। वो एक अंधेरे भरी दुनिया में फंसा हैं जहां सिर्फ न्याय ही उनकी जिंदगी में रोशनी ला सकता है।
उस वक़्त दिल्ली के तत्कालीन सीएम अरविंद केजरीवाल ने बहुत शर्मनाक बयान दिया था। केजरीवाल ने कहा था कि ऐसे केस होते रहते है इन पर ध्यान मत दो।