मंगलवार 31 मार्च को सुबह 7:00 बजे से शाम 8:00 बजे तक लॉक डाउन में छूट का समय सरकार द्वारा इसलिए दिया गया है कि उत्तराखंड के अंदर विभिन्न जगहों पर फंसे हुए लोग यदि अपने-अपने घर जाना चाहे तो वे जा सकें। इसके साथ ही विभिन्न स्थानों पर फंसे हुए अन्य राज्यों के लोग भी अपने घर जाने के लिए उत्तराखंड की सीमा पर पहुंच सकते हैं। इस छूट के समय और औचित्य पर सवाल खड़े हो रहे हैं।
पहला सवाल यह है कि जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोरोना का मतलब यह समझा चुके हैं कि “कोई रोड पर ना निकले” तो फिर 31 मार्च को इस छूट का क्या मतलब है !
इससे यह आशंका बलवती हो गई है कि जैसी भीड़ 28 मार्च को दिल्ली आनंदविहार के बॉर्डर पर देखी गई कहीं उत्तराखंड में भी सड़कों पर वैसा ही हुजूम ना उमड़ जाए ! इनमें से कई लोग कोरोना वायरस के साइलेंट कैरियर हो सकते हैं। जब तक जांच होगी और जांच में कुछ निकलेगा, तब तक यह संभावित व्यक्ति कम्युनिटी में वायरस फैला चुका होगा ।
पहाड़ आने वाले कई लोग भले ही लॉक डाउन और आइसोलेशन का पालन कर रहे हैं, लेकिन इनमें कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सभी जगह घूम रहे हैं।
रुद्रप्रयाग में तो ऐसे 15 लोगों के खिलाफ मुकदमा तक दर्ज किया जा चुका है। समाज के लिए ऐसे लोग घातक की तो हैं ही, बल्कि प्रशासन के लिए भी ऐसे अराजक लोग बड़ी समस्या बने हुए हैं।
ऐसे में उचित तो यही रहता कि जो जहां है, उसे वहीं पर शरणार्थी शिविर अथवा एक्वायर किए गए होटलों में रख दिया जाता तथा वहीं पर उनके लिए रहने खाने और जांच जैसी व्यवस्थाएं कर दी जाती।
इस काम के लिए शहरी क्षेत्रों में वार्ड मेंबर से लेकर राजनीतिक पार्टियों के कैडर के बूथ कार्यकर्ता ,सामाजिक कार्यकर्ता, सरकारी कर्मचारी-अधिकारियों के नेटवर्क में बेहतरीन तरीके से काम कर सकते थे।
दूसरा सवाल यह है कि 31 मार्च को सिर्फ उत्तराखंड में ही इसकी अनुमति दी गई है कि कोई व्यक्ति उत्तराखंड के अंदर ही एक जिले से दूसरे जिले में अपने गांव जा सकता है।
किंतु जो लोग हल्द्वानी, काशीपुर अथवा कुमाऊं के किसी भी जिले में जाना चाहते हैं, उन्हें उत्तर प्रदेश से होकर जाना पड़ेगा।
धामपुर नगीना नजीबाबाद से होकर गुजरने वाले 70 किलोमीटर एरिया मे एनएच 74 पर पूरी तरीके से लॉक डाउन है।
ऐसे में यदि उत्तर प्रदेश से पहले से ही अनुमति नहीं ली गई तो फिर यह लोग उत्तर प्रदेश की सीमा में फंस सकते हैं।
ऐसा हुआ तो सरकार की भी किरकिरी होनी तय है और उत्तराखंड के यात्रियों की फजीहत तो हो ही रही है। आज यदि लाल ढंग से चिल्लर खाल तक और कोटद्वार से कौलागढ़ तक जंगल के बीच में फ्लाईओवर बना होता तो शायद उत्तर प्रदेश से नहीं जाना होता।
तीसरा अहम सवाल यह है कि यदि किसी को पिथौरागढ़ या मुनस्यारी जाना हो तो फिर उनके लिए 13 घंटे का दिया गया समय नाकाफी है।
क्योंकि 18 घंटे में वह व्यक्ति हल्द्वानी तक ही पहुंच पाएगा। समय रहते इस पर विचार विमर्श करना बेहद जरूरी हो गया है।
यदि शीघ्र निर्णय नहीं लिया गया तो फिर जनता तक सही-सही संदेश पहुंचना मुश्किल हो जाएगा। यदि इन शहरों के लिए 30 मार्च की रात को चलने वाली गाड़ियां अनुमन्य कर दी जाए तभी 31 मार्च को वे सकुशल अपने अपने घरों तक पहुंच सकते हैं।
चौथा सवाल यह है कि गुजरात भेजी गई बसों के लिए यह तर्क दिया गया है कि वापसी मे उनमें बैठकर देश के विभिन्न राज्यों से उत्तराखंड के लोग उत्तराखंड आएंगे। ऐसे में वे लोग उत्तराखंड के ऋषिकेश या हल्द्वानी, उधम सिंह नगर की सीमा पर पहुंचने के बाद पिथौरागढ़, बागेश्वर अथवा चमोली ,उत्तरकाशी के सीमांत क्षेत्रों में स्थित अपने घरों में सही समय पर पहुंच पाएंगे या नहीं यह भी सुनिश्चित करना होगा।
और ऐसे दूसरे राज्यों से पहुंचने वाले लोगों की जांच कहां पर होगी ! उत्तर प्रदेश में ही होगी या उत्तराखंड की शुरुआती सीमा पर होगी अथवा उनके घर गांव के पास स्थित स्वास्थ्य केंद्रों पर होगी ! इसकी तस्वीर भी स्पष्ट रूप से जनता को बताए जाने की जरूरत है। जांच मे लगने वाले समय और जांच के दौरान तथा फिर घर पहुंचने तक लाॅक डाउन छूट के समय मे क्या सामंजस्य होगा यह भी देखना होगा।
जाहिर है कि या तो सरकार को समय बढ़ाना होगा अथवा जांच करने वाले अधिकारियों को इसके निर्देश देने पड़ेंगे कि वे कम समय की समस्या को देखते हुए उदारता पूर्वक निर्णय लें।
अब तक सरकार के तुगलकी फरमानों से निराश हो चुकी जनता के लिए यह निर्णय सरकार की बदनाम होती छवि पर ताबूत की आखिरी कील साबित हो सकता है।
अब तक लिए गए निर्णयों पर एक नजर डालें तो चाहे वह देश के विभिन्न स्थानों पर फंसे हुए लोगों के लिए तीन बार बदले गए हेल्पलाइन नंबरों और अधिकारियों की बात हो या फिर लाॅक डाउन का समय 10:00 से बढ़ाकर 1:00 बजे करने का निर्णय हो या फिर देहरादून में रेस्टोरेंट तथा मीट की दुकानों को खोले जाने का निर्णय हो अथवा कालाबाजारी रोकने जरूरतमंदों तक भोजन पहुंचाने के लिए जारी किए गए हेल्पलाइन नंबर की बात हो, इन सभी को ठीक से मैनेज करने में सरकार असफल सिद्ध हुई है। अब तक के निर्णय और सिया मैसेज जा रहा है कि सरकार अपनी जिम्मेदारी से बचने के ढील पर ढील दे रही है। ताकि जनता को जहां के तहां पर ही रोक कर खाने रहने की जिम्मेदारी न उठानी पड़े।
अब तक सामाजिक संस्थाएं, समाजसेवी और पुलिस के जवानों ने ही अपने अपने स्तर पर व्यक्तिगत मानवीय भावनाओं के चलते लोगों को राहत पहुंचाई है।
आए दिन कोई न कोई फरमान अथवा हेल्पलाइन नंबर सोशल मीडिया में डालने के अलावा सरकार का कोई प्रभावी रोल नजर नहीं आता।
जाहिर है कि सरकार को उपरोक्त सवालों पर संज्ञान लेते हुए तत्काल निर्णय लेना होगा। यह करो या मरो की स्थिति है।