उत्तराखंड रोडवेज में कार्यरत ड्राइवर कंडक्टर भले ही हाई कोर्ट से अपनी लड़ाई जीत गए हैं, लेकिन उत्तराखंड की कल्याणकारी सरकार को उनके परिवार का सुखचैन शायद रास नहीं आ रहा है।
उत्तराखंड सरकार ने अच्छी खासी संविदा की नौकरी कर रहे राज्य के साढे तीन सौ से अधिक ड्राइवर कंडक्टर को दोबारा से 11 महीने के अनुबंध पर रखने का फरमान जारी कर दिया।
वर्षों से संविदा पर काम कर रहे ड्राइवर कंडक्टर इस आस में थे कि कभी न कभी वह पक्के हो जाएंगे, लेकिन उत्तराखंड सरकार ने उल्टे उनको 11 महीने का अनुबंध पर काम करने का फरमान सुना डाला।
जब कर्मचारियों ने आनाकानी की तो अप्रैल से उनका वेतन ही रोक दिया।
इस उत्पीड़न के खिलाफ उत्तराखंड रोडवेज एंप्लाइज यूनियन हाई कोर्ट की शरण में गई तो हाईकोर्ट ने ड्राइवर कंडक्टरों को अप्रैल से लेकर अगस्त तक का वेतन देने के आदेश दिए साथ ही अंतिम निर्णय आने तक अनुबंध करने पर भी रोक लगा दी।
एक तो सरकार ने कोरोना काल में 6 महीने से इनका वेतन रोका हुआ है, दूसरा हाईकोर्ट का आदेश भी मानने को तैयार नहीं है।
पर्वतजन ने जब उत्तराखंड परिवहन निगम के डीजीएम दीपक जैन से बात की तो उनका कहना था कि हाई कोर्ट ने पता नहीं कैसे यह निर्णय सुना दिया है ! विभाग इसके खिलाफ डबल बेंच में ही नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट तक जाएगा।”
ये ड्राइवर कंडक्टर उत्तराखंड के मूल और स्थाई निवासी हैं जबकि सैकड़ों की संख्या में मार्शल तथा जैब आउट सोर्सिंग कंपनियों के द्वारा लगे हुए ऐसे कर्मचारियों से कोई अनुबंध नहीं भरा गया है जो उत्तर प्रदेश की रहने वाले हैं।
दरअसल परिवहन निगम में इससे पहले उत्तर प्रदेश की आउटसोर्सिंग एजेंसियों से ड्राइवर और कंडक्टर की भर्ती की गयी थी।
इन ड्राइवर कंडक्टरों का मूल निवास तथा तथा स्थाई निवास प्रमाण पत्र भी नहीं देखा गया था।
यह आउटसोर्सिंग कंपनियां बीच में काम छोड़ कर चली गई लेकिन इन एजेंसियों द्वारा लगाए गए कर्मचारियों को विभाग ने अपने अधीन ही रख लिया।
इनमें से लगभग 80% कर्मचारियों का मूल निवास स्थाई अस्थाई निवास उत्तराखंड का नहीं है। यह सभी उत्तर प्रदेश के हैं।
लेकिन उत्तराखंड विरोधी सरकार और अधिकारी इनके साथ तो कोई अनुबंध नवीनीकरण नहीं कर रहे, जबकि उत्तराखंड के शत-प्रतिशत संविदा चालकों के खिलाफ अनुबंध का कुचक्र रच रहे हैं।
लगभग अर्धशतक से भी अधिक विभागों को दबाए बैठे मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के पास ही परिवहन विभाग है।
संभवतः या तो उन्हें जानकारी नहीं है कि उनके अधीन अधिकारी उत्तराखंड के लोगों के खिलाफ क्या कुचक्र रच रहे हैं, अथवा सब कुछ जानते बूझते भी त्रिवेंद्र सिंह रावत खामोश हैं। असल वजह क्या है, यह साफ नहीं है।