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प्रदेश सरकार के बजट का 80 प्रतिशत हिस्सा वेतन और पेंशन पर खर्च हो रहा है, जबकि विकास कार्यों के लिए 20 प्रतिशत भी बजट नहीं
विनोद कोठियाल
उत्तराखंड की डबल इंजन की सरकार शुरुआत में बहुत गंभीरता से कदम बढ़ाते हुए चली। स्वयं मुख्यमंत्री ने शुरुआत में ऐलान किया कि वो घोषणा वाले मुख्यमंत्री नहीं, काम करने वाले मुख्यमंत्री हैं और पूर्व मुख्यमंत्रियों की घोषणाओं के अनुभव देखते हुए घोषणा नहीं करेंगे, बल्कि काम करेंगे।
त्रिवेंद्र सिंह रावत के इस बयान के बाद उत्तराखंड की जनता की उम्मीद आसमान चढऩे लगी, किंतु दो महीने बाद फिर वही पुराना ढर्रा सबके सामने दिखने लगा। अब तो मुख्यमंत्री व मंत्री जहां भी जा रहे हैं, काम हो न हो, घोषणा जरूर कर दे रहे हैं।
मुख्यमंत्री ने अभी तक जितने जनपदों में जनता दरबार या जनता मिलन कार्यक्रम लगाए हैं, दिल खोलकर घोषणाएं की हैं। घोषणाओं का ये दौर तब जारी है, जबकि अंतरिम सरकार की मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी से लेकर भगत सिंह कोश्यारी, नारायण दत्त तिवारी, भुवनचंद्र खंडूड़ी, रमेश पोखरियाल निशंक, विजय बहुगुणा व हरीश रावत की घोषणाओं की फाइलों से सचिवालय अटा पड़ा हुआ है।
विधायकों व संगठन के दबाव में की जा रही इन घोषणाओं का भविष्य कितना उज्जवल है, यह तो कोई भी पूर्व मुख्यमंत्री बहुत आसानी से अपने अनुभवों के आधार पर बता सकता है, किंतु यह सबसे बड़ा सत्य है कि उत्तराखंड के पास आज अपने साधन-संसाधन होते हुए भी बजट की भारी कमी है।
उत्तराखंड में राजस्व प्राप्ति के सबसे बड़े स्रोत खनन, शराब, जड़ी-बूटी व पर्यटन हैं, किंतु इनसे प्राप्त होने वाला मूल राजस्व अवैध राजस्व में बदल जाता है, जो सरकारी खजाने में जाने की बजाय सरकार चलाने वाले दलों के चुनाव लडऩे और चुनाव जीतने में खर्च हो जाता है। खनन जैसे लाभकारी विभाग से अपेक्षाकृत परिणाम आज तक कभी नहीं आ सके।
कुछ दिनों पहले उत्तराखंड सरकार द्वारा गठित एंटी माइनिंग सैल पर ताला लगाने की बात आने के बावजूद किसी ने चूं तक नहीं किया। उत्तराखंड से बहकर उत्तर प्रदेश जाते रेत, बजरी, रोड़ी, पत्थर से उत्तर प्रदेश अरबों रुपए कमा रहा है, किंतु उत्तराखंड की गलत नीतियों और एनजीटी के रोड़ों के कारण उत्तराखंड को सीधा-सीधा हानि हो रही है।
उत्तराखंड की सीमा पर पलते उत्तर प्रदेश के सैकड़ों स्टोन क्रशर इस बात की तस्दीक करते हैं कि उत्तराखंड की सरकारें किस प्रकार अपने ही प्रदेश को लुटाती रही। शराब और सरकार का उत्तराखंड में राज्य गठन से ही जोरदार मेल है। जितनी शराब दुकानों में नहीं बिकती, उससे कई गुना अधिक दुकानों से बाहर बिकवाई जाती है और इस अवैध कारोबार से आने वाला धन भी सरकारें बनाने, गिराने पर बखूबी खर्च होता रहा है।
आबकारी विभाग एक ऐसा विभाग रहा है, जिसमें तय किए गए लक्ष्य लगभग हमेशा फलदायी साबित हुए हैं। पर्यटन जैसे महत्वपूर्ण विभाग की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। जिस विभाग को उत्तराखंड में राजस्व प्राप्ति की रीढ़ बन जाना चाहिए था। जहां दर्जनों प्रकार के पर्यटन कार्यक्रम होने चाहिए थे, वहां १७ वर्षों से यह विभाग विदेश घूमने और सैर-सपाटे से आगे नहीं बढ़ पाया है।
विधानसभा चुनाव २०१७ से पहले आल वेदर रोड के शिलान्यास कार्यक्रम में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया था कि उत्तराखंड की बेशकीमती जड़ी-बूटियों से वे बेहतर तरीके से परिचित हैं। उत्तराखंड में जड़ी-बूटियों का इतना बड़ा भंडार है कि यह प्रदेश स्वयं के खर्चे वहन करने के साथ-साथ दूसरे प्रदेशों को भी पाल सकने की कुव्वत रखता है। प्रधानमंत्री ने ऐलान किया था कि यदि उत्तराखंड की जनता ने उत्तराखंड में डबल इंजन की सरकार बना दी तो वे दिल्ली के इंजन से उत्तराखंड के इंजन को खींचते हुए उत्तराखंड को नई ऊंचाइयों तक ले जाने का काम करेंगे।
प्रदेश में डबल इंजन की सरकार बनने के बाद जड़ी-बूटी की दिशा में जिस तरफ सरकार बढ़ रही है, वह बहुत गंभीर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जिन बेशकीमती जड़ी-बूटियों के दोहन से करोड़ों रुपए राजस्व कमाने की बात कही थी, उन जड़ी-बूटियों के दोहन व विपणन के साथ-साथ मूल्य तय करने का अधिकार भारतीय जनता पार्टी के २०१४ के चुनाव प्रचारकों में से प्रमुख रहे पतंजलि योगपीठ के रामदेव और बालकृष्ण को दे दिया गया है। अर्थात् अब उत्तराखंड की संजीवनी बूटी से लेकर कीड़ा जड़ी और एलोवेरा से लेकर गिलोय तक पर पतंजलि योगपीठ का एकछत्र राज होगा।
पतंजलि योगपीठ को इस तरह प्रदेश के संसाधन सौंपना अपने आप में गंभीर सवाल भी खड़े करता है। अगर पतंजलि जड़ी-बूटी का मालिक बनकर उत्तराखंड का खेवनहार बन गया है तो क्या अब डबल इंजन की सरकार शराब, खनन और पर्यटन को भी इसी प्रकार किसी निजी हाथ में सौंप देगी! यदि पतंजलि को उत्तराखंड के भले के लिए यह सब सौंपा गया है तो जो किसान धान उगाता है, गेहूं उगाता है, गन्ना उगाता है, सब्जियां उगाता है, फलों का उत्पादन करता है तो उन किसानों को ही उनके द्वारा पैदा किए जाने वाले खाद्यान्नों का मूल्य निर्धारण और विपणन का अधिकार उत्तराखंड सरकार देगी? यदि नहीं तो क्यों नहीं? जब बाहर से आकर हरिद्वार में उद्योग लगाने वाले रामदेव को इस प्रकार के अधिकार दिए जा सकते हैं तो उत्तराखंड के किसानों को क्यों नहीं?
उत्तराखंड की वित्तीय स्थिति को जानने के लिए उत्तराखंड के लोगों को कुछ ऐसे अध्ययन अब जरूर करने पड़ेंगे, जिससे उन्हें मालूम हो जाए कि यह प्रदेश कितने गहरे पानी में है और दिन-रात हवाई घोषणाएं करने वाली सरकार उन्हें किस प्रकार बरगलाती आती रही है।
उत्तराखंड की वित्तीय वर्ष २०१७-१८ का वार्षिक बजट ४० हजार करोड़ रुपए है। जिसमें से ३२ हजार करोड़ कर्मचारियों के वेतन पर व्यय हो रहा है और मात्र ८ हजार करोड़ विकास का बजट है, जबकि २० प्रतिशत व्यय वेतन पर और ८० प्रतिशत व्यय विकास के लिए होना चाहिए? यहां तो बजट का मामला ठीक उल्टा है तो कैसे यकीन करें कि राज्य का चहुंमुखी विकास होगा? पलायन कैसे रुकेगा? मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे व कब होगी? इस प्रकार कई प्रश्न उठते हैं। यदि वास्तविकता यही है तो वित्त विभाग के विशेषज्ञ पिछले १७ सालों से क्या कर रहे हैं? इस प्रकार का चौंकाने वाला बजट सरकार के गले की हड्डी बन चुकी है तो उत्तराखंड में ८० प्रतिशत बजट वाली कर्मचारियों की फौज की क्या वास्तव में आवश्यकता है? जिसके हाथ में मात्र २० प्रतिशत विकास के कार्यों के लिए धन आवंटित है। यह तो सवा करोड़ जनता के साथ सरासर धोखा है?
राज्य के प्रत्येक विभाग में जो ढांचे बनाए गए हैं, ऊपरी स्तर पर तो आवश्यकता से अधिक पद सृजित हैं, जो ९८ प्रतिशत भरे हुए हैं, किंतु विडंबना यह है कि ग्रास रूट के ८० प्रतिशत पद रिक्त चल रहे हैं? जैसी व्यवस्था बजट की है, उसी के अनुरूप पद भरे गए हैं तो कैसे ठोस योजना धरातल पर बनेगी। इसीलिए तो सरकार समय-समय पर कहती है कि योजनाओं को धरातल पर उतारना है। विडंबना यह है कि उच्च स्तर पर तो एक पद भी रिक्त होने पर तुरंत हल्ला हो जाता है, परंतु ग्रासरूट के पद जब भरने होते हैं, तो विज्ञापन निकलने से पहले ही उसमें घपले हो जाते हैं और कोई भी पद बिना न्यायालय की शरण में गए आगे बढ़ता ही नहीं है तो कैसे विकास की कल्पना की जा सकती है!
वर्तमान में लगभग ७० हजार पद रिक्त चल रहे हैं और दूसरी ओर सेवानिवृत्ति सेवकों को पुनर्नियुक्ति की होड़ लगी है। उसकी आवश्यकता हो या न हो, अपने चहेतों को नियुक्ति हर हाल में देनी है। माननीय भी अनुमोदन दे ही देते हैं, फिर डर किसका। दूसरी ओर उ.प्र. की नकल कर अनगिनत आयोग बनाए गए हैं, ताकि चहेतों को सेवानिवृत्ति पर सुशोभित पद इनाम में दिया जाए। कतिपय आयोग को छोड़कर अन्य आयोग राज्य के लिए एक वित्तीय बोझ हैं। उस पर आसीन स्वयं दिल से महसूस करते होंगे कि क्या आयोग की जनहित में उपयोगिता है? किंतु घर जाकर ऐसी सुविधा कैसे मिलेगी? सरकार यदि गंभीर होती तो आयोग बनाने से पहले सोचती, परंतु कतिपय आयोगों को छोड़कर अन्य आयोगों की उपलब्धि शून्य साबित हो रही है। जिसकी समीक्षा कर आयोग की संख्या राज्यहित में कम या समाप्त की जा सकती है।
आजकल वेतन विसंगति समिति बनाई गई है। जो प्रत्येक स्तर की इन विसंगतियों का परीक्षण कर रिपोर्ट सरकार को दे रही है। कमेटी में भी केवल वित्त विभाग के वे अधिकारी हैं, जिन्होंने राज्य में अनाप-शनाप ढांचे बनाने में सहयोग किया, जबकि वेतन विसंगति समिति किसी प्रमुख अर्थशास्त्री की अध्यक्षता में बनाई जानी चाहिए था और समिति के सदस्य बेदाग होने चाहिए।
राज्य में १२६ संवर्गों के सापेक्ष केवल २८ संवर्ग को ही लाभ दिया गया है, जिससे शेष संवर्गों में असंतोष होना स्वाभाविक है। जिससे आए दिन विभागों के कर्मचारी संगठन हड़ताल कर सरकार पर दबाव डाल रहे हैं। इससे विदित होता है कि इन संवर्गों के साथ भेदभाव किया गया है?
दूसरी ओर इसी माह में सरकार द्वारा ४०० करोड़ रुपया ऋण लिया गया है और पहली छमाही होने तक १७०० करोड़ का ऋण लिया जा चुका है। मितव्ययता की दृष्टि से सरकार में केवल चतुर्थ श्रेणी, वाहन चालक व संविदा पर रखे डेटा एंट्री ऑपरेटर के रिक्त पदों को आउटसोर्सिंग से भरा गया है, जिसको सरकार बचत की दृष्टि से देखती है? विडंबना यह है कि इन संविदा कार्मिकों को कभी भी समय पर वेतन नहीं मिलता है। जिसका आए दिन समाचार पत्रों में पढऩे को मिलता है, परंतु विभाग के मुखिया को अपने वेतन लेने से पहले इनके वेतन देने के लिए सोचना चाहिए, परंतु सरकार व विभागाध्यक्ष इस पर मौन हैं। जिससे सरकार वेतन देने में विफल रही है। उदाहरणार्थ आईटीआई विभाग में तो गत वर्ष ४.७० करोड़ दैनिक कार्मिकों की देनदारी का बैकलाग बजट था, जबकि सातवां वेतन में चतुर्थ श्रेणी का मूल वेतन १८००० है और भारत सरकार ने २३००० मूल वेतन कर दिया है, किंतु दैनिक कार्मिक को माह में ८-१० हजार वेतन ही समय पर नहीं मिलता तो कैसी सरकार की व्यवस्था है, जबकि सुप्रीम ने तो दैनिक कर्मियों को समान कार्य के आधार पर समान वेतन देने की संस्तुति की है, जबकि वेतन तो वचनबद्ध व्यय है तो समय पर भुगतान न करने के कोई कारण नहीं दिखता है।
उत्तराखंड बनने के बाद सर्वप्रथम वित्त विभाग ने अपने ढांचे में ३०० प्रतिशत तक पदोन्नति के पद रखे गए, जो होता ही नहीं है। पदोन्नति के पद मौलिक पद से ऊपर ५० प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता है। इसके बाद अन्य विभागों ने भी वित्त विभाग को आधार बनाकर अनावश्यक पद बढ़ाना प्रारंभ कर दिया। अब वित्त विभाग ने ३०० प्रतिशत पदोन्नति के पदों पर परदा लगाने के लिए नीचे स्तर के पद बिना विभाग से पूछे काल्पनिक रूप से बढ़ा दिए हैं, क्योंकि विभागों में सहायक लेखाकार एवं लेखाकार, जिनका ग्रेड पे क्रमश: 42०० व ४६०० है, ठीक उसके ऊपर ५४०० ग्रेड पे से लेकर १०००० ग्रेड पे के वित्त नियंत्रक के पद स्वीकृत किए गए हैं, जिनका जॉब चार्ट नगण्य है, जबकि संशोधित ढांचे के शासनादेश में अब केवल ५४०० ग्रेड पे के ही पद अब रखे जाएंगे, परंतु आश्चर्य यह है कि अभी तक अन्य विभागों के उच्च स्तर के वित्त नियंत्रक पद समाप्त नहीं किए गए हैं। इसी प्रकार प्रभावशाली विभागों द्वारा अनाप-शनाप पद सृजित किए गए हैं। जैसे लोनिवि, पावर कारपोरेशन आदि विभागों में प्रत्येक दो जनपदों में एक मुख्य अभियंता का पद सृजन का औचित्य क्या है? जबकि अधीक्षण अभियंता का पद मौजूद है। इसी प्रकार स्वास्थ्य विभाग, शिक्षा विभाग, आरईएस, ग्राम्य विकास, पशुपालन, सिंचाई, लघु सिंचाई, उत्तराखंड प्रैस रुड़की व आदि में कार्य की तुलना में अनावश्यक पद बढ़ाए गए हैं। जिसका किसी स्तर से भी औचित्यपूर्ण प्रस्ताव नहीं है। जिसका लाभ राज्य के हित में नहीं है। जिसके कारण राज्य का बजट का ८० प्रतिशत कर्मचारियों पर खर्च हो रहा है। जिस पर अभी भी सरकार गंभीर नहीं दिख रही है। जिस पर गहनता से विचार किया जाना आवश्यक होगा। जिस प्रकार अभी भी कर्मचारियों का असंतोष को देखते हुए लगता है कि शत प्रतिशत बजट कर्मचारियों के लिए पूरा होने वाला नहीं है?
उत्तराखंड में पूर्व से ही विभागों का एकीकरण का मंथन चल रहा था। जिससे निम्न विभागों का भी एकीकरण/पृथकीकरण का परिणाम इस प्रकार है।
१. पहले एमबीबीएस व विशेषज्ञ डॉक्टरों का संवर्ग एक था। पुन: पृथक किया गया, फिर अब एक कर दिया गया है।
२. माध्यमिक शिक्षा में अध्यापकों का संवर्ग प्रधानाचार्य तक पृथक किया गया, अब प्रशासनिक विभाग में सम्मिलित करने के लिए प्रधानाचार्य संवर्ग निरंतर सरकार पर दबाव डाल रही है।
३. पूर्व में राजकीय सिंचाई एवं लघु सिंचाई का एकीकरण किया गया, फिर दोनों विभागों को अलग कर दिया गया।
४. पूर्व में संघ की मांग पर जेई संवर्ग के ऊपर कनिष्ठ अभियंता का पद सृजित किया गया था, अब संघ की मांग पर पुन: कनिष्ठ अभियंता का पद समाप्त कर दिया गया है।
५. पूर्व में सभी मंडलीय पद समाप्त कर दिए गए थे। अब पुन: कतिपय विभागों में मंडलीय पद सृजित व पदों को उच्चीकृत भी किया गया?
६. पुलिस विभाग में ४ डीआईजी रेंज बनाया गया, पुन: अब २ डीआईजी रेंज।
आजकल सरकार द्वारा पुन: कृषि उद्यान, जल निगम जल संस्थान व केएमवीएन जीएमवीएन आदि विभागों का एकीकरण का कार्य चल रहा है, जिसमें कर्मचारी संतुष्ट नहीं हैं। इस प्रकार के अपरिपक्व निर्णय से राज्य का भला नहीं होने वाला है।
उत्तराखंड में कोई ऐसा विभाग नहीं है, जहां घोटाला का पर्दाफाश नहीं हुआ हो। जहां दोषी पाए गए कार्मिक के विरुद्ध कार्यवाही करने की बजाय एसआईटी व जांच आयोग गठित कर ध्यान हटाया जा रहा है। क्या विभाग दंड देने के लिए सक्षम नहीं है? अभी हाल ही में महालेखाकार द्वारा जीपीएफ फंड का घोटाला सामने आया। इस घोटाले में संबंधित विभाग की जिम्मेदारी के साथ-साथ वित्त विभाग की जिम्मेदारी दुगुनी हो जाती है, क्योंकि वित्त विभाग ही अंतिम फण्ड की जांच कर भुगतान करता है। जिस पर वित्त विभाग मौन है तो फिर इतने ऊंचे वेतन लेने वाले वित्त नियंत्रक भी सवालों के घेरे में आ जाते हैं?
इस प्रकार वित्त विभाग को राज्य के हित में सर्वप्रथम अपने विभाग के ढांचे को मॉडल के रूप में प्रसारित करना चाहिए। तभी अन्य विभागों के ढांचे में भी सुधार लाया जा सकता है। इसी प्रकार वित्त विभाग ने जिन विभाग में पदोन्नति के अवसर कम हैं, वहां १०, २० व ३० वर्ष की सेवा में पदोन्नति के वेतनमान स्वीकृत किया है, परंतु वित्त विभाग प्रत्येक ५, १०, १५, २० एवं २४ वर्ष में पदोन्नति वेतन पाता है, जबकि अन्य विभाग जो वेतनमान ३० वर्ष में प्राप्त करते हैं, वह वित्त विभाग १५ वर्ष में ही प्राप्त करता है। एक राज्य में वित्त विभाग के लिए अलग मानक कैसे हो सकते हैं? मजे की बात है कि वित्त विभाग द्वारा २५ वर्ष की सेवा को २४ वर्ष करने के लिए प्रथम सेवा है। ४२ वर्ष का कुतर्क देकर कैबिनेट से पास करा लिया गया और शीर्ष अधिकारियों/माननीयों द्वारा आंख मूंदकर दस्तखत कर दिए गए। अब तो उत्तराखंड के कैबिनेट का भी कोई स्तर नहीं रह गया है। इस प्रकार सरकारी बजट की लूट क्यों की जा रही है?
वर्तमान में सरकार की ६ माह तक की उपलब्धि प्रसारित नहीं हुई है तो विज्ञापन, प्रकाशन, फिल्म, प्रसार आदि में किए जाने वाले १११८४ लाख रु. की खर्च करने का औचित्य भी समझ से परे है। इससे तो अच्छा होता इस धनराशि से गरीबों के कल्याण की योजना बनाई जाती तो वह सरकार की उपलब्धि होती। इस प्रकार का व्यय करना केवल राजकोषीय घाटे को बढ़ाना है।
इसी प्रकार विधायक निधि के तहत प्रत्येक विधायक को वित्तीय वर्ष के लिए ३.७५ करोड़ रुपए निर्धारित हैं, जबकि यूपी में डेढ़ करोड़ व बिहार सरकार ने विधायक निधि समाप्त कर दी है।, जबकि विधायक निधि खर्च करने में सरकार विफल रही है। तो विधायक निधि बढ़ाने का क्या औचित्य है? इसी प्रकार राज्य के शीर्ष अधिकारीगण ४-५ गाडिय़ों का प्रयोग करते हैं, तो उनके अधीनस्थ अधिकारी भी ४-५ गाडिय़ों का उपयोग करने में नहीं चूकते, जबकि नियमानुसार केवल लॉगबुक भरने वाला अधिकारी ही गाड़ी का प्रयोग कर सकता है।
उत्तराखंड में कहीं भी सरकार द्वारा संसाधन बढ़ाने के कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है, जिसका कोई परिणाम नहीं दिखता है। केवल समय-समय पर कैबिनेट निर्णय पर ही बल दिया जा रहा है, जो कि राज्य की वास्तविक उपलब्धि नहीं है।
दूसरी ओर विदेश भ्रमण का दौर प्रारंभ हो चुका है। राज्य निर्माण के बाद माननीय व नौकरशाहों की लगातार विदेश भ्रमण से जहां करोड़ों करोड़ों रुपया व्यय हुआ है, वहीं कोई विभाग बता दे कि विदेश यात्रा से राज्य को यह लाभ हुआ है? इस प्रकार विकास के लिए २० प्रतिशत बजट ऊंट के मुंंह में जीरा है। जब संचालन में ८० प्रतिशत बजट वाली फौज योजनाओं की गुणवत्ता लाने और घोटाले रोकने में नाकाम दिख रहा है, जबकि माननीयगण लगातार प्रत्येक स्तर पर जनसमस्याओं की सुनवाई कर रहे हैं, किंतु समस्याएं किस प्रकार की हैं, जो नौकरशाह निराकरण नहीं कर पा रहे हैं। ऐसी जनसमस्याओं को उपलब्धि के रूप में प्रसारित किया जाना चाहिए।
प्रिय पाठकों! यह स्टोरी हमने इस खतरे को उठाते हुए भी पोस्ट कर दी कि क्या पता कुछ पाठकों को यह बोरिंग लग सकती है। आपसे अनुरोध है कि इसे पढिए और शेयर कीजिये ताकि नीति नियंता समझ सकें कि हम कितने संकट के दौर मे हैं।